Book Title: Pali Agamo ma Chatuyam Samvar
Author(s): Padmanabh S Jaini
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान ४४ पाली (बौद्ध) आगमोमां चातुयाम-संवर -पद्मनाभ एस. जैनी डॉ. हर्मन जेकोबीए पोताना एक महत्त्वपूर्ण शोधलेख ' Mahāvira and His Predecessors'(Indian Antiquary 1880) ने प्रकाशित कर्ये १०० उपरांत वर्षों वीती गयां छे, छतां, सामञफलसुत्त (दीघनिकायगत)मां निग्गंथ नातपुत्त अने तेमना पर (बौद्धो द्वारा) आरोपित चातुयाम-संवरना बौद्धग्रन्थीय सन्दर्भो उपरनां डॉ. जेकोबीनां निरीक्षणो, आजपर्यन्त महावीरना ऐतिहासिक प्रामाण्य अने चातुयाम संवरना उपदेशनी प्राचीनताने पुरवार करवामां पायानी गरज सारे छे. जेकोबी जैन आगमोना पोताना अनुवाद The Jain Sutras, Part 1 and 2 नी प्रस्तावनामां पोतानी केटलीक दलीलोनुं पुनरावर्तन करे छे. अहीं, तेओ उत्तराध्ययन सूत्रना केशि-गौतमीयअध्ययन(२३)मांथी एक नवु-वधारानुं प्रमाण आपे छे. तेओ कहे छे के पाली-भाषीय शास्त्रो द्वारा निग्रन्थ ज्ञातपुत्र पर करायेलो चातुयाम-संवर (जैनागमोमां चाउज्जाम-धम्म)नो आरोप भ्रान्तिमूलक छे अने निर्गन्थोनो सिद्धान्त तो बुद्ध अने महावीर करतां पण प्राचीन छे. उत्तराध्ययननी साक्षी प्रमाणे तो तेनो उपदेश २३मा जिन पार्श्वनाथे करेलो छे. हवे, सामञ्चफलसुत्तमां चातुयाम संवरना चार यामो कया छे तेनो कोई निर्देश नथी. उत्तराध्ययनसूत्रमा कह्यु के पार्श्वनाथे चार महाव्रतो उपदेश्यां अने महावीरे पांच, पण ते व्रतो कयां, तेनो कोई उल्लेख नथी. जेकोबी पछी, आज सुधी, चातुयाम संवर विशे ने उत्तरगामी संशोधनो थयां, ते बधां ज उपरोक्त बौद्ध अने जैन आगमगत प्रमाणोनो ज विस्तार छे. पांच महाव्रतो तो, स्थानाङ्ग सूत्र अने बीजा सूत्रोथी प्रमाणित ज छे, अने ते व्रतोतुं वर्णन पण, प्रत्येकनी पांच पांच भावनाओ साथे, विस्तारथी ते ते शास्त्रोमां करवामां आव्युं छे. व्रतो आ प्रमाणे छे : १.हिंसाथी विरमवू, २.असत्य बोलवाथी विरमवू, ३.चौर्यथी विरमवृं, ४.अब्रह्मचर्यथी विरमवू, अने ५. वस्तुओनी मूर्छाथी विरमवं. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ १०७ . भगवतीसूत्रमां, चाउज्जामथी आ व्रतोने भिन्न देखाडवा तेनो निर्देश पंचजाम-एवो कर्यो छे. आ सूत्रना २५मा शतकना ३जा उद्देशामां पांच संयमोनुं वर्णन करती पांच गाथाओ छे. तेमांनी प्रथम बे गाथाओ अहीं आपणा अभ्यास माटे प्रस्तुत छे. प्रथम संयम ते सामायिक संयम छे. आचाराङ्ग सूत्र प्रमाणे तेनी व्याख्या सर्व सावद्य योगोथी विरमवू-एवी छे, अने आवं सामायिक भगवान महावीरे कर्यु हतुं - "सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं ति कट्ट साभाइयं चरित्तं पटिवज्जइ ॥" भगवती सूत्रनी उपरोक्त पांच गाथामांथी प्रथम गाथामां कां छे के "सामयिक पोते ज अनुत्तर चाउज्जाम धर्म छे."१ हवे जो आवी वात होय तो अहीं एवं भासे के महावीरे दीक्षा ग्रहण करती वखते चाउज्जाम धर्म स्वीकार्यो हशे. जो के कोई पण श्वेताम्बर टीकाकारे आq विधान कर्यु नथी. बीजी गाथामां छेदोपस्थापन संयमनी व्याख्या करी छे. अहीं एम कर्दा छे के छेदोपस्थापन ते पंचजाम अर्थात पञ्चमहाव्रतवाळा संयम साथे सादृश्य धरावे छे.