Book Title: Osiya ki Prachinta Author(s): Devendra Handa Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 6
________________ -0 Jain Education International १६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड इस स्थिति में दसवीं शताब्दी में ओसियां की सम्भवतः पुनः स्थापना हुई होगी क्योंकि हम ऊपर देख चुके हैं कि आठवीं शताब्दी के मध्य में ओसियां एक समृद्ध एवं वैभवशाली नगर बन चुका था। कक्कुक के पटियाला लेखों में इस क्षेत्र में आभीरों की लूटमार तथा मण्डोर एवं रोहिग्यरूप (पटियाला) के आभीरों द्वारा नष्ट किये जाने का उल्लेख मिलता है ।" सम्भवत: ओसियां भी उनकी लूटमार से न बचा हो और निर्जन हो गया हो। " ++ ओसियां के अध्ययन में प्रस्तुत लेखक को कुछ महत्त्वपूर्ण नवीन साक्ष्य मिले हैं जो ओसियाँ की प्राचीनता को और पीछे ले जाते हैं। यहां पहली बार उनका विवेचन किया जा रहा है। ओसिया के महावीर जैन मन्दिर में किसी समय एक तोरण विद्यमान था जो बाद में वण्डित हो गया। इस तोरण के मुख्य स्तम्भ तथा अन्य भाग अब इसी मन्दिर में सुरक्षित हैं । १९०८-०९ में जब भाण्डारकर द्वारा ओसियां का पुरातात्त्विक सर्वेक्षण किया गया था तो यह तोरण मन्दिर में खड़ा था। इसके एक स्तम्भ पर अष्टकोण भाग की पट्टिका पर एक अभिलेख है जिसे भाण्डारकर ने देखा था तथा इसके सं०१०३५ आषाढ़ मुदि १० आदित्य वारे स्वाति नक्षत्रे भी तोरणं प्रतिष्ठापितमिति पाठ के आधार पर इसकी प्रतिष्ठापन तिथि दी थी। बाद में थी पूर्णचन्द नाहर ने भी इस वोरण के केवल उपरिनिबित अभिलेखाश को प्रकाशित किया था। अन्य विद्वानों ने भाण्डारकर तथा नाहर का ही अनुसरण किया है। महावीर मन्दिर में सुरक्षित इन स्तम्भों का निरीक्षण करते हुए प्रस्तुत लेखक ने देखा कि स्तम्भ के अष्टकोणात्मक भाग की पूरी पट्टिका पर (आठों ओर) अभिलेख उत्कीर्ण हैं जिसके '''''याते संवत्सराणां सुरमुनि सहित विक्रम गुरौ शुक्लपक्षे पंचम्याम्स कीर्ति कार ''कषह देवयशः सद्य सोनशिले..." आदि पाठ से यहाँ विक्रम संवत् ७३३ (सुर ३२ मुनि ७) में मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी गुरुवार को मन्दिर (कीर्ति) बनवाने का पता चलता है। इसी तोरण की पट्टिका की अन्तिम तीन पंक्तियों में 'सं० १०३५ अषाढ़ सुदि १० आदित्यवारे स्वातिनक्षत्र श्री तोरणं प्रतिष्ठापितमिति' पाठ से तोरण-प्रतिष्ठा का पता चलता है । स्पष्ट है कि यहाँ संवत् ७३३ अर्थात् ६७६ ई० में भी मन्दिर विद्यमान था । यह मूल मन्दिर सम्भवतया राजस्थान का प्राचीनतम जैन मन्दिर रहा होगा । महावीर जैन मन्दिर की संवत् १०१३ की प्रशस्ति का सन्दर्भ ऊपर दिया जा चुका है। इसमें महावीर मन्दिर के ऊकेश नगर के मध्य में स्थित होने का उल्लेख है। इस नगर के अवशेषों की गवेषणा करते हुए मन्दिर के उत्तरपश्चिम में एक निम्नस्थ थेह ( पुराने टीले) का पता चलता है जिस पर अब श्री वर्धमान जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय का भवन तथा खेल के मैदान स्थित हैं। इस टीले की परिधि रेखाओं पर पुराने ठीकरे चुने जा सकते हैं। पूछताछ से पता चला कि उक्त विद्यालय के वर्तमान भवन की नींव खोदते समय इस टीले से कुछ पुरानी वस्तुएँ मिली थीं जिनमें १. Journal of the Royal Asiatic Society, p. 513. २. Cf. Pupul Jayakar, "Osian " Marg, Vol. XII, No. 2, March 59, p. 69. 3. Bhandarkar, op. cit., Plate XLIII, a, Also see-A Ghosh (Ed.) Jaina Art and Architecture, New Delhi, 1975, Vol. II, Plate 144. Y. Bhandarkar, op. cit., p. 108. 2. Nahar, op. cit., p. 195, No. 789. ६. अभिलेख कुछ खण्डित एवं अस्पष्ट है। पूरा पाठ अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। ७. प्राचीनकाल में संख्या सूचक सांकेतिक शब्दों का प्रयोग संवत् देने के लिए प्रचलित था। विस्तार के लिए देखेंगौरीशंकर हीराचन्द ओझा, भारतीय प्राचीन लिपिमाला, तृतीय संस्करण, दिल्ली १९५२ पृ० ११९-२४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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