Book Title: Niryukti Sahitya Ek Parichay
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिसाहित्य : एक परिचय डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी.... आगम-साहित्य के गुरु गंभीर रहस्यों के उद्घाटन के लिए १. मूलनियुक्ति अर्थात् जिसमें काल के प्रभाव से कुछ निर्मित व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भी मिश्रण न हुआ हो। जैसे - आचारांग और सूत्रकृतांग की स्थान है। जैन-आगम-साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो नियुक्तियाँ। पद्यबद्ध टीकाएँ लिखी गई वे ही नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। २.वे निर्यक्तियाँ जिनमें मलभाष्यों का सम्मिश्रण हो गया निर्यक्तियों में मलग्रन्थ के पद पर व्याख्या न करके, मुख्य रूप है तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं। जैसे - दशवैकालिक व से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। नियुक्तियों की आवश्यकनियुक्तियाँ। व्याख्या-शैली, निक्षेप-पद्धति की है। निक्षेप-पद्धति में किसी ३. वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य या बृहद्भाष्य में एक पद के संभावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता समाविष्ट हैं, इनके मूल और भाष्य में इतना सम्मिश्रण हो गया है है। यह पद्धति जैन-न्यायशास्त्र में अत्यधिक प्रिय रही है। इस कि उन दोनों को पृथक् करना दुष्कर है। जैसे-निशीथ आदि की शैली का प्रथम दर्शन हमें अनुयोगद्वार में होता है। नियुक्तिकार नियुक्तियाँ। भद्रबाहु ने नियुक्ति के लिए यही पद्धति प्रशस्त मानी है। नियुक्ति यह विभाजन वर्तमान में प्राप्त निर्यक्तिसाहित्य के आधार का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है - "एक ही शब्द के पर किया गया है। अनेक अर्थ होते हैं, कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त रचनाकाल - निर्यक्तियों के काल निर्णय के सम्बन्ध में विद्वानों है. श्रमण महावीर के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द में मतैक्य नहीं है. फिर भी उनका रचनाकाल विक्रम संवत से सम्बद्ध रहा है, प्रभृति बातों को लक्ष्य में रखकर अर्थ का ३०० से १०० के मध्य माना जाता है। सम्यक् रूप से निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के नियुक्तिकार - जिस प्रकार महर्षि यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का कार्य है। शब्दों की व्याख्या करने के लिए निघण्टुभाष्य रूप निरुक्त दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध लिखा, उसी प्रकार जैनागमों के पारिभाषिक शब्दों के व्याख्यार्थ बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है-- "सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं आचार्यभद्रबाहु द्वितीय ने नियुक्तियों की रचना की। ध्यातव्य है सम्बन्धनं नियुक्ति:"३ अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन कि नियुक्तिकार आचार्यभद्रबाहु, चतुर्दशपूर्वधर, छेदसूत्रकार, करने वाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं।' भद्रबाहु से पृथक् हैं, क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाहु ने अनेक प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् शान्टियर ने नियुक्ति की व्याख्या स्थलों पर छेदसूत्रकार श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया करते हुए लिखा है “नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल है। यदि छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार एक ही भद्रबाहु होते तो इंडेक्स का कार्य करती हैं - वे सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों साल नमस्कार का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि कोई भी समझदार का संक्षेप में उल्लेख करती हैं। ग्रन्थकार अपने आपको नमस्कार नहीं करता है। इस संशय का अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन प्रकार बताए गए हैं एक कारण यह भी है कि भद्रबाहु नाम के एक से अधिक - १. निक्षेपनिर्गक्ति, २. उपोदघातनिर्गक्ति . ३. आचार्य हुए हैं। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार चतुर्दशपूर्वधर सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति। ये तीनों भेद विषय की व्याख्या पर आधारित आचार्यभद्रबाहु नेपाल में योगसाधना के लिए मये थे, जबकि हैं। डॉ. घाटगे ने नियुक्तियों को निम्न तीन भागों में विभाजित दिगम्बर मान्यता के अनुसार यही भद्रबाहु नेपाल में न जाकर किया है - दक्षिण में गए थे। इन दोनों घटनाओं से यह अनुमान हो सकता है acroririrawhniwomowondwarorondomobrowbrowdniroinor-७४ Horomirironiroinomiadiomowondinirbird-ord-wariwariworar Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकगन्य - जैन आगम एवं साहित्य - कि ये दोनों भद्रबाहु भी भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे, परन्तु नियुक्तिकार व्याख्या की गई है। इसके बाद की नियुक्तियों में उन विषयों की भद्रबाहु इन दोनों से भिन्न तीसरे व्यक्ति थे। ये चतुर्दशपूर्वधर संक्षिप्त चर्चा करते हुए विस्तृत व्याख्या के लिए आवश्यकनियुक्ति भद्रबाहु न होकर विक्रम की छठी शताब्दी में विद्यमान एक अन्य की ओर संकेत कर दिया गया है। इस दृष्टि से अन्य नियुक्तियों ही भद्रबाहु हैं जो प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वाराहमिहिर के भाई माने को समझने के लिए आवश्यकनियुक्ति का ज्ञान आवश्यक है। जाते हैं। नियुक्तियों में इतिहास की दृष्टि से भी अनेक ऐसी बातें जैन आगामिक साहित्य में आवश्यक-सूत्र का विशेष स्थान है। आई हैं जो श्रुतकेवली भद्रबाहु के बहुत काल बाद घटित हुई। इसमें छः अध्ययन है। प्रथम अध्ययन का नाम सामयिक है। अतः नियुक्तिकार भद्रबाहु द्वितीय हैं जो छेदसूत्रकार शेष पाँचों अध्ययनों के नाम चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, श्रुतकेवलीभद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका समय विक्रम सं.५६२ के कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान है। आवश्यकनियुक्ति इसी सूत्र की लगभग है। ये अष्टांगनिमित्त मंत्रविद्या के पारगामी अर्थात् नैमित्तिक आचार्यभद्रबाहुकृत पद्यात्मक प्राकृतव्याख्या है। इसी व्याख्या के रूप में भी प्रसिद्ध हैं .इन्होंने अपने भाई के साथ धार्मिक के प्रथम अंश अर्थात् सामायिक अध्ययन से सम्बन्धित नियुक्ति स्पर्धाभाव रखते हुए “भद्रबाहु संहिता" एवं "उपसर्गहरस्तोत्र" की विस्तृत व्याख्या आचार्यजिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की। इन दो ग्रंथों के अतिरिक्त इन्होंने निम्न दस नाम से की है। इस भाष्य की भी अनेक व्याख्याएँ हुई हैं, जिनमें नियुक्तियों की रचना की - १. आवश्यकनियुक्ति, २. मलधारी हेमचन्द्रकृत व्याख्या विशेष प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त दशवैकालिकनियुक्ति, ३. उत्तराध्ययननियुक्ति, ४. आचारांगनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति पर अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं जो प्रकाशित ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति, ६. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, ७. कल्प- भी हैं। उनमें से मलयगिरिकृतवृत्ति, हरिभद्रकृतवृत्ति, मलधारी (बृहत्कल्प) नियुक्ति, ८. व्यवहारनियुक्ति, ९. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति, हेचन्द्रकृत प्रदेशव्याख्या तथा चन्द्रसूरिकृत प्रदेशव्याख्याटिप्पण, १०. ऋषिभाषितनियुक्ति। माणिक्यशेखरकृत आवश्यकनियुक्तिदीपिका, जिनदासगणि आचार्यभद्रबाहु की इन दस नियुक्तियों का रचनाक्रम महत्तरकृतचूर्णि एवं विशेषावश्यक की जिनभद्र की स्वोपज्ञवृत्ति वही है, जिस क्रम में उन्होंने आवश्यकनियुक्ति में प्रमुख ह। नियुक्तिरचनाप्रतिज्ञा की है। नियुक्तियों में जो नाम, विषय उपोद्घात् - आवश्यकनियुक्ति के प्रारम्भ में उपोद्घात है, इसे आदि आए हैं, वे भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं।' इस ग्रन्थ की भूमिका कहा जा सकता है। इसमें ८८० गाथाएँ हैं। ___इन दस नियुक्तियों में से सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की उपोद्घात में आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और नियुक्तियाँ अनुपलब्ध हैं। ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, केवल इन पाँच प्रकार के ज्ञान, इनके अवान्तर भेद, प्रत्येक का पंचकल्पनिर्यक्ति और निशीथनियुक्ति क्रमश: आवश्यकनिर्यक्ति, काल-प्रमाण, आभिनिबोधिक ज्ञान की निमित्तभूत पाँच इन्द्रियाँ, दशवैकालिकनियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति आभिनिबोधिक ज्ञान के समानार्थक शब्द, अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, की पूरक हैं। संसक्तनियुक्ति क्रमशः आवश्यक, दशवैकालिक, सादिक,सपर्यवसित, गमिक, अंगप्रविष्ट, अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, बृहत्कल्प और आचारांगनियुक्ति की पूरक है। संसक्तनियुक्ति अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य° इन चौदह बाद के किसी आचार्य की रचना है। गोविन्दाचार्यप्रणीत प्रकार के निक्षेपों के आधार पर श्रुतज्ञान, उसके स्वरूप व भेद गोविन्दानियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध है। एवं अवधि तथा मन:पर्ययज्ञानके स्वरूप व प्रकृतियों की विशद विवेचना की गई है। इसे ज्ञानाधिकार भी कहते हैं। इसके बाद आवश्यक नियुक्ति षडावश्यकों में से सामायिक को सम्पूर्णश्रुत के आदि में रखते