२ दिगम्बर परम्परामां, जो के, चाउज्जाम शब्द ज नथी, छतां सामायिक अने छेदोपस्थापन पदो प्राचीन दिगम्बर शास्त्र - आचार्य वट्टकेर रचित मूलाचारमा छे. तेमां कां छे के सर्व सावद्ययोगोथी विरतिरूप सामायिक संयमनो, क्यारेक अतिचार लागे तो तेना प्रतिक्रमण साथे, उपदेश २४मांथी २२ तीर्थकरोए आप्यो छे. ज्यारे ऋषभदेव अने महावीर नामना प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करोए तो नित्य प्रतिक्रमण साथे छेदोपस्थापन चारित्रनो उपदेश आप्यो छे. ३ श्वेताम्बर पाठोमां सामायिक शब्दनुं चाउज्जाम साथे साम्य कई रीते बताव्युं छे ते तो एक रहस्य ज रहे छे. वली, कोई पण टीकाकारो पोतानी टीकामां आना विशे कोई खुलासो आपता नथी. जो के, चाउज्जाम शब्द तो बीजी जैन १. सामाइयंमि ३ कए चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासयंतो सामाइयसंजमो स खलु ।। २. छेत्तूण य परिपायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्ममि पंचनामे छेओवट्ठावणो स खलु ॥ ३. मूलाचार - ५३५ गाथा । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान ४४ परम्परामां पण धणो प्रसिद्ध छे. कारण के आचार्य शिवार्ये (प्राय: दिगम्बरे) रचेल भगवती आराधना परनी याफ्नीयाचार्य अपराजितसूरिए रचेली विजयोदयाटीका(प्रायः दशमं शतक)मां पण तेनो उल्लेख छे. त्यां साधुओना प्रतिक्रमण विशेना नियमोनी चर्चा करतां तेओ जणावे छे के प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करो रोजना (नित्य) प्रतिक्रमण साथेना व्रतोना उपदेश आपे छे ज्यारे वचला २२ तीर्थंकरो दोष लागे तो ज करवारूप (नैमित्तिक) प्रतिक्रमण साथेना धर्मनो उपदेश आपे छे. आना सन्दर्भमां तेओ कहे छ के-आवो फेरफार प्रथम-अन्तिम तीर्थङ्करोना पञ्चयाम धर्म अने अन्यत्र चतुर्याम धर्मना कारण छे. श्वेताम्बर आगमोमां महत्त्व, स्थान धरावतुं आ चाउज्जाम पद, श्वेताम्बर के दिगम्बर परम्परागत तत्त्वार्थसूत्रमा के तेनां भाष्य-टीका व.मां पण क्यांय जोवा मळतुं नथी ते घणुं चिन्तनीय छे. अलबत्त, पांच महाव्रतोनी वात तो त्यां आवे ज छे. आ व्रतना 'सूत्रनी व्याख्या करतां (दिगम्बर) सर्वार्थसिद्धिकार कहे छे के "मूलत: तो एक ज सामायिक व्रत छे, जे सर्व सावद्ययोगोथी विरमणरूप छे. आज एक व्रत छेदोपस्थापन सामायिकनी अपेक्षाए पांच भेदवालुं कर्तुं छे.'' परन्तु अहीं चाउज्जामशब्दनो कोई उल्लेख नथी. ____ अपराजितसूरिए दर्शावेल चतुर्याम-पञ्चयाम शब्दो भगवतीसूत्रमा वर्णवेल सामायिक तथा छेदोपस्थापन संयमने अनुसरे छे, छतां आश्चर्य तो अहीं ए वातनुं छे के चाउज्जामनी अन्तर्गत शुं शुं आवे छे ते तो भगवतीसूत्रमा के विजयोदया टीकामां क्यांय जणाव्युं नथी. तेथी स्थानाङ्गसूत्रमा वर्णित चार यामोनी सरखामणी करवा माटे तथा चोथा यामनो अर्थ स्पष्ट करवा माटे दुर्भाग्ये आपणी पासे कोई आधार रहेतो नथी. स्थानाङ्गसूत्रना चतुर्थस्थानना २६६मा सूत्रमा चाउज्जामना चार यामो आ रीते कह्या छे : सर्वप्राणातिपात विरमण, सर्वमृषावाद विरमण, सर्वअदत्तादान विरमण अने सर्वथी बहिद्धादान बिरमण. आ चोथा बहिद्धादान विरमणनो अर्थ आज दिवस सुधी अस्पष्ट रह्यो छे. ज्यारे प्रथम त्रण यामो अत्यन्त स्पष्ट छे. बहिद्धादाननी एकथी वधारे अर्थच्छायाओ कहेवामां आवी छे. टीकाकार आचार्यो आपणने पार्श्वनाथे निरूपेल चतुर्थव्रतमां महावीरे उपदेशेल चतुर्थ तथा पञ्चम एम १. तत्त्वार्थसूत्र - ७-१. । