Book Title: Pallu ki Prastar Pratimaye
Author(s): Devendra Handa
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लू की प्रस्तर प्रतिमाएँ श्री देवेन्द्र हाण्डा पल्लू का नाम वहाँसे प्राप्त जैन सरस्वती प्रतिमाओंके कारण कला एवं पुरातत्त्व जगत् में सुविदित हैं. परन्तु बहुत कम लोगोंको अवगत होगा कि पल्लू मध्ययुगीन कलाकेन्द्र होने के साथ-साथ एक महत्त्वपूर्ण धर्मस्थान भी रहा है और लगभग दो सहस्राब्दियोंसे मनुष्य तथा प्रकृतिके आघात-प्रतिघात सहन करता हुआ बस चला आ रहा है. प्रस्तुत लेखमें पल्लूसे प्राप्त प्रागवशेषोंके आधारपर इसकी प्राचीनता, मूर्तिकला, धार्मिक महत्ता आदि का ब्योरा विज्ञ पाठकोंके सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है. ' पल्लू की स्थिति पल्लू उत्तरी राजस्थानमें श्री गंगानगर जिलेकी नोहर तहसीलमें एक ऊंचे थेड़पर वसा छोटासा गाँव है जो सरदारशहर-हनुमानगढ़ सड़कपर सरदारशहर से लगभग ४० मील उत्तर हनुमानगढ़ से लगभग ५५ मील दक्षिण तथा नौहर से लगभग ५० मील दक्षिण-पश्चिम कोण में महप्रदेशमें स्थित है । नामकरण स्थानीय अनुश्रुति तथा 'पल्लू की ख्यात' से पता चलता है कि इसका पुराना नाम कलूर गढ़ ( या कोटकलूर) था और उत्तरमध्यकालमें यह जाटोंका एक महत्त्वपूर्ण ठिकाना था । कलूर गढ़के जाटों तथा पूगलके भाटियों में पारस्परिक वैमनस्य था । भाटियोंको नीचा दिखानेके लिए जाटोंने अपनी वीरांगणा राजकुमारी पल्लूका भाटी राजकुमारसे विवाहका षड्यन्त्र रचा। इसमें एक निश्चित योजना के अनुसार 'कंवर कलेवे में भाटी राजकुमार तथा वर यात्रामें आये भाटी सरदारोंको विष दे दिया गया। रात हुई तो राजकुमारी पल्लूको सुहागरात के लिए भेजा गया ताकि इस बात का निश्चय भी हो सके कि राजकुमार मर गया है या नहीं । परन्तु अपने पति के अनिन्द्य एवं अप्रतिम सौन्दर्य तथा अपने पिताकी कुभावना जानकर पल्लूका मन विचलित हो उठा और उसने सारी कथा शेष बचे भाटी वीरोंको कह दी । राजकुमार तथा उसके साथी सरदारों का उपचार कर लिया गया तथा जाटों का सफाया किया जाने लगा । एक एक कर पल्लू के सातों भाई भी मारे १. जैन सरस्वती प्रतिमाओं को प्रकाशमें लाने वाले डा० एल० पी० टेस्सिटरीके बाद पल्लूकी सांस्कृतिक धरोहरकी रक्षा करने वाले व्यक्तियोंमें यदि सर्वप्रमुख नाम देखा जाए तो वह है पल्लू पञ्चायत समिति के भूतपूर्व मन्त्री नौहर निवासी श्री मौजीराम भारद्वाजका जिन्होंने कई वर्ष तक पल्लू में रहकर वहांकी सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक सामग्री की सुरक्षा के लिए अनेक विध प्रयत्न किए एवं वहां के सिक्के तथा मूर्तियां राष्ट्रीय संग्रहालय (नई दिल्ली), राजस्थान पुरातत्त्व विभाग, संगरिया संग्रहालय, गुरुकुल संग्रहालय, झज्झर (हरियाणा) तथा विभिन्न रुचिवान् व्यक्तियों तक पहुँचाये, प्रस्तुत लेखकी अधिकतर