Book Title: Niryukti Sahitya Ek Parichay Author(s): Shreeprakash Pandey Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 3
________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते करते हुए आचार्य भद्रबाहु ने लोक शब्द की नाम, स्थापना, हुए, आचार्य ने यही सिद्ध किया है कि मुक्ति के लिए ज्ञान और काल, भाव, द्रव्य, क्षेत्र, भव और पर्याय१९ - इन आठ प्रकार के चारित्र दोनों अनिवार्य हैं। चारित्रविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन निक्षेपों से व्याख्या की है। इसके अतिरिक्त दो प्रकार के उद्योत२०, चारित्र एक-दूसरे से दूर आग से घिरे हुए अंधे और लँगड़े के श्रमणधर्म, धर्म के भेद एवं अवान्तर भेद, तीर्थ, जिन, अरिहन्त समान हैं, जो एक-दूसरे के अभाव में अपने मन्तव्य पर नहीं आदि शब्दों की व्याख्या करते हुए, अन्त में नियुक्तिकार ने पहुँच सकते।१२ अतः ज्ञान व चारित्र के संतुलित समन्वय से चौबीस तीर्थंकरों की निक्षेपपद्धति से व्याख्या कर उनके गुणों पर ही मोक्ष प्राप्ति होती है। इसके बाद आचार्य सामायिक के अधिकारी भी प्रकाश डाला है।२९ की पात्रता, उसका क्रमशः विकासक्रम, कर्मों के क्षयोपशम एवं __ वन्दना - तृतीय अध्ययन का नाम वन्दना है। इस अध्ययन की मोक्ष-प्राप्ति कैसे होती है? आदि प्रश्नों, एवं तज्जनित शंकाओं के निर्यक्ति करते हुए सर्वप्रथम आचार्य ने वन्दना के वन्दनाकर्म. समाधान के साथ उपशम एवं क्षपक श्रेणी का विस्तृत वर्णन चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म इन पाँच पर्यायों किया है। इसके पश्चात् आचार्य शिष्य की योग्यता के मापदंड का उल्लेख किया है। इस अध्ययन में वन्दना का नौ द्वारों से र का व्याख्यान - विधि से निरूपण करते हुए अपने मुख्य विषय . विचार किया गया है - १. वन्दना किसे करनी चाहिए? २. सामायिक का व्याख्यान प्रारम्भ किया है, जिसे उन्होंने उद्देश्य, किसके द्वारा होनी चाहिए? ३. कब होनी चाहिए? ४. कितनीबार निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय आदि छब्बीस होनी चाहिए? ५. वन्दना करते समय कितनी बार झुकना चाहिए? निक्षेपों के आधार पर व्याख्यायित किया है। इस क्रम में निर्गम ६. कितनी बार सिर झुकाना चाहिए? ७. कितने आवश्यकों से की चर्चा करते हुए भगवान महावीर के मिथ्यात्वादि से निर्गमन, शुद्ध होना चाहिए? ८. कितने दोषों से मुक्त होना चाहिए? एवं उनके पूर्व भव, ऋषभदेव से पूर्व होने वाले कुलकर, ऋषभदेव ९. वन्दना किसलिए करनी चाहिए?२२ इन द्वारों का निर्देश करने के पूर्वभव, उनकी जीवनी एवं चारित्र का वर्णन करते हुए र के बाद वन्द्यावन्द्य का भी सविस्तार विवेचना किया गया है। नियुक्तिकार ने भगवान महावीर के जन्म एवं उनके जन्म से जो द्रव्य व भाव से सश्रमण है. वही वन्द्य है।२३ इस क्रम में ज्ञान, ही सम्बन्ध रखने वाली तेरह घटनाओं - स्वप्न, गर्भापहार, अभिग्रह, दर्शन और चारित्र के विभिन्न अंगों का विचार करने के बाद जन्म, अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरणज्ञान, भयोत्पादन, अपत्य, दान, आचार्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सम्बोध और महाभिनिष्क्रमण१३ तथा उनके इन्द्रभूति आदि ग्यारह तप, विनय आदि में हमेशा लगे रहते हैं, वही वन्दनीय हैं और गणधरों१४ का भी उल्लेख किया है। उन्हीं से जिनप्रवचन का यश फैलता है।२४ वन्दना करने वाला __इसके पश्चात् आचार्य ने सामयिकसूत्र के प्रारम्भ में आने पंचमहाव्रती, आलस्यरहित, मानपरिवर्जितमति, संविग्न और वाले नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, निर्जरार्थी होता है।२५ वन्दना के मूलपाठ "इच्छामिखमासमणो" वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम प्रयोजन और फल.५ इन ग्यारह की सूत्रस्पर्शी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने (१) इच्छा, (२) द्वारों से व्याख्या की है। पंचनमस्कार के बाद सामायिक किस अनुज्ञापना, (३) अव्याबाध, (४) यात्रा, (५) यापना और (६) प्रकार करनी चाहिए?९६ सामायिक का लाभ कैसे होता है?१७ अपराधक्षमणा इन छ: स्थानों की नियुक्ति निक्षेपों के आधार पर सामायिक का उद्देश्य क्या है?१८ आदि प्रश्रों का विशद विवेचन करकेवन्दनाध्ययनकी नियुक्ति को यहीं विश्राम दे दिया है। आचार्य ने किया है। प्रतिक्रमण चतुर्विशतिस्तव - आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्यायन चतुर्विंशतिस्तव है। चतुर्विशति शब्द की नाम, स्थापना, द्रव्य, प्रतिक्रमण नामक यह चतुर्थ अध्ययन है। प्रतिक्रमण की क्षेत्र, काल और भाव इन छ: निक्षेपों एवं स्तव शब्द की चार व्याख्या करते हुए आचार्य ने स्पष्ट किया है कि - प्रमाद के प्रकार के निक्षेपों से व्याख्या की गई है। चतुर्विंशतिस्तव के लिए कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि पर स्थान में आवश्यकसूत्र में “लोगस्सुज्जोयगरे" का पाठ है। इसकी नियुक्ति चला जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण . है।२७ प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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