Book Title: Nischay aur Vyavahar Shabdo ka Arthakhyan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 18
________________ ७४ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ होता है और कथंचित् अवास्तविक आदि भी होता है । इस प्रकार उपादान कारण चूँकि निश्चयरूप कारण है, इसलिये उसे सर्वथा वास्तविक होना ही चाहिये और यह सर्वथा वास्तविकता उपादानकारणमें इस तरह सिद्ध होती है कि कार्य जब तक रहता है तब तक कार्य में उपादानकी अपेक्षा रहा करती है, इसलिये वह सर्वथा वास्तविक आदि है । लेकिन निमित्तकी अपेक्षा तभी तक रहती है जब तक कार्य उत्पन्न नहीं हो जाता । कार्यके उत्पन्न हो जाने पर निमित्तकी अपेक्षा समाप्त हो जाती है । अतः जब तक कार्य में उसकी अपेक्षा है तब तक निमित्तको उस अपेक्षाके रूपमें वास्तविक ही कहा जायगा और कार्यके उत्पन्न होने पर चूँकि उसकी अपेक्षा समाप्त हो जाती है, अतः तब उसे इस दृष्टिसे अवास्तविक ही कहा जायगा । दूसरी बात यह है कि निमित्त तो कार्योत्पत्ति में सहायक ही होता है, अतः इस दृष्टिसे तो यह वास्तविक ही होगा और चूँकि वह कार्यरूप परिणत नहीं होता, अतः इस दृष्टिसे वह अवास्तविक ही होगा, यह हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं। इस तरह उपादान में तो सर्वथा वास्तविकता और निमित्तमें कथंचित् वास्तविकता तथा कथंचित् अवास्तविकता रहनेके कारण उपादान तो कार्य में निश्चयकारण होता है और निमित्त व्यवहारकारण होता है । इसी प्रकार जो वस्तु स्वद्रव्य क्षेत्र - काल भावसे सत् है वह परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावसे असत् है अर्थात् प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य क्षेत्र - काल - भावसे सत्तारूप धर्म विद्यमान है तथा परद्रव्य-क्षेत्र - काल भावसे असत्तारूप धर्म विद्यमान है । जैसे आत्मा चित् है । यहाँपर जिस प्रकार आत्मामें चिद्रूप धर्मकी सत्ता सिद्ध होती है उसी प्रकार उसके अचिद्रूप घर्मंकी असत्ता भी सिद्ध होती है । अतः कहना चाहिये कि आत्मामें चिद्रूपताका सद्भाव और अचिद्रूपताका अभाव इन दोनों धर्मोमेंसे चिद्रूपताका सद्भाव आत्माका स्वरूपपरक धर्म होने, अत एव स्वाश्रित धर्म होनेके कारण निश्चयधर्म है व अचिद्रूपताका अभाव स्वरूपपरक धर्म न होने, एतावता पराश्रित धर्म होनेके कारण व्यवहारधर्म है । ये दोनों ही भावात्मक और अभावात्मक धर्म आत्मामें अपनी-अपनी सत्ता जमाकर बैठे हैं । यही कारण है कि जैनागम में यह सिद्धान्त स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक वस्तुमें प्रत्येक प्रकारकी सत्ता अपनी प्रतिपक्षभूत असत्ताके साथ ही रहती है ।" यदि ऐसा नहीं माना जायगा अर्थात् आत्मामें चिद्रूपताके सद्भावके साथ अचिद्रूपताका अभाव नहीं माना जायगा तो फिर चिद्रूप आत्माका अचिद्र प पुद्गलादि द्रव्योंके साथ वास्तविक भेद सिद्ध नहीं हो सकेगा । इसलिये जिस प्रकार आत्मामें चिद्रूपताका सद्भाव वास्तविक है उसी प्रकार उसमें अचिद्र् पताका अभाव भी वास्तविक ही है। इतनी बात अवश्य है कि चिद्रूपताका सद्भाव अपनी स्वाश्रयता के कारण जहाँ सर्वथा वास्तविक है वहाँ अचिद्रूपताका अभाव पराश्रयताके इसका कारण यह है कि जिस प्रकार कारण कथंचित् वास्तविक है और कथंचित् अवास्तविक भी है। आत्मामें चिद्रूपताका सद्भाव एक और अखण्ड धर्म है उस प्रकार अचिद्र पताका अभाव एक और अखण्ड धर्म नहीं है, क्योंकि पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सभी अचिद्रूप वस्तुओंकी अचिद्रूपता भिन्नभिन्न है । इसलिये इनमें से प्रत्येककी अचिद्रूपताका अभाव भी आत्मामें भिन्न-भिन्न ही होगा । इस तरह आत्मामें नाना अचिद्रूपताओंके अभाव (स्वान्यन्यावृत्तियाँ) भी नाना सिद्ध हैं और तब अचिद्र पता भी सखण्ड व नानारूप सिद्ध हो जाती है । नानारूपता और खण्डरूपताको व्यवहारधर्म व एकरूपता और अखण्डरूपताको निश्चयधर्मं इन दोनों शब्दोंकी व्युत्पत्तिके आधार पर हम पूर्व में प्रतिपादित कर ही चुके हैं । भावरूपताको निश्चय शब्दका प्रतिपाद्य और अभावरूपताको व्यवहारशब्दका प्रतिपाद्य माननेमें एक कारण यह भी है कि प्रत्येक वस्तुका भावरूप धर्म अपने वैशिष्ट्य के कारण उस वस्तुको स्वतंत्रताका निर्णायक १. पंचाध्यायी, अध्याय १, १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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