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ बन्ने व्रतोनो समावेश थाय छे - ए वातनी प्रतीति कराववामा उद्यमवन्त छे. स्थानाङ्गसूत्रनी वृत्तिमां अभयदेवसूरि बहिद्धा शब्दनो अर्थ मैथुनपरिग्रह विशेष अने आदान एटले अन्य परिग्रह - एम करे छे. आ रीते बे शब्दो भेगा करीने बनेलुं पद महावीरे उपदेशेल बन्ने व्रतोने समावे छे, एवं तेओ समझे छे. तेओ कहे छे के, जो के आ वात त्यां स्पष्टतया समझावी नथी छतां, मैथुन ते परिग्रहमां अवश्य समाविष्ट थाय ज छे. कारण के जे स्त्री पोतानी मालिकीमां स्वीकाराई न होय ते स्त्री साथे मैथुन न थई शके, तेने बीजा कोई पण बाह्य पदार्थनी जेम छोडी देवी पडे. १०९ अहींया कोईए एवं न विचारखुं के शिष्योनी कक्षा जुदी जुदी होवाने कारणे बे तीर्थङ्करोना उपदेशमां मौलिक तफावत छे. अभयदेवसूरि स्पष्टता करे जछे के अहीं देखातो तफावत जो के तेमना शिष्योनी परिस्थितिना कारणे छे, छतां मूळभूत रीते तो बधा ज तीर्थंङ्करो पांचेय महाव्रतोनो उपदेश आपे छे. [ अहींया ए नोंधवुं जोईए के भगवतीसूत्रना २०मा शतकना ८मा उद्देशामां तीर्थ - तीर्थङ्करनां वर्णनो, तेमना उपदेशो व सर्वनुं निरूपण छे परन्तु चाउज्जाम अने पञ्चव्रत ए बन्ने विशे तेमां कोई वर्णन नथी. ] अभयदेवसूरि पोतानी वातने पुष्ट करवा माटे उत्तराध्ययन सूत्र (अध्य. २३, गाथा २६-२७) नो सन्दर्भ आपे छे, जेमां एक अनुक्तपूर्व विधान छे के प्रथम तीर्थङ्करना साधुओ ऋजु जड छे, अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओ वक्र- जड छे ज्यारे मध्यम तीर्थङ्करना साधुओ ऋजु प्राज्ञ छे. - अमुक कालखण्डमां साधुओने बीजा कालखण्ड करतां. वधारे स्पष्ट ते व्रतो आपवा जरूरी छे एवं उत्तराध्ययनसूत्रगत विधान दिगम्बरोने पण मान्य छे. मूलाचारमां (गाथा ६२८- ६२९) कह्युं छे के, प्रथम - अन्तिम तीर्थङ्करोना साधुओने प्रतिक्रमण फरजियात छे ज्यारे वचला तीर्थङ्करोना साधुओने तो ज्यारे सामायिक संयममां अतिचार लागे त्यारे ज प्रतिक्रमण करवुं. प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओने छेदोपस्थापनीय चारित्र लेवुं पडे छे तेनुं कारण ए छे के प्रथम तीर्थङ्करना साधुओने पोताना दोषो ओळखवा कठिन छे ज्यारे अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओने पोतानां व्रतो पाळवां दुष्कर छे बन्ने प्रकारना साधुओ कर्तव्याकर्तव्यनो के उचितानुचितनो विवेक नथी करी शकता. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनुसन्धान ४४ आनी टीका करतां वसुनन्दि कहे छे के प्रथम जिनना साधुओ स्वभावथी ज अत्यन्त भद्रिक तथा सरल हता त्यारे अन्तिम जिनना साधुओनो मोटो भाग वक्रस्वभावी छे. मूलाचारनो हिन्दी अनुवाद करतां आर्या ज्ञानमती कहे छे युगलिकोनी भोगभूमिज परिस्थिति पूर्ण थई रही हती अने कर्मभूमिज परिस्थितिनी शरूआत हती तेथी लोकोने हजु व्रतोना पालननी पूर्ण समजण न हती, माटे तेओने अतिचार लाग्यो होय के न लाग्यो होय, छतां प्रतिक्रमण करवु आवश्यक हतुं. ज्यारे अन्तिम तीर्थङ्करना कालमां पञ्चमकाल-कलिकाल नजीकमां ज हतो अने जीवोनां चित्त वक्र होवाथी तेओ पोतानां दोषोने जोई शकता नहोता माटे तेओने माटे प्रतिक्रमण अनिवार्य गणायुं. यापनीयों पण दिगम्बरोनी आ वात साथे सहमत छे एवं विजयोदय टीकाथी जणाय छे. अपराजितसूरि अन्ध अश्वनी चिकित्साना दृष्टान्तथी प्रतिक्रमणनो नियम समझावे छे. एक माणसनो घोडो बिमार हतो. वैद्ये तेने, नजीकना पर्वत पर ऊगती एक वनस्पति, चिकित्सारूपे घोडाने खवडाववानुं कर्तुं. पण ते व्यक्तिने ते वनस्पतिनी ओळखाण नहोती. तेथी ते त्यां ऊगेली घणी वनस्पतिओ लई आव्यो अने ते बधी ज घोडाने खवडावी दीधी तो घोडो साजो थई गयो. अहीं प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओ माटे प्रतिक्रमण वनस्पतितुल्य छे. जो तमने खबर न होय के चोक्कस कया अतिचारोनुं प्रतिक्रमण करवू तो बधा ज शक्य मानसिक, वाचिक तथा कायिक अतिचारोनुं प्रतिक्रमण करी लेवू. हवे, श्वेताम्बर-दिगम्बर