सामग्री एवं बहुमूल्य सूचनायें मुझे श्री मौजीरामजी से ही प्राप्त हुई हैं अतः उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । इतिहास और पुरातत्त्व : ११ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये और कलूर गढ़ भाटियोंके अधीन हो गया । भाटियोंने पल्लूके शौर्यको चिर स्थायी बनाने के लिए कलूर गढ़ का नाम बदलकर पल्लू गढ़ रख दिया जो अभी तक चला आ रहा है । " पल्लूका समीकरण खरतरगच्छपट्टावलिके पल्हूपुर तथा चौहानअभिलेखीय स्थल प्रह्लादकूप से भी किया गया है । किरातकूप से किराडू तथा जांगलकूपसे जांगलू के समान प्रह्लादकूप से पल्लू की व्युत्पत्ति भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे तर्क-संगत जान पड़ती है । परन्तु कलूरगढ़ नाम की व्युत्पत्ति अज्ञात है। गढ़ (=कोट) से स्पष्ट है कि उत्तर-मध्य काल में यहांपर जाटों का किला था। आज भी यदि पल्लूके थेड़का निरीक्षण ध्यानपूर्वक किया जाये तो इस किले की रूपरेखा कुछ स्पष्ट हो जाती है। चौकोर किलेके चारों किनारों पर गोल बुर्जों तथा चारों ओर परिखाकी सम्भावना चतुष्कोण थेड़ के किनारोंपर गोल-गोल बाहर को बढ़े हुए मिट्टीके ढेरों तथा चारों ओर के निकटवर्ती गड्ढोंसे सहज अनुमेय है । जाटोंका यह किला सम्भवतः निम्नांकित आकृतिका था C कलूर में 'ऊर' भाग सम्भवतः पुर का अवशेष है । प्राचीनता पल्लूके थेड़के ऊपर तथा इर्द-गिर्द कुछ दूरी तक इसकी प्राचीनताके परिचायक पुराने मृद्भाण्डोंके टुकड़े विकीर्ण हैं । थेड़ तथा आस-पास की भूमिसे अबतक प्राप्त अवशेषों में प्राचीनतम है इण्डो-ग्रीक राजा फिलोक्सिनोस (Philoxenos) की एक ताम्र-मुद्रा जो इस बात की परिचायक है कि पल्लू ईसा पूर्व द्वितीय २. परमेश्वरलाल सोलंकी, "पल्लू घाटी और उसकी कलाकृतियां", वरदा, वर्ष ४, अंक २ (अप्रैल १९६१ ) पृष्ठ २०-२१ । ३. Dr. Dasharatha Sharma, Early Chauhan Dynasties, Delhi, 1959, pp. 312 and 314. १. मौजीराम भारद्वाज, 'पल्लू गांवका ब्राह्मणी मन्दिर", सत्य विचार (बीकानेर), दिनांक ८.६.६५, पृष्ठ ३ । १२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दीमें अस्तित्वमें आ चुका था। थेड़के दक्षिण-पश्चिम भागसे प्रस्तुत लेखकको शुङ्ग-कुषाणकालके रक्त वर्ण मृद्भाण्डोंके टुकड़े भी प्राप्त हुए हैं जो ताम्र-मुद्रासे अनुमेय प्राचीनताकी पुष्टि करते हैं। श्री मौजीरामजी के सौजन्यसे प्राप्त पल्लके १०० सिक्कोंमें कुषाण तथा इण्डो-सासानियन राजाओं के ताम्बेके सिक्के (१२ + ५) पल्लूके द्वितीय शती ईसा पूर्वसे तृतीय-चतुर्थ शती ईस्वी तक निरन्तर बसे रहनेका प्रमाण हैं । परन्तु इसके पश्चात् ऐसा जान पड़ता है कि लगभग पांच शताब्दियों तक पल्लमें कोई बस्ती नहीं रही क्योंकि इस कालके न तो कोई सिक्के ही मिले हैं और न कोई अन्य अवशेष ही', फिर भी उत्खननके अभाव