Book Title: Nischay aur Vyavahar Shabdo ka Arthakhyan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 23
________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ७९ ही वहाँ पर यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि वस्तुतत्त्वको समझनेका साधकतम (करणरूप) साधन ज्ञान ही हो सकता है, अतः ज्ञानको ही प्रमाण जानना चाहिये। इस तरह चूँकि वस्तुतत्त्वको समझनेका साधनभूत ज्ञान ही पूर्वोक्त प्रकारसे प्रमाण होता है और प्रमाणका अंश ही नय होता है । अतः इसके अनुसार यह निर्णीत होता है कि जो वस्तुतत्त्वके अंशको समझनेका साधनभूत ज्ञान हो उसे नय कहना चाहिये । प्रमाणरूप ज्ञान जैनागममें पांच बतलाये गये हैं-मतिज्ञान, प्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमेंसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये चारों ही ज्ञान अखण्डवस्तुका ज्ञान कराते हैं और इनमेंसे भी केवलज्ञान तो वस्तुका सर्वात्मना ज्ञान कराता है तथा मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान एकदेशात्मना वस्तुका ज्ञान कराते हैं। श्रुतज्ञानकी वस्तुका ज्ञान करानेकी प्रक्रिया इन चारों ज्ञानोंसे भिन्न प्रकारकी है। अर्थात् श्रुतज्ञान वस्तुका यद्यपि सर्वात्मना ज्ञान कराता है, परन्तु केवलज्ञानसे वस्तुका ज्ञान सर्वात्मना होता है वह युगपत् प्रत्यक्षरूपमें होता है और श्रुतज्ञानसे जो वस्तुका सर्वात्मना ज्ञान होता है वह क्रमशः एक-एक अंशके ग्रहणपूर्वक परोक्ष रूपमें होता है। इस तरह कहना चाहिये कि श्रुतज्ञान द्वारा वस्तुके एक-एक अंशका क्रमशः पृथक्-पृथक् ही ग्रहण होता है इसलिये श्रुतज्ञानमें नयोंकी व्यवस्थाको अनायास स्थान प्राप्त हो जाता है और यही कारण है कि आगममें श्रुतज्ञानमें ही नयोंकी व्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है तथा मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें नयव्यवस्थाका निषेध किया गया है। उपयुक्त कथनका अभिप्राय यह है कि वस्तुके एक-एक अंशका पृथक-पृथक रूपमें क्रमशः बोध होनेका नाम नय है। ऐसा बोध श्रुतज्ञानको छोड़कर मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें सम्भव नहीं है। श्रुतज्ञानमें कैसे संभव है ? इसका समाधान यह है कि श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति वचनके आधारपर ही हुआ करती है और चूँकि वचन सांश होता है अतः सांश वचनके आधारपर उत्पन्न होनेवाला जो श्रुतज्ञानरूपी बोध है उसमें भी सांशताकी सिद्धि हो जाती है। इसप्रकार श्रुतज्ञानमें नय व्यवस्थाकी सिद्धि हो जाती है। वचनमें सांशताकी सिद्धि अनुभवसिद्ध है, कारण कि वाक्योंके समूहरूप महावाक्यमें समाविष्ट जितने वाक्य हों उनका उच्चारण या लेखन क्रमसे ही होता है। इसी तरह प्रत्येक वाक्यमें जितने पद हों उनका १. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम् ।--परीक्षामुख, ।१-१ । हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । वही, ११२ । २. स्वार्थेकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः १-९८ ।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १-६ वा० ४। ३. मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्य परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत् । -तत्त्वार्थसूत्र, ११९, २०, ११, १२ ४. मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा । ज्ञातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥ निःशेषदेशकालार्थागोचरत्वदृविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टतः ।। त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते ॥ परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात्केवलस्य तु । श्रुतमूला नया सिद्धा वक्षमाणाः प्रमाणवत् ।। --तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १-६, वा० २४, २५, २६, २७! ५. नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः । तत्त्वा० श्लो० १-३३, वा० ६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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