शास्त्रोमां प्राप्त थतां प्रतिक्रमण तथा पञ्चव्रत विशेनां निरूपणो युक्त ज छे, छतां श्वेताम्बर शास्त्रोमां आपेल सामयिक संयम तथा चाउज्जाम ने आश्रयीने अहीं बे प्रश्नो ऊभा थाय छ : १. बधां व्रतोने व्यापी जनार सामायिक संयमरूप एक ज व्रतने, वचला २२ तीर्थङ्करना साधुओ जो सारी रीते समझी जता हता तो ते व्रतना वधु विशदीकरणनी शी जरूर हती ? अने २. विशदीकरण वखते पण, जो प्रथम तीर्थङ्करना साधुओ माटे पांच व्रतो राख्यां ज हतां तो २२ तीर्थङ्करना साधुओ माटे केम चार ज व्रत कह्यां ? बीजा शब्दोमां कहीए तो, जो व्रतोनो विस्तार करवो ज हतो तो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ चाउज्जाम ना चोथा अङ्गरूपे पञ्चव्रतनां छेल्लां बे व्रतोनो बहिद्धादान- वेरमणंरूपे शा माटे समावेश कर्यो ? १११ आना अनुसन्धानमां एक अतिप्राचीन छतां प्राय: अप्रसिद्ध एवा इसिभासियाई सूत्रने आश्रयीने कांईक विचारीए. १९४२ ना आ आगमना पोताना सम्पादनमां शब्रिंगे ध्यान दोर्यु छे के, ४५ प्रत्येकबुद्धोमांना प्रथम (प्राय: अनिर्ग्रन्थ) एवा नारद ऋषिना अधिकारमां तेमनां प्रथम त्रण व्रतो तो प्राणातिपात विरमण व.ज छे, परन्तु चोथुं व्रत अब्बंभ - परिग्गह नामक कह्युं छे. आ वात भगवान महावीर पहेलांनी चार व्रतोनी परम्पराने पुष्टि आपे छे. आज सूत्रना ३१मा पासिज्ज नामज्झयणं मां पार्श्व ऋषिना उपदेशोनो समावेश कर्यो छे. तेना बे पाठो छे. तेमां प्रथम पाठमां लोक-गति कर्मविपाकादिनुं वर्णन छे ज्यारे बीजा पाठमां प्राणातिपातथी यावत् परिग्रह पर्यन्तनुं वर्णन छे परन्तु मैथुननी वात ज करवामां आवी नथी. तेथी एवो सन्देह थाय छे के ब्रह्मचर्य ते व्रतोमा समाविष्ट हतुं के नहि ? आना पछी एवं विधान छे के - जे निर्ग्रन्थ ज्ञानी अने चाउज्जामथी संवृत छे ते आठ कर्मोने फरी बांधतो नथी. अहीं शुब्रिंग कहे छे के, '३१मा अध्ययनना बीजा पाठने अनुसारे तो इसिभासियाई सूत्र ऐतिहासिक छे. ' परन्तु अहीं द्रष्टव्य ए छे के आ सर्वप्रथम आगमिकसूत्र छे जेमां चाउज्जामनो सम्बन्ध निर्ग्रन्थ साथे दर्शाववामां आव्यो छे अने ते पण पास नामना साधु साथे के जे कदाचित् २३मा तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ पण होई शके. ( हवे बौद्धग्रन्थोने आश्रयीने चर्चा करीए.) पूर्वे निर्दिष्ट सामञ्ञलफलसुत्तनी जेम दीघनिकायनां बीजां पण बे सूत्रो चातुयाम संवरना आपणा अभ्यास माटे उपयोगी छे. ते बन्नेनुं नाम सीहनादसुत्त छे. तेमनो विषय 'निर्वाणप्राप्ति माटे साधुजीवनमां कराता स्वनिग्रहना गुण-दोषो' छे. अहीं, प्रथम कस्सपसीहनाद सुत्त (क्र. ७) मां चातुयाम संवरनी कोई चर्चा नथी, परन्तु मात्र बुद्धे निग्रोधनामक भिक्षुनो अछडतो उल्लेख कर्यो छे जेनी कथा उदुम्बरिकासीहनाद सूत्र ( क्र. २५) मां छे. आ सुत्तमां चातुयाम संवरनुं प्राय: तेवुं ज वर्णन छे जेवुं स्थानाङ्गसूत्रमां छे, परन्तु तेमां निग्गंथ नातपुत्त के बीजा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PP अनुसन्धान ४४ कोईनो उल्लेख नथी. आ सूत्र जेकोबीना ध्यानमां न आव्युं अने घणा समय सुधी उपेक्षित रह्यं तेनुं प्रायः आ ज कारण छे. दीघनिकायमां बीजा क्रमे आवतुं सामञफलसुत्त, जो के उपरोक्त बन्ने सुत्तो करतां पूर्वतन लागे छतां तेवू कदाच नथी. कारण के, आ सुत्त, पश्चात्तापथी बुद्ध पासे आवता पितृघातक राजा अजातशत्रुना सन्दर्भमां रचायुं छे. अने आ घटना तो बुद्धना जीवनना छेल्लो दशेक वर्षोमां घटी होय तेवू जणाय छे. प्रथम सीहनादसुत्तमां कस्सप नामे