Book Title: Nyayavataravartikvrutti
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ 565 न्यायावतार वार्तिक वृत्ति गौण है और विचारतत्त्व ही मुख्य है। इस दृष्टि से देखें तो कहना होगा कि मातृभाषा न होते हुए भी राष्ट्रीय भाषा में संपादक ने जो सामग्री रखी है वह राष्ट्रीय भाषा के नाते व्यापक उपयोग की वस्तु बन गई है। जैन प्रमाणशास्त्र का नई दृष्टि से सांगोपांग अध्ययन करनेवाले के लिए इसके पहले भी कई महत्त्व के प्रकाशन हुए हैं जिनमें 'सन्मतितर्क', 'प्रमाणमीमांसा', 'ज्ञानबिंदु', 'अकलंकग्रन्थत्रय', 'न्यायकुमुदचन्द्र' श्रादि मुख्य है। प्रस्तुत अन्य उन्हीं ग्रन्थों के अनुसंधान में पढ़ा जाय तो भारतीय प्रमाणशास्त्रों में जैन प्रमाणशास्त्र का क्या स्थान है इसका ज्ञान भलीभाँ ति हो सकता है, और साथ ही जैनेतर अनेक परम्पराओं के दार्शनिक मन्तव्यों का रहस्य भी स्फुट हो सकता है। सिंघी जैन ग्रन्थमाला का कार्यवैशिष्ट्य सिंघी जैन ग्रन्थमाला के स्थापक स्व. बाबू बहादुर सिंहजी स्वयं श्रद्धाशील जैन थे पर उनका दृष्टिकोण साम्प्रदायिक न होकर उदार व सत्यलक्षी था। बाबूजी के दृष्टिकोण को विशद और मूर्तिमान बनानेवाले ग्रन्थमाला के मुख्य संपादक हैं। आचार्य श्रीजिनविजयजी की विविध विद्योपासना पन्थ की संकुचित मनोवृत्ति से सर्वथा मुक्त है। जिन्होंने अन्यमाला के अभी तक के प्रकाशनों को देखा होगा, उन्हें मेरे कथन की यथार्थता में शायद ही संदेह होगा। ग्रन्थमाला की प्राणप्रतिष्ठा ऐसी ही भावना में है जिसका असर ग्रन्थमाला के हरएक संपादक की मनोवृत्ति पर जाने अनजाने पड़ता है। जो-जो संपादक विचारस्वातन्य एवं निर्भयसत्य के उपासक होते हैं उन्हें अपने चिन्तन लेखन कार्य में ग्रन्थमाला की उक्त भूमिका बहुत कुछ सुअवसर प्रदान करती है और साथ ही ग्रन्थमाला भी ऐसे सत्यान्वेषी संपादकों के सहकार से उत्तरोत्तर श्रोजस्वी एवं समयानुरूप बनती जाती है। इसी की विशेष प्रतीति प्रस्तुत कृति भी करानेवाली सिद्ध होगी। ई० 1646 ] [ न्यायावतार वार्तिक वृत्ति का 'आदि वाक्य' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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