आचार्यभद्रबाहु प्रणीत दस नियुक्तियों में आवश्यकनियुक्ति है। इसका कारण यह है कि हैं। इसका कारण यह है कि श्रमण के लिए सामायिक का की रचना सर्वप्रथम हुई है। यही कारण है कि यह नियुक्ति अध्ययन सर्वप्रथम अनिवार्य है। सामायिक के अध्ययन के कथ्य, शैली आदि सभी दृष्टियों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस पश्चात् हा अन्य आगम साहित्य के पढ़ने का विध नियुक्ति में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की विशद एवं व्यवस्थित चारित्र का प्रारम्भ ही सामायिक से होता है, इसलिए चारित्र की पाँच भूमिकाओं में प्रथम सामायिक चारित्र की है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते करते हुए आचार्य भद्रबाहु ने लोक शब्द की नाम, स्थापना, हुए, आचार्य ने यही सिद्ध किया है कि मुक्ति के लिए ज्ञान और काल, भाव, द्रव्य, क्षेत्र, भव और पर्याय१९ - इन आठ प्रकार के चारित्र दोनों अनिवार्य हैं। चारित्रविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन निक्षेपों से व्याख्या की है। इसके अतिरिक्त दो प्रकार के उद्योत२०, चारित्र एक-दूसरे से दूर आग से घिरे हुए अंधे और लँगड़े के श्रमणधर्म, धर्म के भेद एवं अवान्तर भेद, तीर्थ, जिन, अरिहन्त समान हैं, जो एक-दूसरे के अभाव में अपने मन्तव्य पर नहीं आदि शब्दों की व्याख्या करते हुए, अन्त में नियुक्तिकार ने पहुँच सकते।१२ अतः ज्ञान व चारित्र के संतुलित समन्वय से चौबीस तीर्थंकरों की निक्षेपपद्धति से व्याख्या कर उनके गुणों पर ही मोक्ष प्राप्ति होती है। इसके बाद आचार्य सामायिक के अधिकारी भी प्रकाश डाला है।२९ की पात्रता, उसका क्रमशः विकासक्रम, कर्मों के क्षयोपशम एवं __ वन्दना - तृतीय अध्ययन का नाम वन्दना है। इस अध्ययन की मोक्ष-प्राप्ति कैसे होती है? आदि प्रश्नों, एवं तज्जनित शंकाओं के निर्यक्ति करते हुए सर्वप्रथम आचार्य ने वन्दना के वन्दनाकर्म. समाधान के साथ उपशम एवं क्षपक श्रेणी का विस्तृत वर्णन चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म इन पाँच पर्यायों किया है। इसके पश्चात् आचार्य शिष्य की योग्यता के मापदंड का उल्लेख किया है। इस अध्ययन में वन्दना का नौ द्वारों से र का व्याख्यान - विधि से निरूपण करते हुए अपने मुख्य विषय . विचार किया गया है - १. वन्दना किसे करनी चाहिए? २. सामायिक का व्याख्यान प्रारम्भ किया है, जिसे उन्होंने उद्देश्य, किसके द्वारा होनी चाहिए? ३. कब होनी चाहिए? ४. कितनीबार निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय आदि छब्बीस होनी चाहिए? ५. वन्दना करते समय कितनी बार झुकना चाहिए? निक्षेपों के आधार पर व्याख्यायित किया है। इस क्रम में निर्गम ६. कितनी बार सिर झुकाना चाहिए? ७. कितने आवश्यकों से की चर्चा करते हुए भगवान महावीर के मिथ्यात्वादि से निर्गमन, शुद्ध होना चाहिए? ८. कितने दोषों से मुक्त होना चाहिए? एवं उनके पूर्व भव, ऋषभदेव से पूर्व होने वाले कुलकर, ऋषभदेव ९. वन्दना किसलिए करनी चाहिए?२२ इन द्वारों का निर्देश करने के पूर्वभव, उनकी जीवनी एवं चारित्र का वर्णन करते हुए र के बाद वन्द्यावन्द्य का भी सविस्तार विवेचना किया गया है। नियुक्तिकार ने भगवान महावीर के जन्म एवं उनके जन्म से जो द्रव्य व भाव से सश्रमण है. वही वन्द्य है।२३ इस क्रम में ज्ञान, ही सम्बन्ध रखने वाली तेरह घटनाओं - स्वप्न, गर्भापहार, अभिग्रह, दर्शन और चारित्र के विभिन्न अंगों का विचार करने के बाद जन्म, अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरणज्ञान, भयोत्पादन, अपत्य, दान, आचार्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सम्बोध और महाभिनिष्क्रमण१३ तथा उनके इन्द्रभूति आदि ग्यारह तप, विनय आदि में हमेशा लगे रहते हैं, वही वन्दनीय हैं और गणधरों१४ का भी उल्लेख किया है। उन्हीं से जिनप्रवचन का यश फैलता है।२४ वन्दना करने वाला __इसके पश्चात् आचार्य ने सामयिकसूत्र के प्रारम्भ में आने पंचमहाव्रती, आलस्यरहित, मानपरिवर्जितमति, संविग्न और वाले नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, निर्जरार्थी होता है।२५ वन्दना के मूलपाठ "इच्छामिखमासमणो" वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम प्रयोजन और फल.५ इन ग्यारह की सूत्रस्पर्शी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने (१) इच्छा, (२) द्वारों से व्याख्या की है। पंचनमस्कार के बाद सामायिक किस अनुज्ञापना, (३) अव्याबाध, (४) यात्रा, (५) यापना और (६) प्रकार करनी चाहिए?९६ सामायिक का लाभ कैसे होता है?१७ अपराधक्षमणा इन छ: स्थानों की नियुक्ति निक्षेपों के आधार पर सामायिक का उद्देश्य क्या है?