में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। नवीं-दसवीं शताब्दीमें पल्लू फिर बस गया और विभिन्न राजाओं के उत्थान-पतन देखता हआ यह तबसे निरन्तर बसा चला आ रहा है । मुहम्मद बिन साम की मुद्राओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम आक्रमण यहां भी हुआ था और सम्भवतः यहांपर मन्दिर मुत्तियोंको खण्डित किया गया। सामन्त देव तथा सोमल देवी की विभिन्न मूल्यों की लगभग ४५ (२० + २५) ताम्र-मुद्राओंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि उनके समय में पल्लू एक प्रसिद्ध स्थान था। जौनपुरके हुसेनशाहकी दो ताम्र-मुद्राएं इस बातकी द्योतक है कि चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में पल्लू तथा आस-पासके क्षेत्रके लोगोंका जौनपुरसे सम्भवतः व्यापारिक सम्पर्क था। पल्लू की प्रस्तर प्रतिमाएं शैव प्रतिमाएँ पल्लू की कलाकृतियोंमें प्राचीनतम है यहांसे प्राप्त भूरे वर्ण के बालुका प्रस्तरका अभिलिखित कीर्तिस्तम्भ, ३३' x १२" के चौकोर इस की तिस्तम्भके एक ओर लिङ्ग रूपमें शिव-पूजन करते हुए एक दम्पति का चित्रण किया गया है तथा दूसरी ओर गणपतिका । स्त्री तथा पुरुष दोनों 'लांग'की धोती पहने दिखाये गये हैं । कण्ठहार, कर्ण कुण्डल, भुजबन्ध, करधनी आदि आभूषणोंसे सुसज्जित इन मत्तियोंका अंकन क्षेत्रीय वस्त्राभूषणोंकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है। कीर्तिस्तम्भ पर दम्पति वाली ओर तीन पंक्तियोंके अभिलेखमें केवल प्रथम पंक्ति ही सुपाट्य है जिसपर इसकी तिथि विक्रम संवत् १०१६ कातिक सुदि ११ अंकित है । कीर्तिस्तम्भ दसवीं शताब्दीमें पल्लू क्षेत्रमें शिवपूजनका परिचायक होनेसे धार्मिक दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण है । डा० हरमन गोयटजका विचार है कि शाकम्भरी तथा अजमेरके चौहानोंने जांगल देशसे लगभग दसवीं शताब्दी में प्रतिहारोंको हटाकर अपना अधिकार जमाया और इस क्षेत्र में शैव मन्दिरों की स्थापना की। पल्लका मन्दिर सम्भवतः उन्हीं में से एक है जिसकी कुछ मत्तियाँ अब भी इधर-उधर बिखरी पड़ी है। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएं निम्नलिखित है १. उमा-महेश्वरकी हल्के भूरे रंगकी आडावळा पत्थरकी प्रतिमा जो अब बीकानेर संग्रहालयमें है, ------------------ १. श्री मौजीरामजीके द्वारा राजस्थान पुरातत्त्व विभाग को लगभग २४५ सिक्के दिये गये थे जिनका परा विवरण विभागके द्वारा अभी तक प्रकाशित नहीं किया गया है क्योंकि इन मुद्राओंको अभी रासायनिक विधिसे साफ किया जा रहा है। पल्लूकी कुछ मुद्राएं "नगरश्री" संग्रहालय, चूरूमें हैं तथा कुछ अन्य विभिन्न व्यक्तियोंके पास । इन सिक्कों में चौथीसे नवीं शती तकका कोई सिक्का उपलब्ध नहीं है। २. हुसेन शाहकी ताम्र-मुद्राएं धानसिया (तहसील नौहर, जिला श्री गंगानगर)से भी प्राप्त हुई हैं। 