Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me Author(s): Devendramuni Publisher: University Publication Delhi View full book textPage 7
________________ उदाहरणार्थः हिंसा सदैव ही अनैतिक है, वह कभी भी नैतिक और ग्राह्य नहीं हो सकती। इसी प्रकार झूठ, चोरी, व्यभिचार, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन आदि भी अनैतिक हैं। इन्हें किसी भी तर्क, युक्ति से नैतिक सिद्ध नहीं किया जा सकता; परिस्थितियों के मत्थे मंढ़कर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास तो खम्भा पकड़कर आजादी के लिए चिल्लाने जैसा होता है। नीति के इन दोनों रूपों का अपना-अपना महत्व है। शाश्वत नीति रथ-चक्र की धुरा (axis) के समान है। इसी के आधार पर नीति-रथ का चक्र गति करता है, घूमता है। रथ-चक्र और धुरा दोनों ही रथ की सरल-सहज और निर्बाध गति के लिए अनिवार्य हैं। चक्र के बिना धुरा एक सामान्य दण्ड के समान निरर्थक है तो धुरा के अभाव में चक्र भी गतिहीन निष्प्राण सा पड़ा रह जाता है। इसी प्रकार मानव-जीवन की सुचारु गति-प्रगति-उन्नति के लिए नीति के शाश्वत और व्यावहारिक-दोनों पक्षों की अनिवार्य आवश्यकता है। ये दोनों ही पक्ष सबल होने चाहिए, एक की भी निर्बलता जीवन-रथ की गति को विषम बना देती है। ___मैंने अपनी प्रस्तुत पुस्तक 'जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन' में नीति के इन दोनों पक्षों (शाश्वत नीति और व्यावहारिक नीति) पर स्पष्ट दृष्टि रखी है और इन दोनों को समुचित महत्व दिया है। यह सत्य है कि प्रस्तुत ग्रन्थ को मैंने मुख्य रूप से जैन-नीति को आधारभूत बनाकर लिखा है, किन्तु इसमें सभ्य संसार की अर्वाचीन और प्राचीन नीतियों का भी समावेश किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक चार खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में नीति का सामान्य पर्यवेक्षण है। इसमें वैदिक, बौद्ध, ईसाई, चीनी, यूनानी, मुस्लिम, प्रभृति सभी नीतियों के विशिष्ट तत्वों का दिग्दर्शन कराया गया है। द्वितीय खण्ड संपूर्णतया जैन-नीति से सम्बन्धित है। इसमें सम्यग्दर्शन जो कि जैन नीति और नैतिक साधना का प्रमुख आधार है, उसके विवेचन के उपरान्त, व्यसनमुक्त जीवन, नैतिक जीवन के व्यावहारिक सोपान, नैतिक उत्कर्ष (श्रावकाचार), नैतिक चरम (श्रमणाचार) और नैतिक उत्कर्ष की मनोवैज्ञानिक भूमिकाओं का विवेचन प्रस्तुत किया गया है।Page Navigation
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