१८ आदि प्रश्रों का विशद विवेचन करकेवन्दनाध्ययनकी नियुक्ति को यहीं विश्राम दे दिया है। आचार्य ने किया है। प्रतिक्रमण चतुर्विशतिस्तव - आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्यायन चतुर्विंशतिस्तव है। चतुर्विशति शब्द की नाम, स्थापना, द्रव्य, प्रतिक्रमण नामक यह चतुर्थ अध्ययन है। प्रतिक्रमण की क्षेत्र, काल और भाव इन छ: निक्षेपों एवं स्तव शब्द की चार व्याख्या करते हुए आचार्य ने स्पष्ट किया है कि - प्रमाद के प्रकार के निक्षेपों से व्याख्या की गई है। चतुर्विंशतिस्तव के लिए कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि पर स्थान में आवश्यकसूत्र में “लोगस्सुज्जोयगरे" का पाठ है। इसकी नियुक्ति चला जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण . है।२७ प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि२८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरिस्मारकगन्ध-जैन आगम एवं साहित्य - - ये प्रतिक्रमण के पर्याय हैं। प्रतिक्रमण पर तीन दृष्टियों से ने कायोत्सर्ग के भेद, परिमाण, गुण, ध्यान का स्वरूप एवं विचार किया गया है - (१) प्रतिक्रमणरूप क्रिया, (२) प्रतिक्रमण भेद३५, कायोत्सर्ग के विविध-अतिचार शुद्धि-उपाय, शठ एवं का कर्ता अर्थात् प्रतिक्रामक और (३) प्रतिक्रमितव्य अशुभयोग अशठ द्वार,कायोत्सर्ग की विधि२७, घोटकलत आदि उन्नीस रूप कर्म। जीव पापकर्मयोगों का प्रतिक्रामक है। इसलिए जो दोष, कायोत्सर्ग के अधिकारी एवं कायोत्सर्ग के परिणाम ध्यान आदि प्रशस्त योग हैं, उनका साधु को प्रतिक्रमण नहीं की विस्तृत विवेचना की है। करना चाहिए। प्रतिक्रमण, दैवसिक, रात्रिक, इत्वरिक, प्रत्याख्यान - आवश्यक सूत्र का षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान के यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थक आदि रूप में है। आचार्यभद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का निरूपण छः अनेक प्रकार का होता है। पंचमहाव्रत, रात्रिभुक्तिविरति, दृष्टियों में किया है। (१) प्रत्याख्यान, (२) प्रत्याख्याता, (३) भक्तपरिज्ञा आदि ऐसे प्रतिक्रमण हैं, जो यावत्कायिक या जीवन प्रत्याख्येय, (४) पर्षद, (५) कथनिविधि एवं (६) फल।१० र भर के लिए हैं। सामान्यतः उच्चार-मूत्र, कफ, नसिकामल, प्रत्याख्यान के छः भेद है - (१) नामप्रत्याख्यान, (२) आभोग- अनाभोग, सहसाकार आदि क्रियाओं के उपरान्त स्थापनाप्रत्याख्यान, (३) द्रव्यप्रत्याख्यान, (४) प्रतिक्रमण आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में आदित्साप्रत्याख्यान, (५) प्रतिषेधप्रत्याख्यान एवं (६) आचार्य ने प्रतिषिद्ध विषयों का आचरण करने, विहित विषयों भावप्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन एवं समता का आचरण न करने, जिनोक्त वचनों में श्रद्धा न रखने तथा । की सरिता में अवगाहन होता है। प्रत्याख्यातव्य, द्रव्य व भाव विपरीत प्ररूपणा करने पर प्रतिक्रमण करने का निर्देश देते हुए रूप से दो प्रकार का होता है। अशनादि का प्रत्याख्यान प्रथम आलोचना निरपलाप आदि बत्तीस योगों की चर्चा की है।३१ द्रव्यप्रत्याख्यान है एवं अज्ञानादि का प्रत्याख्यान भावप्रत्याख्यातव्य तदनन्तर अस्वाध्यायिक की नियुक्ति, अस्वाध्याय के भेद है। प्रत्याख्यान के अधिकारी को बताते हुए आचार्य ने कहा कि प्रभेद एवं तज्जनित परिणामों की चर्चा की गई है। प्रत्याख्यान का वही अधिकारी है जो विनीत एवं अव्यक्षिप्तरूप कायोत्सर्ग - यह आवर का पुत्र का पाँचवाँ अध्ययन है। हो। अन्त में प्रत्याख्यान के फल की विवेचना की गई है। कायोत्सर्ग की नियुक्ति करन क पूर्व आचार्य ने प्रायश्चित्त के आवश्यकनियुक्ति के इस विस्तृत विवेचन से सहज ही आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनुमान लगाया जा सकता है कि जैननियुक्ति ग्रन्थों में अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दस भेदों का निरूपण किया है। आवश्यकनियुक्ति का कितना महत्त्व है। श्रमणजीवन की साल कायोत्सर्ग एवं व्युत्सर्ग एकार्थक है। यहाँ कायोत्सर्ग का अर्थ साधना के लिए अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का व्रणचिकित्सा है जो कायोत्थ और परोत्थ दो प्रकार की होती है। संक्षिप्त, सुव्यवस्थित एवं मर्मस्पर्शी निरूपण आवश्यकनियुक्ति जैसा वण होता है. वैसी ही उसकी चिकित्सा होती है। कायोत्सर्ग की एक बहत बड़ी विशेषता है। में दो पद है - काय और उत्सर्ग। काय का निक्षेप बारह प्रकार से किया गया है। ये हैं -- (१) नाम, (२) स्थापना, (३) शरीर, २. दशवैकालिकनियुक्ति (४) गति, (५) निकाय, (६) आस्तिकाय, (७) द्रव्य, (८) इस नियुक्ति के आरम्भ में आचार्य ने सर्वसिद्धों को नमस्कार मातृका, (९) संग्रह, (१०) पर्याय, (११) भार एवं (१२) भाव। करके इसकी रचना की प्रतिज्ञा की है।