3. V. S. Srivastava, Catalogue And Guide To Ganga Golden jubilee Museum, Bikaner, Jaipur, 1961, p25,(185 B. M.) and plate, परमेश्वरलाल सोलंकी, वही, पृष्ठ २२। ४. H. Herman Goetz, Art and Architecture of Bikaner state, Oxford, 1950. इतिहास और पुरातत्त्व : १३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें नन्दी पर सवार शिव पार्वतीको अपनी जंधा पर लिए बैठे हैं, दाईं ओर दण्डधारी ब्रह्मा दिखाए गए हैं तथा नन्दीके नीचे एक उपासक और एक उपासिका। २. पल्लूके ब्रह्माणी मन्दिरकी दीवारमें जड़ी निम्नांकित प्रतिमाएँ ( चित्र १)-२ ।। (क) जटामुकुट पहने एक आलेमें चित्रित पार्वतीकी एक सुन्दर स्थानक मूर्ति जिसकी बाईं टाँग टूटी हुई है । कर्णकुण्डल, कण्ठहार, सुन्दर एवं सुशोभित अधोवस्त्र तथा नपुर स्पष्ट दिखाई देते हैं, दाएँ हाथमें कमण्डलु (?) दिखाया गया है और बाएँमें सर्प । दक्षिण पादके समीप एक छोटी-सी अस्पष्ट प्रतिमा है जो नन्दीकी हो सकती है, बाईं ओर एक सुचित्रित धज्जेके नीचे आलेमें दो स्त्रियाँ दिखाई गई हैं और दाई ओर इसी प्रकारके आलेमें एक स्त्री। (ख) भरे रंगकी बालका-प्रस्तरकी २'६" x १६" आकारकी खण्डित चतर्भजी प्रतिमा सम्भवतः शिवकी है। मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठहार, भुजबन्ध तथा अधोवस्त्र दर्शनीय हैं। बाईं ओर तथा सिरके पोछे लता-वेष्टणको सज्जा है । बाएँ पाँवके पास बाईं ओर मुख किए नन्दीकी छोटी-सी प्रतिमा है। (ग) जटामुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठी तथा कण्ठहार, भुजबन्ध, करधनी तथा अधोवस्त्र पहने ध्यान मुद्रामें बैठी प्रतिमा सम्भवतः पार्वतीकी है । प्रतिमा दाईं ओर तथा नीचेसे खण्डित है। (घ) एक छोटेसे आलेमें त्रिभंग मुद्रामें जटा मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठी, कण्ठहार, करधनी तथा अधोवस्त्र पहने यह प्रतिमा भी सम्भवतः पार्वतीकी है। (ङ) नन्दीकी खण्डित प्रतिमा। ३. एक स्थानीय ग्रामीणके घरमें लगी हई कङ्कर-पत्थरकी एक चौखट जिसमें बीचके आलेमें सिंहकी खालके आसन पर पद्मासनमें शिव आसीन हैं। चतुर्भुजी इस प्रतिमाके ऊपरी दाएँ हाथमें त्रिशूल है तथा ऊपरी बाएँ हाथमें कोई अस्पष्ट वस्तु, अन्य दोनों हाथ पद्मासन मुद्रामें अंकमें एक दूसरे पर रखे हैं । शिव जटा मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठहार आदि अलंकरण धारण किए हैं तथा भुजाओंमें सर्प-वेष्टण है। दोनों ओर नृत्य-मुद्रामें एक-एक पुरुष दिखाया गया है। इन पुरुषोंने सुन्दर पारदर्शी अधोवस्त्र पहिन रखे हैं। कंकर-पत्थरकी होनेके कारण यह मूर्ति काफी घिसी हुई है ( चित्र २)। ४. एक घरकी दीवारमें लगी यह प्रतिमा सम्भवतः सिंहवाहिनी दुर्गाकी है। चतुर्भुजी देवी वाममुख सिंह पर सुखासनमें विराजमान है। उसके ऊपरी दक्षिण हस्तमें खड्ग है तथा निचले