Book Title: Pallu ki Prastar Pratimaye
Author(s): Devendra Handa
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 3
________________ शताब्दीमें अस्तित्वमें आ चुका था। थेड़के दक्षिण-पश्चिम भागसे प्रस्तुत लेखकको शुङ्ग-कुषाणकालके रक्त वर्ण मृद्भाण्डोंके टुकड़े भी प्राप्त हुए हैं जो ताम्र-मुद्रासे अनुमेय प्राचीनताकी पुष्टि करते हैं। श्री मौजीरामजी के सौजन्यसे प्राप्त पल्लके १०० सिक्कोंमें कुषाण तथा इण्डो-सासानियन राजाओं के ताम्बेके सिक्के (१२ + ५) पल्लूके द्वितीय शती ईसा पूर्वसे तृतीय-चतुर्थ शती ईस्वी तक निरन्तर बसे रहनेका प्रमाण हैं । परन्तु इसके पश्चात् ऐसा जान पड़ता है कि लगभग पांच शताब्दियों तक पल्लमें कोई बस्ती नहीं रही क्योंकि इस कालके न तो कोई सिक्के ही मिले हैं और न कोई अन्य अवशेष ही', फिर भी उत्खननके अभाव में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। नवीं-दसवीं शताब्दीमें पल्लू फिर बस गया और विभिन्न राजाओं के उत्थान-पतन देखता हआ यह तबसे निरन्तर बसा चला आ रहा है । मुहम्मद बिन साम की मुद्राओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम आक्रमण यहां भी हुआ था और सम्भवतः यहांपर मन्दिर मुत्तियोंको खण्डित किया गया। सामन्त देव तथा सोमल देवी की विभिन्न मूल्यों की लगभग ४५ (२० + २५) ताम्र-मुद्राओंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि उनके समय में पल्लू एक प्रसिद्ध स्थान था। जौनपुरके हुसेनशाहकी दो ताम्र-मुद्राएं इस बातकी द्योतक है कि चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में पल्लू तथा आस-पासके क्षेत्रके लोगोंका जौनपुरसे सम्भवतः व्यापारिक सम्पर्क था। पल्लू की प्रस्तर प्रतिमाएं शैव प्रतिमाएँ पल्लू की कलाकृतियोंमें प्राचीनतम है यहांसे प्राप्त भूरे वर्ण के बालुका प्रस्तरका अभिलिखित कीर्तिस्तम्भ, ३३' x १२" के चौकोर इस की तिस्तम्भके एक ओर लिङ्ग रूपमें शिव-पूजन करते हुए एक दम्पति का चित्रण किया गया है तथा दूसरी ओर गणपतिका । स्त्री तथा पुरुष दोनों 'लांग'की धोती पहने दिखाये गये हैं । कण्ठहार, कर्ण कुण्डल, भुजबन्ध, करधनी आदि आभूषणोंसे सुसज्जित इन मत्तियोंका अंकन क्षेत्रीय वस्त्राभूषणोंकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है। कीर्तिस्तम्भ पर दम्पति वाली ओर तीन पंक्तियोंके अभिलेखमें केवल प्रथम पंक्ति ही सुपाट्य है जिसपर इसकी तिथि विक्रम संवत् १०१६ कातिक सुदि ११ अंकित है । कीर्तिस्तम्भ दसवीं शताब्दीमें पल्लू क्षेत्रमें शिवपूजनका परिचायक होनेसे धार्मिक दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण है । डा० हरमन गोयटजका विचार है कि शाकम्भरी तथा अजमेरके चौहानोंने जांगल देशसे लगभग दसवीं शताब्दी में प्रतिहारोंको हटाकर अपना अधिकार जमाया और इस क्षेत्र में शैव मन्दिरों की स्थापना की। पल्लका मन्दिर सम्भवतः उन्हीं में से एक है जिसकी कुछ मत्तियाँ अब भी इधर-उधर बिखरी पड़ी है। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएं निम्नलिखित है १. उमा-महेश्वरकी हल्के भूरे रंगकी आडावळा पत्थरकी प्रतिमा जो अब बीकानेर संग्रहालयमें है, ------------------ १. श्री मौजीरामजीके द्वारा राजस्थान पुरातत्त्व विभाग को लगभग २४५ सिक्के दिये गये थे जिनका परा विवरण विभागके द्वारा अभी तक प्रकाशित नहीं किया गया है क्योंकि इन मुद्राओंको अभी रासायनिक विधिसे साफ किया जा रहा है। पल्लूकी कुछ मुद्राएं "नगरश्री" संग्रहालय, चूरूमें हैं तथा कुछ अन्य विभिन्न व्यक्तियोंके पास । इन सिक्कों में चौथीसे नवीं शती तकका कोई सिक्का उपलब्ध नहीं है। २. हुसेन शाहकी ताम्र-मुद्राएं धानसिया (तहसील नौहर, जिला श्री गंगानगर)से भी प्राप्त हुई हैं। 3. V. S. Srivastava, Catalogue And Guide To Ganga Golden jubilee Museum, Bikaner, Jaipur, 1961, p25,(185 B. M.) and plate, परमेश्वरलाल सोलंकी, वही, पृष्ठ २२। ४. H. Herman Goetz, Art and Architecture of Bikaner state, Oxford, 1950. इतिहास और पुरातत्त्व : १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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