४१ "दश' और "काल" उत्सर्ग का निक्षेप -- (१) नाम, (२) स्थापना (३) द्रव्य, (४) इन दो पदों से सम्बन्ध रखने वाले दशवकालिक की निक्षेपक्षेत्र, (५) काल और (६) भाव रूप से छः प्रकार का है। पद्धति से व्याख्या करते हए आचार्य ने बताया है कि "दश" का कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग एवं अभिभवकायोत्सर्ग नामक दो प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें "दस" अध्ययन हैं विधान है। भिक्षाचर्या आदि में होने वाला चेष्टाकायोत्सर्ग एवं एवं "काल" का प्रयोग इसलिए है कि इस सत्र की रचना उस उपसर्ग आदि में होने वाला अभिभवकायोत्सर्ग है।३२ अभिभव समय हुई जबकि पौरुषी व्यतीत हो चकी थी अथवा जो दस कायोत्सर्ग की काल-मर्यादा अधिकतम एक वर्ष एवं न्यूनतम अध्ययन पर्वो से उदधत किए गए उनका सव्यवस्थित निरूपण अन्तर्मुहूर्त है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में नियुक्तिकार సందరయతరగentertainmenor 90 రురరరరరరరరరరరmand आवरण . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विकाल अर्थात् अपराह्न में किया गया। इसीलिए इस सूत्र का -- गंधार, श्रावक, तोसलिपुत्र, स्थूलभद्र, कालक, स्कन्दपुत्र, नाम दशवैकालिक रखा गया। इस सूत्र की रचना मनक नामक पराशरऋषि, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्ध एवं हरिकेश मृगापुत्र शिष्य के हेतु आचार्य शयम्भव ने की।४२ दशवैकालिक में। आदि की कथाओं का संकेत है। इसके अतिरिक्त निह्नव, भद्रबाहु द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन हैं। के चार शिष्यों एवं राजगृह के वैमार पर्वत की गुफा में शीतपरीषहों प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा करते हए उसके लौकिक से एवं मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का भी वर्णन है। और लोकोत्तर ये दो भेद एवं उसके अवान्तर भेदों को बताया। इसमें अनेक उक्तियाँ सक्तों के रूप में हैं। जैसे -- "भावाम्मिउ गया है।४३ द्वितीय अध्ययन में धृति की स्थापना की गई है। पव्वज्जा आरम्भपरिग्गहच्चाओ५५ अर्थात् हिंसा व परिग्रह का तृतीय अध्ययन५ में क्षुल्लकाचार अर्थात् लघु-आचार कथा त्याग ही भावप्रव्रज्या है। काव्यात्मक एवं मनोहारी स्थलों का का अधिकार है। चौथे अध्ययन ६ में आत्मसंयम के लिए भा अभाव इस नियुक्ति में नहीं है। जैसे-- षड्जीवरक्षा का उपदेश दिया गया है। पिण्डषणा नामक पंचम अयिरुग्गयए सूरिए अध्ययन की नियुक्ति में आचार्य ने "पिण्ड" और "एषणा" चइयथूम गय वायसे इन दो पदों की निक्षेपरूप से व्याख्या करते हुए भिक्षाविशुद्धि के भित्ती गमए व आपने विषय में विशद विवेचना की है। छठे अध्ययन में वृहद् आचार कथा का प्रतिपादन है। सप्तम अध्ययन ९ वचन विभक्ति का सहि सुहिओ हु जणो न वुज्झई।५६ अधिकार है। अष्टम अध्ययन प्राणिधान अर्थात् विशिष्ट चित्तधर्म अर्थात् 'सूर्य का उदय हो चुका है, चैत्यस्तम्भ पर बैठसम्बन्धी है। नवम अध्ययन में विनय का एवं दसवें५२ अध्ययन बैठ कर काग बोल रहे हैं. सर्य का प्रकाश दीवारों पर चढ गया है में भिक्ष का अधिकार है। इन अध्ययनों के अतिरिक्त इस सूत्र किन्त फिर भी हे सखि । यह अभी सो ही रहे हैं।' में दो चूलिकाएँ हैं - प्रथम चूलिका में संयम में स्थिरीकरण का और दूसरी में विवत्तचर्या का वर्णन है। दशवैकालिकनियुक्ति ४. आचारांगनियुक्ति पर अनेक टीकाएँ एवं चूर्णि लिखी गई हैं, जिनमें उत्तराध्ययननियुक्ति के पश्चात् एवं सूत्रकृतांगनियुक्ति के । जिनदासगणिमहत्तर की चूर्णि अधिक प्रसिद्ध है। पूर्व रचित यह नियुक्ति आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति इसमें ३४७ गाथाएँ हैं। आचारांगानियुक्ति के प्रारम्भ में मंगलगाथा है, जिसमें सर्वसिद्धों को नमस्कार कर इसकी रचना करने की दशवैकालिक की भाँति इस नियुक्ति में भी अनेक प्रतिज्ञा. संज्ञा और दिशा का निक्षेप किया गया है। पारभाषिक शब्दों की निक्षेपदृष्टि से व्याख्या की गई है। आचारांग का प्रवर्तन सभी तीर्थकरों ने तीर्थ-प्रवर्तन के इसमें ६०७ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान जिनेन्द्र आदि में किया एवं शेष ग्यारह अंगों का आनुपूर्वी से निर्माण आदि में किया एवं शेष ग्याद्ध अंगों का . के उपदेश ३६ अध्ययनों में संग्रहीत हैं। उत्तराध्ययन के "उत्तर" । हुआ ऐसा आचार्य का मत है। आचारांग द्वादशांगों में प्रथम पद का अर्थ क्रमोत्तर बताकर अध्ययन पद का अर्थ बताते हुये क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि इसमें मोक्ष के कहा गया है कि जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम अर्थात् उपाय का प्रतिपादन किया गया है, जो कि सम्पूर्ण प्रवचन का सार परिच्छेद होता है या जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है।