हाथमें चक्र (?), ऊपरी वामहस्तमें पुस्तककेसे आकारकी कोई वस्तु है और निचला हाथ वाम जंघा पर टिका है। बाई ओरके संलग्न आलेमें हाथमें खड़ा दण्ड लिए देवीकी ओर मुख किए एक स्त्री दिखाई गई है। कंकरपत्थरकी यह प्रतिमा भी काफी घिसी हुई है, फिर भी मूर्तिकारकी कुशलताकी स्पष्ट झलकी प्रस्तुत करती है (चित्र ३ )। ५. इस खण्डित चौखटके मध्यमें तीन आलोंमें विभिन्न मुद्राओंमें तीन स्त्रियों, सम्भवतः दुर्गाके विभिन्न रूपोंका अंकन है। इसे दक्षिण हस्तमें खड्ग तथा वाम हस्तमें ऊपरी प्रतिमामें शक्ति ( या कमल ) तथा नीचेकी दो प्रतिमाओंमें ढाल लिए युद्ध-मुद्रामें दिखाया गया है, अधोवस्त्र का अंकन बहुत ही भव्य है। तीनों प्रतिमाओंमें दोनों ओर विभिन्न मुद्राओंमें परिचारिकाएँ खड़ी है जो हाथोंमें वाद्य-यन्त्र लिए है या नृत्य-मुद्रा में हैं ( चित्र ४ )। १. परमेश्वरलाल सोलंकी, वही । २. सभी चित्र भारतीय पुरातत्त्व विभागके सौजन्यसे प्राप्त हुए हैं। १४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. बीकानेर संग्रहालयमें हलके लाल-भूरे बालुका प्रस्तरकी गरुड़ासनमें बैठे चतुर्भुज कीचककी दो प्रतिमाएँ भी सम्भवतः पल्लूके शिव मन्दिरका ही भाग हैं। इन मूर्तियोंमें कीचकका “पेट निकला हुआ है और सिर पीछे भोत पर टिका है। कानोंमें कुण्डल, हाथोंमें भुजबन्ध और मणिमाला, सिर पर मुकुट व छाती और पेटके मध्य बन्धा दुपट्टा बड़ा ही मनोहर है।"१ वैष्णव प्रतिमाएँ पल्लसे कुछ वैष्णव प्रतिमाएँ भी मिली हैं जिनका विवरण इस प्रकार है १. एक खण्डित चौखटके मध्य एकके ऊपर एक चार आलोंमें लक्ष्मी अंकित है, चतुर्भुजी इस देवीके ऊपरी दोनों हाथों में कमल दण्ड है तथा निचले दाएं हाथ वरद मुद्रामें एवं निचले बाएँ हाथ कमण्डलु पकड़े हैं जो बाई जंघाओं पर टिके हैं, लक्ष्मी सुखासनमें बैठी है, उसका वाम पाद आसन पर टिका है तथा दक्षिण पाद नीचे भूमि पर । दोनों ओर एक-एक परिचारिका दिखाई गई है। ये परिचारिकाएँ दो विभिन्न मुद्रा-वर्गों में एकके बाद एक बारी बारी से दिखाई गई है ( चित्र ५ )। २. एक स्तम्भ अलंकृत छज्जेमें एक ऊँचे मञ्च पर बैठी चतुर्भुजी देवी जिसके ऊपरी दोनों हाथोंमें सनाल कमल हैं तथा निचला दक्षिण हस्त वरद मद्रामें तथा वामहस्त कमण्डलु पकड़े है, लक्ष्मी प्रतीत होती है । देवी मुकुट, कर्णकुण्डल जो कन्धों पर टिके हैं, भुजबन्ध, मणिबन्ध, कण्ठी तथा कण्ठहार एवं नूपुर पहने सुखासन में विराजमान है । दोनों ओर नत्य मुद्रामें दो-दो परिचारिकाएँ हैं जिनकी शिरःसज्जा तथा वस्त्राभूषण समान है। नीचेकी पट्टिकामें सस्तम्भ आलोंमें और उनके अन्तरिम स्थानोंके बीच वाद्ययन्त्र लिए तथा नृत्य करते हुए आठ स्त्रियोंको विभिन्न मुद्राओंमें अंकित किया गया है। बाएँ हाथकी अन्तिम मूर्ति ऊपरी भागसे खण्डित है। यह पट्टि का मध्य-युगीन संगीतके वाद्य-यन्त्रों