तपस्वी बुद्ध पासे आवीने पूछे छे के, 'शुं साचे ज बुद्ध तपश्चर्यानी उपेक्षा तथा गर्दा करे छे ? अने जुदां जुदां केशलुञ्चन, नग्नता, भिक्षाचर्या व. कष्टकर जीवन जीवता श्रमणो जे श्रमणचर्या आचरे छे तेमां दोष जुए छे ?' आ संवादना छेडे बद्ध निग्रोधनो उल्लेख करे छे के जे कस्सप जेवू ज कष्टमय जीवन जीवतो हतो, तेणे ज्यारे बुद्धने जीवनना उच्च प्रकारना तप विशे प्रश्न पूछ्यो त्यारे पोते तेने पोतानो मत समजाव्यो हतो. बुद्ध कस्सपने पण ते बधां कष्टोनी व्यर्थता समजावे छे अने अष्ट आर्य सत्योनो उपदेश आपे छे. ते सांभली कस्सप बौद्ध भिक्षु बनी अर्हत-पद पामे छे. ___'तपस्वी निग्रोधने पोते मळ्या हता' एवा बुद्धना शब्दो पर टीका करतां बुद्धघोष दीघनिकाय-अट्ठकहामां कहे छे के, 'ते निग्रोधनो वृत्तान्त उदुम्बरिकासीहनादसुत्त मां सङ्ग्रहीत थयेलो छे.' अतिकठिन श्रमणचर्याने पाळनारो निग्रोधनामक परिव्राजक पोताना विशाल शिष्यगण साथे उदुम्बरिकोधानमा वसतो हतो. एक दिवस बुद्धने वन्दन करवा जतो एक बौद्ध उपासक मार्गमा निग्रोध पासे गयो अने तेनी सभामां तेणे बुद्धनी प्रशंसा करी. त्यारे निग्रोधे कर्वा के - 'ते (गौतम) तो एकान्तमां छुपाईने रह्यो छे. जो ते जाहेरमां आवीने मारी साथे वाद करे तो ते खुल्लो पडी जशे.' बुद्धे पोताना अतीन्द्रिय ज्ञानथी आ हकीकत जाणी अने पोते ज तेना स्थानमां उपस्थित थया. निग्रोधे बुद्धने कठोर तप विशे, शिष्योनी तालीम विशे, शुद्धधर्म विशे पृच्छा करी. त्यारे बुद्धे तेने जे प्रतिभाव आप्यो ते आपणी चर्चामां उपयोगी छे. बुद्धे तेने कर्वा के - 'निग्रोध ! तुं मने तारा पोताना सिद्धान्तो विशे, १. दीघनिकाय १:१७६ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ जीवनना उच्च तपो विशे, स्वदमनना फायदा गेरफायदाओ विशे प्रश्नो पूछ.' ___ त्यार पछी बुद्ध अने निग्रोध बच्चे घणो लांबो संवाद चाले छे जेमां बुद्ध तेने कस्सपसीहनादसुत्तमां वर्णवेल तप व.नी निरर्थकता समजावे छे अने कहे छे के 'देहदमनना बधा ज प्रकारो दोषपूर्ण छे अने पवित्र उच्च जीवनरूपी वृक्षनी छालने पण तेओ स्पर्शी शकता नथी तो तेना सारने तो क्यांथी पामी शके ?' निग्रोध पूछे छे - 'तो भदन्त ! कई रीते कोई साधु पवित्र जीवननी उच्च कक्षा तथा तेना सारने पामी शके छ ?' बुद्ध कहे छे - 'कोई साधु तपस्वी चातुयाम संवरथी संवृत्त थाय छे. चातुयाम संवर एटले, ते साधु - १. कोइने मारे नहि, मरावे नहि, मारनारनी अनुमोदना पण न करे; २. ते अदत्त ले नहि, लेवडावे नहि, लेनारनी अनुमोदना पण न करे; ३. ते मृषा बोले नहि; बोलावे नहि, बोलनारनी अनुमोदना पण न करे; अने ४. ते इन्द्रियोना विषयोने अभिलेष नहि, अभिलषावे नहि, अभिलाषा करनारनी अनुमोदना पण न करे. आ रीते ते साधु चातुयाम संवरथी संवृत्त थाय छे.' अहीं ए नोंधq जोइए के - जैन परम्परामां हिंसा, मृषा, अदत्त-एवो क्रम छे ज्यारे अहीं हिंसा, अदत्त, मृषा...एवो क्रम छे. बीजूं, चोथा व्रतमा आवतो भावितं (नो भावितं आसीसति) शब्द बहु महत्त्वनो छे, अने आ सन्दर्भमां ते कोई जैन ग्रन्थमां जोवामां नथी आव्यो. आ शब्द पर टीका करतां बुद्धघोष अट्ठकथामां कहे छे के - 'जेओ आ चातुयाम संवरमां माने छे तेओना मते भावितनो अर्थ पांच कामगुणो छे, अर्थात् इन्द्रिय सम्बन्धी सुखना प्रकारो छे.' जो के, बौद्धोए अन्यत्र भावित शब्दनो '(कोइनो) राग होवो, अभिलाष होवो, तेनुं सतत चिन्तन होवू' - व. अर्थोमां उपयोग कर्यो छे, छतां अहीं ते तेमनी परिभाषानो नथी. अहीं तो बुद्धघोष स्पष्टतया कहे छे