Book Title: Osiya ki Prachinta
Author(s): Devendra Handa
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ १२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड .... ...................................................................... माता का एक मन्दिर भी बनवाया। विक्रम संवत् १३६३ में विरचित उपकेशगच्छ पट्टावलि में ओसियाँ के नाम तथा स्थापना के सम्बन्ध में एक अन्य परम्परा निबद्ध है। इसके अनुसार श्रीमाल नगर में एक जैन राजा जयसेन शासन करता था। उसकी दो रानियाँ थीं जिनसे क्रमश: भीमसेन तथा चन्द्रसेन नामक पुत्र हुए। शैव एवं जैन मतावलम्बी होने कारण दोनों की आपस में नहीं बनती थी। जयसेन अपने छोटे पुत्र को उत्तराधिकारी बनाना चाहता था परन्तु वह अपने जीवनकाल में औपचारिक रूप से ऐसा नहीं कर पाया । जयसेन की मृत्यु के पश्चात् दोनों भाइयों में उत्तराधिकार का झगड़ा इतना बढ़ गया कि शक्ति-प्रयोग द्वारा ही निर्णीत होने की नौबत आगई। तब चन्द्रसेन ने अपना दावा वापिस ले लिया। राज्यसिंहासन एवं शक्ति पाकर भीमसेन ने जैनों के साथ दुर्व्यवहार प्रारम्भ कर दिया जो अन्ततः चन्द्रसेन के नेतृत्व में नगर छोड़ कर चले गये। उन्होंने आबू पर्वत के निकट चन्द्रसेन के नाम चन्द्रावती की स्थापना की। भीमसेन ने अपने नगर में करोड़पतियों, लखपतियों तथा साधारण लोगों के लिए तीन परकोटे बनवाए जिसके कारण श्रीमाल नगर को भिन्नमाल (भीनमाल) कहा जाने लगा। भीमसेन के राज्यकाल में भीनमाल शैवों तथा वाममागियों का केन्द्र बन गया । भीमसेन के दो पुत्र थे-श्रीपुंज तथा उपलदेव। दोनों भाइयों में मतभिन्नता के कारण कहा-सुनी हो गई और श्रीपुंज ने उपलदेव को ताना मारते हुए कहा कि इतनी ही ऐंठ है तो अपने भुजबल से अपना ही साम्राज्य क्यों नहीं स्थापित कर लेते। इस पर उपलदेव ने अपना साम्राज्य स्थापित करने की शपथ ली और नगर छोड़ दिया । श्रीपुंज के चन्द्रवंशी महामात्य का पुत्र ऊहड़ जो अपने बड़े भाई सुबड़ से नाराज था, उपलदेव १. सचिया माता का यह मन्दिर वर्तमान नगर के पूर्व में एक पहाड़ी पर अब भी स्थित है। मूल मन्दिर के सम्भवतः नष्ट हो जाने पर बाद में उसी स्थान पर नवीन मन्दिर बनाया गया और इसमें संशोधन-परिवर्धन होते रहे । ओसवाल जैन सचिया माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं। मन्दिर की निजप्रतिमा महिषासुरमर्दिनी की है । विस्तार के लिए देखें-श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल, राजस्थान में जैन-देवी सच्चिवा पूजन, जैन सिद्धान्त-भास्कर, जून १९५४, पृ० १-५. २. पट्टावली समुच्चय (सं० दर्शन विजय) वीरमगाम, १६३३. ३. भीनमाल के इतिहास के लिए देखें--K. C. Jain, Ancient Cities and Towns of Rajasthan, Delhi, Varanasi, Patana, 1972, pp. 155-65. ४. चन्द्रावती का इतिहास दसवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है । विस्तार के लिए देखें-वही, पृ० ३४१-४७ ५. सम्भवत: मूल नाम यहाँ बसने वाले भीलों के नाम पर भिल्लमाल था। एक अन्य परम्परा के अनुसार भिन्न माल नाम यहाँ माल (माल, धन-दौलत, सम्पदा) के भीना (हदम) होने के कारण पड़ा। देखें वही, पृ० १५६ । पट्टावलि नं०१ में श्रीपुज के राजकुमार सुरसुन्दर द्वारा गर्वपूर्वक श्रीमाल छोड़कर अठारह हजार बनियों, नौ हजार ब्राह्मणों और अनेक अन्य लोगों को लेकर नया नगर बसाने की बात कही गई है। पट्टावलि नं. ३ में उपलदेव को श्रीपुंज का पुत्र कहा गया है। ७. विस्तृत कथा के लिए देखें-मुनि ज्ञानसुन्दर जी, जैन जाति महोदय, प्रथम खण्ड, फलोधी, वि० सं० १९८६, प्रकरण ३, पृ०४२-५०। ८. भीममाल में तीन अलग-अलग परकोटों में करोड़पति, लखपति तथा साधारण लोग रहते थे। सुवड़ करोड़पति होने के कारण पहले परकोटे में रहता था और ऊहड़ के पास निन्यानवे लाख होने के कारण उसे दूसरे परकोटे में रहना पड़ा । एक बार वह अस्वस्थ हो गया। उसके मन में आया कि अलग-अलग परकोटे में रहने के कारण दोनों भाई सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ सरलता से नहीं दे सकते । अतः वह पहले परकोटे में जाने की इच्छा से अपने भाई के पास गया और एक लाख रुपये मांगे। इस पर सुवड़ (अपर पट्टावलि के अनुसार उसकी पत्नी) ने उसे ताना दिया कि उसके बिना परकोटा सूना नहीं है। दोनों भाइयों में इस कारण नाराजगी उत्पन्न हो गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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