तथा तत्कालीन फैशनको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । ( चित्र ६ )। ३. प्रत्यालीढ आसनमें विष्णुके वाहन गरुड़की भूरे बालुका पत्थरकी यह प्रतिमा जो अपने बाएँ हाथमें एक सर्प पकड़े है तथा दायाँ हाथ सिर पर रखे है पुरुष-रूपमें गरुड़ का एक सुन्दर उदाहरण है। गरुड़ कण्ठहार, भुजबन्ध, कङ्गन एवं अन्य वस्त्राभूषण धारण किए है। पीछेकी ओर कंघी किए बीचमें माँगकी रेखा बनाए बालोंको ऊपर करके फीतेसे बांधा गया है। नासिका कुछ टूट गई है। पंख पीछेको फैले हुए हैं । ग्यारहवीं शताब्दीकी यह मूर्ति पल्लू क्षेत्रकी मध्य-युगीन मूत्तिकलाका एक उत्कृष्ट उदाहरण है ( चित्र ७)। यह प्रतिमा श्री मौजीराम भारद्वाजके द्वारा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्लीको समर्पित की गई थी और अब यह संग्रहालयकी प्रवेश-द्वारसे लगी वृत्ताकार दीपिकामें प्रदर्शित है। जैन प्रतिमाएं पल्लका नाम भारतके पुरातात्त्विक-मानचित्र पर १९२५-२६ में डा० एल. पी. टैस्सिटरी द्वारा यहाँसे दो जैन सरस्वती मत्तियाँ प्राप्त करने पर आ पाया था। इनमें से एक अब बीकानेर संग्रहालयमें है १. वहीं। २. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, "राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में मध्यकालीन राजस्थानी प्रस्तर प्रतिमाएं" मरुभारती, अक्तूबर १९६४, पृष्ठ ८४; ' 'Some Medieval Sculptures from Rajasthan in the National Museum, New Delhi", Roop Lekha, vol.xxxv, Nos. 1-2, pp.30-1. इतिहास और पुरातत्त्व : १५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा दूसरी राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्लीमें सुशोभित हो रही है। लगभग एक-सी ये दोनों मूर्तियाँ कला एवं सुन्दरताकी दृष्टिसे विश्वविख्यात हैं ।। ये प्रतिमाएँ श्वेत संगमरमरसे बनी हैं। इनमें चतुर्भुजी सरस्वती देवी त्रिभंग मुद्रामें एक कमलपर. खड़ी दिखाई गई है। देवी अपने ऊपरवाले हाथोंमें कमल तथा पुस्तक और नीचेवाले हाथोंमें अक्षमाला तथा कमण्डलु लिए है। देवीके सिरपर रत्नजटित सुन्दर मुकुट है, कानोंमें कुण्डल, कण्ठमें हार, हाथोंमें कङ्गन तथा पावोंमें पायल, मणि-मेखलासे सुशोभित साड़ी अपनेमें अनुपम छटा संजोए है। पीठ पर सरस्वतीका वाहन हंस तथा एक मानवीय चित्र उत्कीर्ण हैं तथा सिरके पीछे प्रभामण्डलके दोनों ओर मालाधारी विद्याधर, मुकुटके ऊपर पद्मासनमें 'जिन'की एक लघु प्रतिमा है तथा पैरोंके दोनों ओर हाथोंमें वीणा लिए परिचारिकाएँ खड़ी हैं। पास ही दानकर्ता एवं उसकी पत्नी हाथ जोड़े अंकित किए गए हैं ।२ बीकानेरवाली प्रतिमा सुन्दर प्रभातोरणमें सुसज्जित है जिसपर वाहनारूढ़ परिवारदेवता, गजसवार तथा कायोत्सर्ग मुद्रामें जैनतीर्थकर छोटे-छोटे आलोंमें प्रदर्शित हैं। इसको "The greatest masterpiece of Medieval Indian art" कहा गया है । 