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जून २००८
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सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थया, तेओए देव-मनुष्य-असुरलोकना सर्व पर्यायोने जाण्या तथा जोया, सर्व लोकमां सर्व जीवोना गति-अगति-स्थिति- च्यवन-उपपात व. सर्व भावोने जाण्या तथा जोया....'
अने, कल्पसूत्रमा ज श्रमण महावीरने मळेल केवलज्ञानने वर्णववा माटे वपरायेला 'अनुत्तर ज्ञान अने दस्सण शब्दो तथा महासारोपमसुत्त (मज्झिमनिकाय-२९)मां बौद्धोए करेलो तेनो अर्थ जोईए तो बीजी सङ्गति पण कदाच मळे छे.
सुत्त कहे छे के 'पाखण्डीने प्राप्त थयेल आण-दस्सन दिव्यचक्खु नामक अभिन्न तुल्य छे.' अहीं, जो के, वृक्षना सारने पामवाना उदाहरणमां सुत्त "एक विवक्षित पुरुष एवां पदो वापरे छे, छतां, मज्झिमनिकाय-अट्ठकथामां कर्तुं छे के 'त्यां उल्लेखेल पुरुष ते देवदत्त छे, जेने सङ्घभेदना आरोपसर सङ्घथी बहार करवामां आव्यो.' सुत्त कहे छे के 'तेवो भिक्खु आण-दस्सन पामे तो य ते मात्र वृक्षना तन्तुओने ज स्पर्शी शके छे पण तेना सारने नहि.' आणं च मे उदपादि, दस्सनं च मे उदपादि व. वाक्यो बुद्ध अथवा अरहा द्वारा ज्यारे बोलाय त्यारे ते हमेशा संसारना अन्तने व्यक्त करता - खीणा मे जाति, नस्थि दानि पुनब्भवो... व. शब्दोथी सम्बद्ध अधिकारोथी अनुसराता होय छे. तेथी मज्झिमनिकाय अट्ठकथा कहे छे के - 'अहीं वर्तमान सन्दर्भमां (अर्थात् देवदत्तना) आण-दस्सन कोई लोकोत्तर प्राप्तिनो निर्देश नथी करतां परन्तु (पांच लौकिक अभिनमांना) एक दिव्यचक्खु नामक एक अभिन्ननो निर्देश करे छे.१
जैन कल्पसूत्रना फकराओमां वर्णवेली जीवोनां जन्म-मरणोने जोवानी शक्ति तथा सर्व कांई जोवा-जाणवानी शक्ति, बौद्धोना दिव्वचक्खु अभिन्न साथे घj साम्य धरावे छे एवी अवधारणाए बौद्ध टीकाकारोने एवं विचारवा प्रेर्या होय के जैनो आ बधानी प्राप्तिने ज अर्हत्पणानी प्राप्तिरूप मानता हशे.
आ बन्ने (जैन बौद्ध) मतो वच्चेनो विरोध घणो प्रसिद्ध छे अने सामञफलसुत्त परनी बुद्धघोषनी अट्ठकथामां तेने विशे घणुं बधुं लखायेलुं छे. छतां, तेमांथी केटलाक अतिप्रसिद्ध शब्दो अहीं टांकवा अस्थाने नहि गणाय. निगंथो पर टीका करतां बुद्धघोष कहे छे के - 'निर्ग्रन्थो जो के तीथिको अर्थात् १. मज्झिमनिकाय २:१९६
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