Book Title: Nyayavataravartikvrutti Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ जैन धर्म और दर्शन ५.६४ भूला दिया जाता है कि अनेकान्त के नाम से कहाँ तक अनेकान्त दृष्टि की उपासना होती है । प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादक ने, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, ऐसी कोई स्वाग्रही मनोवृत्ति से कहीं सोचने लिखने का जान-बूझकर प्रयत्न नहीं किया है । यह ध्येय 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के संपादक और प्रधान संपादक की मनोवृत्ति के बहुत अनुरूप है और वर्त्तमानयुगीन व्यापक ज्ञान खोज की दिशा का ही एक विशिष्ट संकेत है । मैं यहाँ पर एक कटु सत्य का निर्देश कर देने की अपनी नैतिक जवाबदेही समझता हूँ। जैनधर्म के प्रभावक माने मनाए जानेवाले ज्ञानोपासनामूलक साहित्य प्रकाशन जैसे पवित्र कार्य में भी प्रतिष्ठालोलुपतामूलक चौर्यवृत्ति का दुष्कलंक कभी-कभी देखा जाता है । सांसारिक कामों में चौर्यवृत्ति का बचाव अनेक लोग अनेक तरह से कर लेते हैं, पर धर्माभिमुख ज्ञान के क्षेत्र में उसका बचाव किसी भी तरह क्षन्तव्य नहीं है । यह ठीक है कि प्राचीन काल में भी ज्ञान चोरी होतो थी जिसके द्योतक ' वैयाकरणश्चौरः ' 'कविश्वौरः' जैसे वाक्योद्धरण हमारे साहित्य में आज भी मिलते हैं; परन्तु सत्यलक्षी दर्शन और धर्म का दावा करने वाले पहले और आज भी इस वृत्ति से अपने विचार व लेखन को दूषित होने नहीं देते और ऐसी चौर्यवृत्ति को अन्य चोरी की तरह पूर्णतया घृणित समझते हैं। पाठक देखेंगे कि प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादक ने ऐसी घृणित वृत्ति से नख-शिख' बचने का समान प्रयत्न किया है । टिप्पण हों या प्रस्तावना – जहाँ-जहाँ नए पुराने ग्रन्थकारों एवं लेखकों से थोड़ा भी अंश लिया हो वहाँ उन सत्र का या उनके ग्रन्थों का स्पष्ट नाम निर्देश किया गया है। संपादक ने अनेकों के पूर्व प्रयत्न का अवश्य उपयोग किया है और उससे अनेक गुण लाभ भी उठाया है पर कहीं भी अन्य के प्रयत्न के यश को अपना बनाने की प्रकट या अप्रकट चेष्टा नहीं की है। मेरी दृष्टि में सच्चे संपादक की प्रतिष्ठा का यह एक मुख्य श्राधार है जो दूसरी अनेक त्रुटियों को भी क्षन्तव्य बना देता है । मेरी तरह पं० दलसुख मालवणिया की भी मातृभाषा गुजराती है । ग्रन्थरूप मैं हिन्दी में इतना विस्तृत लिखने का इनका शायद यह प्रथम ही प्रयत्न है । इसलिए कोई ऐसी आशा तो नहीं रख सकता कि मातृभाषा जैसी इनकी हिन्दी भाषा हो; परन्तु राष्ट्रीय भाषा का पद हिन्दी को इसलिए मिला है कि वह हरएक प्रान्त वाले के लिए अपने-अपने ढंग से सुगम हो जाती है। प्रस्तुत हिन्दी लेखन कोई साहित्यिक लेखरूप नहीं है । इसमें तो दार्शनिक विचारविवेक ही मुख्य है । जो दर्शन के और प्रमाणशास्त्र के जिज्ञासु एवं अधिकारी हैं उन्हीं के उपयोग की प्रस्तुत कृति है । वैसे जिज्ञासु और अधिकारी के लिए भाषातत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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