Book Title: Nyayavataravartikvrutti
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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________________ न्यायावतार वार्तिक वृत्ति ५६३ प्रस्तुत ग्रन्थ के छपते समय टिप्पण, प्रस्तावना आदि के फार्म (Forms) कई भिन्न-भिन्न दर्शन के पंडित एवं प्रोफेसर पढ़ने के लिए ले गए, और उन्होंने पढ़कर बिना ही पूछे, एकमत से जो अभिप्राय प्रकट किया है वह मेरे उपयुक्त कथन का नितान्त समर्थक है। मैं भारतीय प्रमाणशास्त्र के अध्यापक, पंडित एवं प्रोफेसरों से इतना ही कहना आवश्यक समझता हूँ कि वे यदि प्रस्तुत टिप्पण, प्रस्तावना व परिशिष्ट ध्यानपूर्वक पढ़ जाएँगे तो उन्हें अपने अध्यापन, लेखन आदि कार्य में बहुमूल्य मदद मिलेगी। मेरी राय में कम से कम जैन प्रमाणशाख के उच्च अभ्यासियों के लिए, टिप्पणों का अमुक भाग तथा प्रस्तावना पाठ्य ग्रन्थ में सर्वथा रखने योग्य है; जिससे कि ज्ञान की सीमा, एवं दृष्टिकोण विशाल बन सके और दर्शन के मुख्यप्राण असंप्रदायिक भाव का विकास हो सके। टिप्पण और प्रस्तावनागत चर्चा, भिन्न-भिन्न कालखण्ड को लेकर की गई है । टिप्पणों में की गई चर्चा मुख्यतया विक्रम की पंचम शताब्दी से लेकर १७ वीं शताब्दी तक के दार्शनिक विचार का सर्श करती है; जबकि प्रस्तावना में की हुई चर्चा मुख्यतया लगभग विक्रमपूर्व सहस्राब्दी से लेकर विक्रम को पंचम शताब्दी तक के प्रमाण प्रमेय संबंधी दार्शनिक विचारसरणी के विकास का स्पर्श करती है। इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ में एक तरह से लगभग ढाई हजार वर्ष की दार्शनिक विचारधाराओं के विकास का व्यापक निरूपण है; जो एक तरफ से जैन-परम्परा को और दूसरी तरफ से समानकालीन या भिन्नकालीन जैनेतर परम्परात्रों को व्याप्त करता है। इसमें जो तेरह परिशिष्ट है वे मूल व्याख्या' या टिप्पण के प्रवेशद्वार या उनके अवलोकनार्थ नेत्रस्थानीय है। श्रीयुत मालवणिया की कृति की विशेषता का संक्षेप में सूचन करना हो, तो इनको बहुश्रुतता, तटस्थता और किसी भी प्रश्न के मूल के खोजने की ओर झुकनेवाली दार्शनिक दृष्टि की सतकता द्वारा किया जा सकता है। इसका मूल ग्रन्थकार दिवाकर की कृति के साथ विकासकालीन सामंजस्य है। जैन ग्रन्थों के प्रकाशन संबंध में दो बातें अनेक व्यक्तियों के तथा संस्थाओं के द्वारा, जैन परम्परा के छोटे-बड़े सभी फिरकों में प्राचीन अर्वाचीन ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य बहुत जोरों से होता देखा जाता है, परन्तु अधिकतर प्रकाशन सांप्रदायिक संकुचित भावना और स्वाग्रही मनोवृत्ति के द्योतक होते हैं। उनमें जितना ध्यान संकुचित, स्वमताविष्ट वृत्ति का रखा जाता है उतना जैनत्व के प्राणभूत समभाव व अनेकान्त दृष्टि. मूलक सत्यस्पर्शी अतएव निर्भय ज्ञानोपासना का नहीं रखा जाता। बहुधा यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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