९। अंगों का सार आचारांग है, आचारांग का सार अव्याबाध है, है, वही अध्ययन है। चूँकि अध्ययनसे अनेक भवों से आते हुये जो साधक का अन्तिम ध्येय है। आचारांग में नौ ब्रह्ममचर्याभिधायी कर्मरज का क्षय होता है, इसलिएउसेभावाध्ययन कहते हैं। इसके अध्ययन, अठारह हजार पद एवं पाँच चूड़ाएँ है।। पश्चात् आचार्य ने श्रुतस्कंध ५४ का निक्षेप करते हुए विनयश्रुत, नौ अध्ययनों में प्रथम का अधिकार जीव संयम है, द्वितीय परीषह, चतुरंगीय, असंस्कृत आदि छत्तीस अध्ययनों की विवेचना की है। इस नियुक्ति में शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। जैसे का कर्मविजय, तृतीय का सुख-दुःखतितिक्षा, चतुर्थ का सम्यक्त्व की दृढ़ता पंचम का लोकसाररत्नत्रयाराधना, षष्ठ का नि:संगता, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - सप्तम का मोहसमत्थ परीषहोपसर्ग सहनता, अष्ठम् का निर्वाण चूलिकाओं का परिमाण इस प्रकार है - "पिण्डैषणा" से लेकर अर्थात् अन्तक्रिया एवं नवम का जिनप्रतिपादित अर्थश्रद्धान है। “अवग्रहप्रतिमा" अध्ययन पर्यन्त सात अध्ययनों की प्रथम चूलिका, द्वितीय उद्देशक में पृथ्वी आदि का निक्षेप-पद्धति से विचार - सप्तर सप्तसप्ततिका नामक द्वितीय चूलिका, भावना नामक तृतीय, विमुक्ति करते हुये उनके विविध भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ की गई हैं। इसमें नामक चतुर्थ एवं निशीथ नामक पंच चूलिका है।६५९ वध को कृत, कारित एवं अनुमोदित तीन प्रकार का बताते हुए ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय और वायुकाय इस नियुक्ति में २०५ गाथाएँ हैं। प्रारम्भ में सूत्रकृतांग जीवों की हिंसा के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है। शब्द की व्याख्या के पश्चात् अम्ब, अम्बरीष, श्याम, शबल, द्वितीय अध्ययन लोकविजय है, जिसमें कषायविजय को रुद्र, अवरुद्र, काल, महाकाल, असिपल, धनु, कुम्भ, बालुक, ही लोकविजय कहा गया है।६२ वैतरणी, खरस्वर और महाघोष नामक पन्द्रह परमाधार्मिकों के तृतीय अध्ययन शीतोष्णीय है, जिसमें शीत व उष्ण पदों नाम गिनाए गए हैं। गाथा ११९ में आचार्य ने ३६३ मतान्तरों का का निक्षेप-विधि से व्याख्यान करते हुए स्त्री-परीषह एवं सत्कार निर्देश किया है, जिसमें १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ परीषह को शीत एवं शेष बीस को उष्णपरीषह बताया गया है।६३ अज्ञानवादी और ३२ वैनयिक है। इसके अतिरिक्त शिष्य और सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन के चारों उददेशकों में शिक्षक के भेद-प्रभेदों की भी विवेचना की गई है।७१ क्रमशः सम्यक् - दर्शन, सम्यक् - ज्ञान, सम्यक - तप एवं ६. दशाश्रतस्कन्धनियीक्त सम्यक् - चारित्र का विश्लेषण किया गया है।६४ यह नियुक्ति दसाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र पर है। प्रारम्भ पंचम अध्ययन लोकसार के छः उद्देशकों में यह बताया में निर्यक्तिकार ने दशा, कल्प और व्यवहार श्रत के कर्ता गया है कि सम्पूर्ण लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान सकलश्रतज्ञानी श्रतकेवली आचार्यभद्रबाह को नमस्कार किया का सार संयम और संयम का सार निर्वाण है।६५ है।७२ तदनन्तर दस अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन किया है। __धूत नामक षष्ठ अध्ययन के पाँच उद्देशक हैं, जिसमें प्रथम अध्ययन असमाधिस्थान की नियुक्ति में द्वव्य व भाव वस्त्रादि के प्रक्षालन को द्रव्य-धूत एवं आठ प्रकार के कर्मों के समाधि की विवेचना की गई है। द्वितीय अध्ययन शबल की नियुक्ति क्षय को भावधूत बताया गया है। सप्तम अध्ययन व्यवच्छिन्न में चार निक्षेपों के आधार पर शबल की व्याख्या करते हुए अपार है। अष्टम अध्ययन विमोक्ष के आठ उद्देशक हैं। विमोक्ष का से भिन्न अर्थात् गिरे व्यक्ति को भावशबल कहा गया है। नामादि छ: प्रकार का निक्षेप करते हुए भावविमोक्ष के देशविमोक्ष तृतीय अध्ययन आशातना की निर्यक्ति में मिथ्या प्रतिपादन व सर्वविमोक्ष दो प्रकार बताए गए हैं। साधु देशविमुक्त एवं सम्बन्धी एवं लाभ सम्बन्धी दो आशातना की चर्चा की गई है। सिद्ध सर्वविमुक्त है।६७ गणिसम्पदा नामक चतुर्थ अध्ययन में गणि एवं संपदा नवम् अध्ययन उपधानश्रुत में नियुक्तिकार ने बताया है पदों की व्याख्या करते हुए "गणि" व "गुणी" को एकार्थक कि तीर्थंकर जिस समय उत्पन्न होता है, वह उस समय अपने बताया गया है। आचार को प्रथम गणिस्थान दिया गया है, क्योंकि तीर्थ में उपधानश्रुताध्ययन में तपः कर्म का वर्णन करता है।६८ इसके अध्ययन से श्रमणधर्म का ज्ञान होता है। संपदा के द्रव्य व उपधान के द्रव्योपधान एवं भावोपधान दो भेद किए गए हैं। भाव दो भेद करते हए आचार्य ने शरीरसंपदा को द्रव्यसंपदा एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध - प्रथम श्रुतस्कन्ध में जिन विषयों पर आचारसंपदा को भावसंपदा का नाम दिया है।