3 पल्लके ब्रह्माणी मन्दिरमें ब्रह्माणी देवी तथा उसकी बहिन समझकर पूजी जानेवाली प्रतिमाएँ वास्तवमें जैनतीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएँ हैं जिन्हें वहाँके धूर्त पाखण्डी पुजारियोंने घाघरा-ओढ़ना पहनाकर रूप परिवर्तित कर मन्दिरमें स्थापित कर रखा है। इनमें एक स्थानक मत्ति है तथा दूसरी पद्मासनमें, स्थानक तीर्थङ्कर प्रतिमा धोती पहिने है । दोनों पाँवोंके पास एक-एक परिचारककी लघुप्रतिमाएँ हैं। कन्धों के ऊपर दोनों ओर माला लिए उड़ने की मुद्रामें विद्याधर अंकित हैं तथा छत्रके दोनों ओर शुण्डिका ऊपर उठाए एकएक गज प्रतिमा, प्रतिमाके आधारमें दाएं हाथमें शक्ति लिए सुखासनमें एक देवी (?) अंकित है।' पदमासनवाली जिन प्रतिमाके आधार पर दो सिंह अंकित हैं. दोनों ओर स्थानक मुद्राम एक-एक लघु जिन-प्रतिमा तथा उनके ऊपर पदमासनमें एक-एक अन्य लघ प्रतिमा उत्कीर्ण है। छत्रके ऊपर बद्धाअलि एक किन्नर (?) प्रतिमाके दोनों ओर हाथोंमें माला लिए एक-एक विद्याधर अंकित है। (चित्र ८)। यह किसीको ज्ञात नहीं कि ये मूत्तियां कबसे इस मन्दिरमें स्थापित हैं। वर्तमान ब्रह्माणी मन्दिर थेड़के ऊपर स्थित है और १९वीं शताब्दीमें इसका निर्माण हुआ था। जैन सरस्वती प्रतिमाओंसे पल्लूमें एक या एकाधिक सरस्वतीके भव्य मन्दिरोंके अस्तित्वका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । पल्लू पर मुसलमानोंके किसी आक्रमणमें ये मन्दिर ध्वस्त किए गए होंगे। मत्तियोंको खण्डित किए जानेकी आशंकासे सम्भवतः पुजारियोंने दोनों सरस्वती प्रतिमाओंको कहीं दबा दिया हो, तभी तो ये मूत्तियाँ अखण्डित मिल पाई हैं; यहाँ सरस्वती ( ब्रह्माणी ) के मन्दिरकी सत्ताकी अनुश्रुति बनी रही होगी और कालान्तरमें थेड़से प्राप्त तीर्थंकर-प्रतिमाओंको ही धूर्त पुजारियोंने अपने स्वार्थ एवं भोली जनताको ठगने के लिए देवी रूप देकर स्थापित कर दिया होगा १. Goetz, op. cit., pp. 58 and 85; K. M. Munshi, Saga of Iudian Sculpture, pl. 8; Stella Kramrisch, Sculpture, of India, pp. 184-5, plate XXXIV. 84; Sriv astava, op. cit., p.13, plate 1. २. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, वही, पृष्ठ ८२-४ तथा ३०-१। ३. Srivastava, op. cit. । ४. संगमरमरकी ऐसी ही एक प्रतिमा नौहरके जैनमन्दिरकी एक दीवारमें जड़ी हई है। १६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य प्रतिमाएँ पल्लसे कुछ ऐसी प्रतिमाएँ भी मिली हैं जिनका सम्बन्ध किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेषसे स्थापित नहीं किया जा सकता। इनमें महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ निम्नांकित हैं 1. एक चतुष्कोण आधार पर खड़े दाढ़ी-मूंछोंवाले बद्धाञ्जलि दानीकी प्रतिमा जिसके सिरपर टोपकी तरहका शिरस्त्राण