के - 'अहीं भावित शब्दनो अर्थ, जेओ चातुयाम संवरनो १. दीघनिकाय - ३:४८॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान ४४ अभ्यास करे छे तेमना मते छे.' (तेसं साय). ___ आ सार्थक विधानथी ए साबित थाय छे के टीकाकार (बुद्धधोष) चातुयाम संवरना अभ्यासीओ साथे सम्पर्कमां हशे, अने तेमनी पासेथी ज तेने चोथा व्रतनो आवो अर्थ मळ्यो हशे. आ अर्थ विश्वसनीय ज छे कारण के स्थानाङ्गसूत्रमा रहेल बहिद्धादान शब्दनो अर्थ जेवो सन्दिग्ध रहे छे (अर्थात्ते मैथुनपरक - परिग्रहपरक के बन्ने - परक छे), तेवो ज सन्दिग्ध अर्थ अहीं पण छे. कारण के, इन्द्रियना सुखो एटले काम जेम स्त्री साथे तेम बाह्यवस्तुओ साथे पण जोडाई शके छे. परन्तु, अहीं दुर्भाग्ये मूळ पालीसुत्त के अट्ठकथा बेमांथी क्यांय आ चातुयाम संवरनी अभ्यासी व्यक्ति के परम्परानो निर्देश नथी. जो के, एक वस्तु तो अहीं निश्चित छे के बौद्धोए बीजा परिव्राजको के तापसोना देहदमनना अभ्यासो अने चातुयाम संवर वच्चे घणो तफावत जोयो छे, अने बुद्धे पोते पण आ चातुयाम संवरने तिरस्कार्यो के दूषित नथी कर्यो, एवं उपरोक्त संवादो जोतां जणाय छे. आगल बुद्ध उमेरे छे के - 'जे तपस्वी चातुयाम संवरने पाळतो आगळ वधे छे ते ध्यान(ब्रह्मविहारो)ने पामी शके छे अर्थात् मैत्री-करुणा-मुदिताउपेक्खाने अनुभवी शके छे. परन्तु तेनाथी पण ते सर्वोच्च कक्षाए पहोंची शकतो नथी, ते वक्षनी छालने ज पामी शके छे तेना सारने नहि.'५ । फरी निग्रोध द्वारा पूछाये छते बुद्ध कहे छे के - 'त्यांथी पण आगळ वधीने ते मानसिक अवरोधोने दूर करीने पोताना सेंकडो-हजारो पूर्वभवोने जोवानी अतीन्द्रिय शक्तिने पण पामी शके छे. पण ते शक्ति पण वृक्षनी शिरा सुधी पहोंचाडी शके पण तेनो सार पमाडी शकती नथी.' 'त्यार पछी पण जे आगळ वधे ते दिव्वचक्खु अभिन्न तरीके ओळखाती दिव्य दृष्टि सुधी पहोंची शके छे, के जेनाथी ते विविध जीवोने तेमनां सारां-नरसां कर्मोने कारणे विविध गतिओमां जतां-आवतां जोई शके छे.' त्यारे निग्रोध पूछे छे - 'भगवन् ! शुं त्यारे ते तपस्वीनी तपस्या आ बधी वस्तुथी अत्यन्त शुद्ध थई जाय छे अने उच्च कक्षाने तथा वृक्षना सारने पामी ले छे ?' १. दीघनिकाय - ३:४८-४९ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ते समये बुद्ध जे जवाब आपे छे ते थोडो आश्चर्यजनक छे. तेओ कहे छे, 'हा निग्रोध ! आ रीतनी तपस्या उच्चकक्षा तथा सारने पमाडे छे, ' जून २००८ 'अने तेथी ज निग्रोध ! ज्यारे तुं मने पूछे छे के - "तमे तमारा शिष्योने क्यां (कई कक्षाए) तालीम आपो छो ? तमारा कया शिष्यो तमे प्ररूपेल साधुधर्मना सिद्धान्तोने स्वीकारे छे ?" त्यारे हुं कहुं हुं के - "ते घणी उच्चकक्षा छे ज्यां हुं मारा शिष्योने तालीम आपुं छु, अने ते मारा शिष्यो साधुधर्मना सिद्धान्तोनो स्वीकार करे छे. ११ एक बौद्धेतर पन्थ पर बुद्धे आपेलुं आ एक सङ्क्षिप्त प्रमाण छे, अने आश्चर्य तो ए वातनुं छे के सुत्तना सङ्कलनकारोए पण चातुयाम संवरने क्षतिरहित मानी पोताना सिद्धान्त जेवो ज गण्यो छे ! वळी, वधारे उच्च अने अनुत्तर निर्वाणना पन्थ विशे कशुं कह्या विना ज आ सुत्त पूर्ण थई जाय छे, ते तो एथी य वधारे विस्मयप्रेरक छे. निग्रोध बुद्धनी निन्दा करवानो पोतानो अपराध स्वीकारी क्षमा मागे छे. त्यारे बुद्ध पण तेने कहे छे के 'जे व्यक्ति प्रामाणिक, मेधावी अने सरल छेतेने हुं शिक्षण तथा मार्गदर्शन आपीश के जेनाथी ते अहीं अने अत्यारे ज उच्चधर्म अने परम ध्येयने पामी शके छे.' परन्तु निग्रोध के तेना