७३ । चिन्तन किया गया है, उन विषयों के सम्बन्ध में जो कुछ चित्तसमाधिस्थान नामक पंचम अध्ययन की निर्यक्ति अवशेष रह गया था या जिनके समस्त विवक्षित अर्थ का अभिधान में उपासक एवं प्रतिमा का निक्षेपपर्वक विवेचन किया गया है। न किया जा सका, उसका वर्णन द्वितीय श्रुतस्कन्ध में है। इसे नित इस चित्त व समाधि की चार निक्षेपों के आधार पर व्याख्या करते अग्रश्रुतस्कन्ध भी कहते हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य हुए राग-द्वेषरहित चित्त के विशुद्ध धर्म- ध्यान में लीन होने की ८. व्यवहारनियुक्ति अवस्था को भावसमाधि कहा गया है। उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन में "उपासक" और "प्रतिमा" का निक्षेपपूर्वक चिन्तन करते हुए उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक एवं भावोपासक रूप चार भेदों एवं श्रमणोपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। सप्तम अध्ययन भिक्षुप्रतिमा का है। इसमें भाव - भिक्षु की समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा एवं एक विहारप्रतिमा का उल्लेख है। अष्टम अध्ययन की नियुक्ति में पर्युषणाकल्प का व्याख्यान किया गया है। परिवसना, पर्यूषणा, वर्षावास, प्रथमसमवरण आदि को एकार्थक कहा गया है। नवम अध्ययन मोहनीय स्थान का है, जिसमें मोह नामादि भेद से चार प्रकार का है। पाप, वैर, वर्ज्य, पंक, उत्साह, संग आदि मोह के पर्यायवाची हैं, ऐसा उल्लेख किया गया है। अजातिस्थान नामक दशम अध्ययन में अजाति अर्थात् जन्म-मरण से विमुक्ति - मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, का विशद विवेचन किया गया है। ७. बृहत्कल्पनिर्युक्ति यह निर्युक्तिभाष्यमिश्रित अवस्था में मिलती है। सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है । ७४ तदुपरान्त ज्ञान और मंगल में कथंचित भेद - अभेद करते हुए ज्ञान के विविध भेदों का निर्देश दिया गया है। मंगल के नाममंगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल एवं भावमंगल की निक्षेप-पद्धति से व्याख्या करते हुए अनुयोग, उपक्रम, अनुगम और नय इन चार अनुयोगद्वारों की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त नियुक्तिकार ने सपरिग्रहअपरिग्रह, जिनकाल्पिक एवं स्थविरकाल्पिक के आहार-विहार की चर्चा करते हुए आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण करने से लगने वाले दोषों का स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त के साथ दिग्दर्शन कराया है। साथ ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र की रक्षा और वृद्धि के लिए आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण की आज्ञा एवं संप्रतिराज के दृष्टान्त से उसके समर्थन का भी उल्लेख मिलता है । यह निर्युक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहल्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है CommEMÉÉÉÉ बृहत्कल्प में श्रमणजीवन की साधना का जो शब्द - चित्र प्रस्तुत किया गया है एवं उत्सर्ग व अपवाद का जो विवेचन किया गया, उन्हीं विषयों पर व्यवहार में भी चिन्तन किया गया है। यही कारण है कि व्यवहारनिर्युक्ति में अधिकतर उन्हीं अथवा उसी प्रकार के विषयों का विवेचन है जो बृहकल्पनियुक्ति में उपलब्ध हैं। अतः ये दोनों नियुक्तियाँ एक-दूसरे की पूरक हैं । For Private ९. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति एवं १०. ऋषिभाषितनियुक्ति अनुपलब्ध हैं, जिनकी अन्य निर्युक्तियों के साथ संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा करेंगे। अन्य नियुक्तियाँ- उपलब्ध इन आठ नियुक्तियों के अतिरिक्त कुछ और नियुक्तियाँ भी हैं, जो निम्न हैं संसक्तनिर्युक्ति - यह निर्युक्ति किस आगम पर लिखी गई है, इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। कितने ही विद्वान् इसे भद्रबाहु की रचना मानते हैं, कितने उनके बाद के किसी आचार्य की रचना मानते हैं। चौरासी आगामों में इसका भी उल्लेख है। निशीथनिर्युक्ति - यह नियुक्ति एक प्रकार से आचारांगनिर्युक्ति का एक अंग है, क्योंकि आचारांगनिर्युक्ति के अन्त में स्वयं निर्युक्तिकार ने लिखा है कि पंचमचूलिकानिशीथ की नियुक्ति मैं बाद में करूँगा । ७७ यह नियुक्ति निशीथभाष्य में इस प्रकार से समाविष्ट की गई है कि इसे अलग नहीं किया जा सकता, इसमें मुख्य रूप से श्रमणाचार का उल्लेख है । गोविन्दनियुक्ति - इस नियुक्ति में दर्शन सम्बन्धी मन्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। आचार्य गोविन्द ने एकेन्द्रिय जीवों की संसिद्धि के लिए इसका निर्माण किया था। यह किसी एक आगम पर न होकर स्वतन्त्र रचना है। बृहकल्पभाष्य, आवश्यकचूर्णि एवं निशीथचूर्णि में इसका उल्लेख मिलता है। यह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। आराधनानिर्युक्ति - यह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। चौरासी आगामों में “आराधनापताका" नामक एक आगम है, संभव है यह नियुक्ति उसी पर हो । मूलाचार में वट्टकेरस्वामी ने इसका उल्लेख किया है। 