Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 7
________________ 438 जिनवाणी- जैनागम - साहित्य विशेषाङ्क आस्था का केन्द्र है। तीर्थकर के अभाव में आचार्य ही तीर्थ का संचालन कर्ता है, अतः उसके प्रति आदर सम्मान रखना प्रत्येक साधक का परम कर्त्तव्य है । आचार्य के लिये सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। जो भिक्षु आचार्य के प्रति रोष पूर्ण वचन बोलता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चिन आता है । ग्लान की विधिपूर्वक सेवा न करने पर, वर्षावास में विहार करने पर, निश्चित्त दिन पर्युषण न करने पर, संवत्सरी के दिन नौविहार उपवास न करने पर, लोच न करने पर, वर्षावास में वस्त्र ग्रहण करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का कथन है। ग्यारहवाँ उद्देशक इसमें ९१ सूत्र हैं। इसमें लोहे, तांबे, शीशे, सींग, चमड़े, वस्त्र आटि के पात्र में आहार करने का निषेध है। धर्म की निंदा एवं अधर्म की प्रशंस करने का निषेध है। दिवस भोजन की निंदा, रात्रि भोजन की प्रशंसा, मद्यमांस सेवन का निषेध है। स्वच्छंदाचार की प्रशंसा का निषेध है। अयोग्य के दीक्षित करने का निषेध है । अचेत या सचेत साधु का अकेले साध्वियों के साथ रहना निषिद्ध है। आत्मघात करने वाले की प्रशंसा करने का निषेध है इन दोषों का सेवन करने वाले को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। बारहवाँ उद्देशक इसमें ४४ सूत्र हैं। पहले सूत्र में साधु करुणा से प्रेरित होकर त्रस जीव को न तो रस्सी से बांधे न मुक्त करे । साधु को निस्पृह भाव से संयम साधन करना है यदि साधना को भूल कर अन्य प्रवृत्तियां करेगा तो साधना में वि आयेगा। यहां करुणा या अनुकंपा का प्रायश्चित्त नहीं है, अपितु गृहस्थ क सेवा और संयम विरुद्ध प्रवृत्ति का प्रायश्चित है। तेरहवाँ उद्देशक इसमें ७८ सूत्र हैं। सचित्त, स्निग्ध, सरजस्क, पृथ्वी पर सोने, बैठने स्वाध्याय करने का, देहरी, स्नानपीठ, दीवार, शिला आदि पर बैठने का गृहस्थ आदि को शिल्प सिखाने का, कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्न, निमित्त लक्षण आदि के प्रयोग का, धातु विद्या या निधि बताने का, पानी से भरे पात्र, दर्पण मणि, तेल, मधु, घृत आदि में मुँह देखने का, वमन, विरेचन या बल बुद्धि वृद्धि के लिये औषध सेवन का निषेध है। ऐसी प्रवृत्तियाँ करने वाले को ला चौमासी प्रायश्चित्त आता है। चौदहवाँ उद्देशक इसमें ४१ सूत्र है । पात्र खरीदना, उधार लेना, बदलना, छीनना, पाः में भागीदारी करना, आज्ञा बिना पात्र लेना, सामने लाया हुआ पात्र लेना विकलांग या असमर्थ को अतिरिक्त पात्र न देना, अनुपयोगी पात्र को रखना पात्र को विशेष सुंदर या सुगंधित बनाना, परिषद से निकल कर पात्र के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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