Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

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Page 11
________________ सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए। ऐसा सत्य नहीं बोलना चाहिए, जो अप्रिय हो। इसी तथ्य को स्वायत्त, करते हुए किरातार्जुनीय के रचयिता महा कवि भारवि ने बड़ा मार्मिक वाक्य लिखा है : हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः। यहाँ बड़ी असमंजस स्थिति उत्पन्न होती है। सत्य शाश्वत है, सार्वदेशिक कल्याण लिए हुए है। उसका प्रयोक्ता क्यों उसके परिणाम को पहले ही आंकने और तदनुसार उसका स्पष्ट-अस्पष्ट, विहित-अविहित प्रयोग करने का चिन्तन करे। इन सब कार्य-विधाओं, व्यापारों, क्रिया-कलापों के साथ अ मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, वैयक्तिक, आनुवंशिक लौकेषना परक वित्तैषणापरक अवधारणाओं का जाल संयुक्त है। ____ भारतीय संस्कृति की मुख्यतः दो धाराएँ हैं-वैदिक धारा और श्रमण धारा। वैदिक धारा वह परम्परा है, जो वेद, ब्राह्मण, आरण्यक कल्प, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि वेदानुषंगी वाङ्मय से अभिप्रेरित है। उसे ब्राह्मण-परम्परा भी कहा जाता है, क्योंकि इसके पुरोधा ब्राह्मण थे। श्रमण-धारा वेद बाह्यधारा है, जहां वेदों का अपौरुषेयत्व, यज्ञयागादि कर्मानुष्ठान स्वीकृत नहीं है, जहां जन्मगत जातिवाद के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इस धारा के अन्तर्गत बौद्ध जैन दो परम्पराएँ आती हैं। बौद्धवाङमय विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्म पिटक तथा तन्मूलक अट्ठकथाएँ, जातक आदि के रूप से पालि में ग्रथित है। ___जैन वाङ्मय आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, स्थानांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि सूत्र-ग्रंथों के रूप में बारह अंगों में विभक्त है, अर्द्धमागधी प्राकृत में रचित है। बारहवां अंग, जो दृष्टिवाद कहा जाता है, आज उपलब्ध नहीं है, अतः वर्तमान में जैन वाङ्मय 11 अंगों में प्राप्त है। उसके आधार पर भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा, दर्शन-ग्रन्थ, पुराण, आख्यायिकाएं, चरित-काव्य आदि विविध साहित्यिक विधाओं में इस चिन्तनधारा का विपुल विस्तार हुआ है। इन तीनों परम्पराओं के आधार पर वैदिक नीति, बौद्धनीति, तथा जैन नीति के रूप में भी शब्द का प्रयोग होता रहता है। यहाँ भी सहज ही यह

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