शिष्योमांथी कोई पण आ पवित्र पन्थ पर चालवा तैयार नथी, कारण के, बुद्ध पोते ज कहे छे ते 'प्रत्येक मूर्ख मनुष्य मार दुष्ट तत्त्वथी आक्रान्त होय छे.' अने आ रीते बुद्ध एक पण व्यक्तिने प्रतिबोध्या विना नीकळी जाय छे, अने सूत्र अहीं ज पूर्ण थई जाय छे, जाणे के चातुयाम संवरने बुद्धना अर्ध उपदेश तरीके कहीने अटकी जाय छे. - आनो उकेल आ संवादना आरम्भने जोइए तो मळी जाय छे के बुद्धे सिंहनादनी जेम निर्भीकपणे कह्युं छे के 'ते बीजाओ द्वारा पूछायेल तपश्चर्या विषयक प्रश्नोनो उत्तर, पोताना सिद्धान्तोनुं वर्णन कर्या पहेलां ज आपशे. ' बुद्धनो आ विश्वास मात्र पोतानी उच्च बौद्धिक शक्ति पर ज आधारित नथी परन्तु पोते पोताना पूर्व जीवनमां बोधिसत्त्वरूपे आवां कष्टानुष्ठानो करी अनुभव मेळवेल छे १. दीघनिकाय ३:४९ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनुसन्धान ४४ अने ते अनुष्ठानोनी व्यर्थता पण जोई छे. अट्ठकथा चातुयाम संवर विशेना बुद्धना आवा असामान्य विधान माटे पण आने ज स्पष्टतया कारण माने छे. चातुयाम संवर सम्बद्ध सूत्रनी टीका करतां बुद्धघोष अट्ठकथामां कहे छे के 'भगवाने आ जे कह्युं छे ते तीर्थिकोना मते कह्युं छे. तीर्थिको माने छे के - लाभ अने पूजा सत्कार वृक्षनां पर्णो जेवा छे, पांच व्रतोनुं पालन ते वृक्षना थड समान छे, अष्टविध ध्यानाभ्यास ते वृक्षनी त्वचा जेवो छे, पूर्वभवोनुं ज्ञान (अभिन्न) वृक्षनी शिराओ जेवुं छे, दिव्य चक्षुः ने तेओ (तीर्थिको ) अर्हतपणानुं उत्तम फल माने छे, तेथी तेनी प्राप्ति ते वृक्षना सार समान छे. १ परन्तु बुद्धना शासनमां तो, लाभ तथा पूजादि वृक्षनां पर्णो जेवा छे, नियमो वृक्षना काष्ठ (थड) जेवा छे, ध्याननिष्पत्ति ते वृक्षनी त्वचा जेवी छे, पूर्वज्भवोनुं ज्ञान वृक्षनी शिरा जेवुं छे, परन्तु वृक्षनो खरो सार तो पवित्र मार्ग अने ते मार्गनुं फल निर्वाण छे. — अट्ठकथामां चातुयाम संवरनुं अध्यारोपण तीर्थिको पर कर्तुं छे ते घणुं साकूत छे. सामञ्ञफलसुत्तमां तीर्थिको तरीके श्रमणोना छ अतिप्रसिद्ध सम्प्रदायोनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. अहीं जे तीर्थिक शब्दनो उपयोग कर्यो छे ते तो निःशङ्कपणे नातपुत्तना नेतृत्ववाला निर्ग्रन्थोने उद्देशीने ज कर्यो छे, कारण के तेमना सिवाय बीजा कोई तीर्थिकोए चातुयाम संवरनुं निरूपण कर्तुं नथी. निग्ग्रंथो (अर्थात् तीर्थिको ) दिव्यचक्षुः नामक पूर्वोक्त अलौकिक सामर्थ्यने अर्हतपणुं माने छे एवं बौद्धोनुं विधान, वर्तमानकालीन जैनोनी जेम, निर्ग्रन्थोए पोते ज अवश्य नकारी काढ्युं होत. अहीं, बौद्धो पोताना प्रतिपक्षी श्रमणोनुं वर्णन करी रह्या छे अने तेओ तेमनी यौगिक क्षमताओने पोताना सिद्धान्तोना प्रकाशमां जोवा माटे बन्धायेला छे ए वातने बाजु पर राखीए तो; ए जो उचित थई पडशे के कोईक जैन आगमपाठे तेमने आवुं विधान करवा प्रेर्या होय. मने लागे छे के कल्पसूत्रनो एक फकरो (आचाराङ्ग सूत्र २ - १५२६ नुं ज प्राय: प्रतिबिम्ब) भगवान महावीरे प्राप्त करेल अर्हतपणाने वर्णवे छे. 