Book Title: Nischay aur Vyavahar Shabdo ka Arthakhyan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
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८० सरस्वतो वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
भी उच्चारण या लेखन क्रमसे होता है और प्रत्येक पदमें जितने अक्षर हों उनका भी उच्चारण या लेखन क्रमशः होता है । यही कारण है कि निरर्थक अक्षरोंके समूहका नाम शब्द कहलाता है, और शब्द यदि विभक्त्यन्त हो जावे तो वह पद कहलाने लगता है ।" पद दो प्रकारके होते हैं एक संज्ञापद और दूसरा क्रियापद । इन दोनोंके योगसे वाक्य बनता है। दो आदि वाक्योंके योगसे महावाक्य बनता है। इसी प्रकार दो आदि महावाक्योंके योगसे भी महावाक्यको निष्पत्ति होती है ।
सबसे बड़ा महावाक्य ग्रन्थ होता है । ग्रन्थके अन्तर्गत अध्याय आदिके रूपमें भी महावाक्य होते हैं। एक-एक अध्याय भी कई-कई महावाक्योंका समुदाय होता है। एक-एक महावाक्य में दो आदि अनेक वाक्य होते हैं और एक-एक आयमें दो आदि अनेक पद होते हैं। इस प्रकार वचनरूप श्रुतका रूप पदसे लेकर बड़े-से-बड़े महावाक्य तक हो जाता है। जैनागमका सबसे बड़ा महावाक्य द्वादशांग रूप है। इसके १२ अन्तर्भेद हैं । १२वें अन्तर्भेद दृष्टिवादके मुख्य पाँच भेद हैं और फिर इनके भी अनेक उपभेद हैं । ये सब भेद वचनरूप श्रुतके हैं तथा इनके श्रवण या पाठसे जो वस्तुतत्त्वका बोध श्रोता या पाठकको हुआ करता है वह ज्ञानरूप श्रुत कहलाता है । ज्ञानरूप श्रुत अर्थात् वचनके आधारपर जो बोध श्रोता या पाठकको हुआ करता है उसे आगम में स्वार्थ भी कहा गया है और वहीं पर उस वचनरूप धुत या वचनको पराबंधुत भी कहा गया है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्वयज्ञान और केवलज्ञान ये चारों ही ज्ञान चूँकि ज्ञानरूप ही हुआ करते हैं, अतः अपनी ज्ञानरूपता के कारण ये चारों ज्ञान स्वार्थ प्रमाणरूप ही हुआ करते हैं । इस तरह कहना चाहिये कि प्रमाण दो तरह का होता है— एक स्वार्थरूप और दूसरा परार्थरूप । जो प्रमाण ज्ञानरूप हो उसे स्वार्थ प्रमाण और जो प्रमाण वचनरूप हो उसे परार्थ प्रमाण जानना चाहिये। इस प्रकार मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये चारों प्रमाण तो अपनी ज्ञानरूपताके कारण स्वायंप्रमाणरूप ही होते हैं और धुतप्रमाण अपनी ज्ञानरूपता कारण तो स्वार्थप्रमाणरूप होता है तथा अपनी वचनरूपताके कारण वह परार्थप्रमाणरूप भी होता है ।"
जो वचन वक्ता या लेखक के अभिप्रायरूप वस्तुतत्त्वका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करता है वह तो प्रमाणरूप होता है और जो वचन वक्ता या लेखक अभिप्रायरूप वस्तुतत्त्वके एक देश (अंश) का प्रतिरादन करता
१. सुप्तिङ्न्तं पदम् पाणिनीय अष्टाध्यायी १-४-१४ ।
२. पदानां परस्परसापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वनयम् । अष्टशती, अकलंकदेव, आप्तमी० का० १०३ । ३. वास्योपचयो महावाक्यम् । साहित्यदर्पण २-१ यहाँपर 'वाक्योच्चयः' पदका विशेषण इसकी टीकामें "योग्यताकांक्षासत्तियुक्तः" दिया गया है। इस तरह महावाक्यका लक्षण निम्न प्रकार हो जाता है" परस्परसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षः समुदायो महावाक्यम्" ।
इस लक्षणके आधारपर ही गोम्मटसार जीवकाण्डमें श्रुतमार्गणाप्रकरण में गिनाये गये श्रुतके बीस भेदोंमेंसे आदिके अक्षर पद और संघात (वाक्य) से आगे जितने भेद गिनाये गये हैं वे सब यहाँ वाक्यके भेद समझना चाहिये ।
४. महावाक्यों के योगये जो महावाक्य बनता है उसका लक्षण निम्न प्रकार जानना चहिये परस्परसापेक्ष महावाक्योंके निरपेक्ष समुदायका नाम भी महावाक्य है । (लेखक) ।
५. प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं पराय च । तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् । श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च । शानात्मक स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः सर्वार्थसिद्धि १-६ ।
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