1 60 16 Personal Use Only ট Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य ऋविभाषितनियुक्ति - चौरासी आगमों में ऋषिभाषित का भी १२. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ९४-१०३ नाम है। प्रत्येक बद्ध द्वारा भाषित होने से यह ऋषिभाषित के १३. वही. गाथा ४५९ नाम से विश्रुत है। इस पर भी भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी थीं पर १४. वही, गाथा ५९४ वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। १५. वही, गाथा ८८१ सूर्य ज्ञप्तिनियुक्ति - यह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, परन्तु १६. वही, गाथा १०२३-१०३४ आचार्य मलयगिरि की वृत्ति में इसका नाम-निर्देश हुआ है। १७. वही, गाथा १०३५ इसमें सूर्य की गति आदि ज्योतिषशास्त्र · सम्बन्धी तथ्यों का १८. वही, गाथा १०५९ सुन्दर निरूपण हुआ है। १९. वही, गाथा १०६४ इनके अतिरिक्त पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति एवं २०. वही, गाथा १०६६-६८ पंचकल्पनियुक्ति स्वतन्त्र ग्रंथ न होकर क्रमशः दशवैकालिक, २१. वही, गाथा १०८७-८९ आवश्यक और बृहत्कल्पनियुक्ति की ही सम्पूरक हैं। २२. वही, गाथा ११०-११ इस प्रकार जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट पारिभाषिक २३. वही, गाथा ११४५-४७ शब्दों की स्पष्ट व्याख्या जो नियुक्तिसाहित्य में हुई है वह अपूर्व २४. वही, गाथा ११६७-१२०० है। इन्हीं व्याख्याओं के आधार पर बाद में भाष्यकार, चूर्णिकार २५. वही, गाथा १०२४ एवं वृत्तिकारों ने अपने अभीष्ट ग्रन्थों का सृजन किया है। नियुक्तियों २६. वही, गाथा १२२३ की रचना करके भद्रबाहु ने जैनसाहित्य की जो विशिष्ट सेवा की २७. स्वस्थानात्यत्परस्थानं प्रमादस्य वशादगहः । तत्रैव क्रमणं है वह जैन आगमिक-क्षेत्र में सवर्था अविस्मरणीय है। भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते। सन्दर्भ-ग्रन्थ - आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२३६ २८. वही, गाथा १२३८ १. अनुयोगद्वार, पृ. १८ और आगे २९. वही, गाथा १२४४-४६ २. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८८ ३. वही, गाथा ८३ ३०. वही, गाथा १२६८ निश्चयेन अर्थप्रतिपादिका युक्तिनियुक्ति : आचारांगनियुक्ति ३१. वही, गाथा १२६९-१२७३ १/२/१ ३२. वही, गाथा १४४७ उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ. ५०-५१ ३३. वही, गाथा १४५३ D. Ghatge, Indian Historical Quarterly, Vol. 12, P. 270 ३४. वही, गाथा १४५४-५५ वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिमसगलसुयनाणिं.। ३५. वही, गाथा १४५८ सुत्तस्स कारगमिसि दयासु कप्पे य ववहारे ।। ३६. वही, गाथा १५३६-३८ - दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति ,१ ३७. वही, गाथा १५३९-४० आवश्यकनियुक्ति , गाथा ७९-८६ ३८. वही, गाथा १५४१-४२ गणधरवाद प्रस्तावना, पृ. १५-१६ . ३९. वही, गाथा १५४५ आवश्यकनियुक्ति, गाथा १७-१९ ४०. वही, गाथा १५५० सामाइयमाइयाई एक्कारस्स अहिज्जइ। - अन्तः कृतदशांग ४१. (क) दशवैकालिकनियुक्ति, हरिभद्रीयविवरणसहित : प्रथमवर्ग। प्रकाशक-देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, १९१८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य (ख) नियुक्ति व मूल : सम्पादक E. Leumann Z DMG 59. वही, गाथा 9 भाग 46, पृ. 589-663 60. वही, गाथा 16-17 42. दशवैकालिक-नियुक्ति, गाथा 12-15 61. वही, गाथा 11 43. वही, गाथा 26-148 62. वही, गाथा 175 44. वही, गाथा 152-177 63. वही, गाथा 197-213 45. वही, गाथा 178-215 64. वही, गाथा 214-215 65. वही, गाथा 244 47. वही, गाथा 232-244 66. वही, गाथा 249-250 48. वही, गाथा 245-262 67. वही, गाथा 257-259 49. वही, गाथा 269-286 68. वही, गाथा 275 50. वही, गाथा 287-294 69. वही, गाथा 297 51. वही, गाथा 309-322 70. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 18-20 52. वही, गाथा 328-347 71. वही, गाथा 127-131 53. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 5-7 72. दशाश्रुतनियुक्ति, 1 54. वही, गाथा 12-26 73. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 121 55. शास्त्री विजयमुनि, आगम और व्याख्या साहित्य एक 74. वृहत्कल्पनियुक्ति, गाथा 1 परिशीलन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा १९६४,पृ. 60 75. वही, गाथा 3-5 56. वही, पृ. 61 76. वही, गाथा 3271, 3289 57. आचारांगनियुक्ति, गाथा 1 77. पंचमचूलनिसीह तस्स स उगरि भणी हामि। 58. वही, गाथा 8 आचारांगनियुक्ति, गाथा 347 DoorprisindidroidrsanitariuoroubrainboxinduindiabuloudM82 drdasudministratimdubairandardnardwaraniuiridihiand