'ज्यारे श्रमण महावीर जिन थया, अर्हत थया त्यारे तेओ केवली थया, १२. दीघनिकाय - अट्ठकथा ३ : ५४-५७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ ११७ सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थया, तेओए देव-मनुष्य-असुरलोकना सर्व पर्यायोने जाण्या तथा जोया, सर्व लोकमां सर्व जीवोना गति-अगति-स्थिति- च्यवन-उपपात व. सर्व भावोने जाण्या तथा जोया....' अने, कल्पसूत्रमा ज श्रमण महावीरने मळेल केवलज्ञानने वर्णववा माटे वपरायेला 'अनुत्तर ज्ञान अने दस्सण शब्दो तथा महासारोपमसुत्त (मज्झिमनिकाय-२९)मां बौद्धोए करेलो तेनो अर्थ जोईए तो बीजी सङ्गति पण कदाच मळे छे. सुत्त कहे छे के 'पाखण्डीने प्राप्त थयेल आण-दस्सन दिव्यचक्खु नामक अभिन्न तुल्य छे.' अहीं, जो के, वृक्षना सारने पामवाना उदाहरणमां सुत्त "एक विवक्षित पुरुष एवां पदो वापरे छे, छतां, मज्झिमनिकाय-अट्ठकथामां कर्तुं छे के 'त्यां उल्लेखेल पुरुष ते देवदत्त छे, जेने सङ्घभेदना आरोपसर सङ्घथी बहार करवामां आव्यो.' सुत्त कहे छे के 'तेवो भिक्खु आण-दस्सन पामे तो य ते मात्र वृक्षना तन्तुओने ज स्पर्शी शके छे पण तेना सारने नहि.' आणं च मे उदपादि, दस्सनं च मे उदपादि व. वाक्यो बुद्ध अथवा अरहा द्वारा ज्यारे बोलाय त्यारे ते हमेशा संसारना अन्तने व्यक्त करता - खीणा मे जाति, नस्थि दानि पुनब्भवो... व. शब्दोथी सम्बद्ध अधिकारोथी अनुसराता होय छे. तेथी मज्झिमनिकाय अट्ठकथा कहे छे के - 'अहीं वर्तमान सन्दर्भमां (अर्थात् देवदत्तना) आण-दस्सन कोई लोकोत्तर प्राप्तिनो निर्देश नथी करतां परन्तु (पांच लौकिक अभिनमांना) एक दिव्यचक्खु नामक एक अभिन्ननो निर्देश करे छे.१ जैन कल्पसूत्रना फकराओमां वर्णवेली जीवोनां जन्म-मरणोने जोवानी शक्ति तथा सर्व कांई जोवा-जाणवानी शक्ति, बौद्धोना दिव्वचक्खु अभिन्न साथे घj साम्य धरावे छे एवी अवधारणाए बौद्ध टीकाकारोने एवं विचारवा प्रेर्या होय के जैनो आ बधानी प्राप्तिने ज अर्हत्पणानी प्राप्तिरूप मानता हशे. आ बन्ने (जैन बौद्ध) मतो वच्चेनो विरोध घणो प्रसिद्ध छे अने सामञफलसुत्त परनी बुद्धघोषनी अट्ठकथामां तेने विशे घणुं बधुं लखायेलुं छे. छतां, तेमांथी केटलाक अतिप्रसिद्ध शब्दो अहीं टांकवा अस्थाने नहि गणाय. निगंथो पर टीका करतां बुद्धघोष कहे छे के - 'निर्ग्रन्थो जो के तीथिको अर्थात् १. मज्झिमनिकाय २:१९६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 अनुसन्धान 44 पाखण्डीओ छे, छतां तेओर्नु केटलुक अनुष्ठानादि बौद्धमतने सम्मत पण छे. ते छतां पण, तेओनी अशुद्ध दृष्टिने कारणे तेओर्नु समग्र दर्शन ज मिथ्या छे.'' छेल्ले, घणा जैन आगमोना पाठो साथे सादृश्य धरावता आगळ कहेला पाली आगमना पाठो तथा तेनी टीकाओ-कदाच, बौद्ध साधुओ तथा जैन मुनिओना कोई गणो वच्चेना वास्तविक सम्पर्कने जणावे छे. में मारा १९९५ना लेखमां जणाव्यु ज छे के - टीकाकार धम्मपाले जैन साधुओ, जे वर्णन कर्यु छे ते शिल्पोमां मळतां वर्णनो साथे सम्मत छे - ते जणावे छे के बौद्धो काञ्चीमा रहेता जैनमुनिओना गणोने जाणता हशे. वळी, बौद्ध टीकाकारोना समय सुधी पण थेरवादी बौद्धो, जैनोना पञ्च महाव्रतोनी वात न करतां चातुयाम संवरने ज स्वीकारे छे - ते आपणने एवं विचारवा - तर्क करवा प्रेरे छे के दक्षिणमां रहेल बौद्धोने एवा जैन मुनिओनो सम्पर्क हशे के जेओ त्यारे पण चातुयाम संवरने पाळता होय. WARSAW INDOLOGICAL STUDIES - VOLUME 2, Essays in Jaina Philosophy and Religion Catuyama - Samvara in the Pali Canon लेखनो अनुवाद. अनुवाद : मुनि कल्याणकीर्तिविजय Dept. of S&SE Asian Studies University of California 7303 Dwinelle Hall Bekeley, CA 94270-2540 1. दीघनिकाय अट्ठकथा 1 : 168 / 2. Jaini, Padmanabh S. : JAIN MONKS FROM MATHURA: LITERARY EVIDENCE FOR THEIR IDENTIFICATION ON KUSANA SCULPTURES.' Bulletin of the School of Oriental and African Studies [University of LONDON] 58 (1995) 479-494.