है, सिरके पीछे प्रभामण्डल है, कण्ठमें हार, भुजाओंमें भुजबन्ध तथा मणिबन्ध हैं तथा सुन्दर अधोवस्त्र धारण किए हैं। पार्श्व चैत्यसे उद्भुत कमलपर एक छोटी-सी प्रतिमा वाम-स्कन्धके पास सुशोभित है और बद्धाञ्जलि एकापर लघु-प्रतिमा दक्षिण पादके समीप खड़ी है। कंकर-पत्थरसे बनी इस प्रतिमा में इस क्षेत्रकी शिल्पकारीकी कलात्मक वास्तविकता तथा कलाकारकी सृजनात्मक प्रतिभाकी स्पष्ट झलकी मिलती है। 2. 15"x71" आकारकी एक प्रस्तर चौखट जिसपर परिचारिकाओं सहित एक स्त्री अपने शिशुको स्तन-पान करा रही है। 3. पालकी में बैठी एक स्त्रीकी प्रतिमा जिसे दो सेविकाएँ उठाए लिए जा रही हैं। पालकीके नीचे एक छोटा-सा बालक कलश लिए जा रहा है। कंकर-पत्थरकी यह छोटी-सी प्रतिमा अपने अत्यन्त जटिल एवं कलात्मक सम्पादनके लिए महत्त्वपर्ण है।" 4. एक अलंकृत आलेमें मुकुट, कर्णकुण्डल, कण्ठहार, भुजबन्ध, मणिबन्ध, घुटनोंसे ऊपरतकका छोटा-सा पारदर्शी अधोवस्त्र तथा घुटनोंसे नीचे तक लटकती हुई माला पहिने, दायाँ हाथ जंघा पर रखे तथा वक्ष तक उठे वामहस्तमें रज्जुकी सी आकृतिकी कोई वस्तु पकड़े त्रिभङ्ग मुद्रामें खड़े दानी ( या द्वारपाल ) की कंकर-पत्थरकी यह प्रतिमा भी मूर्तिकारकी कुशलता तथा सृजनात्मक प्रतिभाका परिचय देती है / ( चित्र 9) / 5 एक अलंकृत आलेमें शोभित खण्डित मूत्ति जिसके दोनों ओर विविध प्रकारके वस्त्राभूषण धारण किए तीन-तीन सेवक-सेविकाओंकी खण्डित प्रतिमाएँ हैं सम्भवतः किसी बृहत्स्तम्भका आधार भाग है। वस्त्राभूषणोंकी विविधताके लिए यह महत्त्वपर्ण इनके अतिरिक्त पल्लसे प्राप्त लगभग 64 वास्तु-शिला-खण्ड जो किसी समय पल्लके भव्य मन्दिरोंके भाग रहे होंगे श्री मौजीराम भारद्वाज द्वारा संगरिया संग्रहालयको दिए गए थे। इनका विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं है। जैन प्रतिमाओंको छोड़कर अन्य सभी प्रतिमाएँ तथा वास्तु-शिला-खण्ड लाल या भूरे बालुका पत्थरके हैं या पाण्डु वर्ण कंकर-पत्थरके / तिथिक्रमसे इन सब अवशेषोंको दसवींसे बारहवीं शताब्दीके बीच रखा जाता है, अवशेषोंसे स्पष्ट है कि इस समय पल्ल एक समृद्ध एवं महत्त्वपूर्ण कलाकेन्द्र तथा धार्मिक स्थल था। आज अगर पल्लूके बृहत् एवं उच्च थेड़का उत्खनन किया जाय तो निश्चय ही यहाँसे राजस्थानके इतिहास, कला तथा संस्कृति पर नवीन प्रकाश डालनेवाले अनेकानेक महत्त्वपूर्ण अवशेष प्राप्त होंगे। 1. B. N. Sharma, "Some Unpublished Sculhtptures From Rajasthan," The Researcher, vol. V-VI ( 1964-65 ), p. 34, plate XI 1 2. Srivastava, op, cit., p. 14 / 3. यह प्रतिमा श्री मौजीराम भारद्वाज द्वारा सरदारशहरके श्री बभूतमल दूगड़को भेंट दी गई और उन्होंने आगे इसे श्री ओमानन्द जी सरस्वतीको उपहार देकर गुरुकुल संग्रहालय, झज्झर ( हरियाणा ) पहुँचा दिया है। इतिहास और पुरातत्त्व : 17