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नियुक्तिसाहित्य : एक परिचय
डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी....
आगम-साहित्य के गुरु गंभीर रहस्यों के उद्घाटन के लिए १. मूलनियुक्ति अर्थात् जिसमें काल के प्रभाव से कुछ निर्मित व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भी मिश्रण न हुआ हो। जैसे - आचारांग और सूत्रकृतांग की स्थान है। जैन-आगम-साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो नियुक्तियाँ। पद्यबद्ध टीकाएँ लिखी गई वे ही नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। २.वे निर्यक्तियाँ जिनमें मलभाष्यों का सम्मिश्रण हो गया निर्यक्तियों में मलग्रन्थ के पद पर व्याख्या न करके, मुख्य रूप है तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं। जैसे - दशवैकालिक व से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। नियुक्तियों की
आवश्यकनियुक्तियाँ। व्याख्या-शैली, निक्षेप-पद्धति की है। निक्षेप-पद्धति में किसी
३. वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य या बृहद्भाष्य में एक पद के संभावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता
समाविष्ट हैं, इनके मूल और भाष्य में इतना सम्मिश्रण हो गया है है। यह पद्धति जैन-न्यायशास्त्र में अत्यधिक प्रिय रही है। इस
कि उन दोनों को पृथक् करना दुष्कर है। जैसे-निशीथ आदि की शैली का प्रथम दर्शन हमें अनुयोगद्वार में होता है। नियुक्तिकार
नियुक्तियाँ। भद्रबाहु ने नियुक्ति के लिए यही पद्धति प्रशस्त मानी है। नियुक्ति यह विभाजन वर्तमान में प्राप्त निर्यक्तिसाहित्य के आधार का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है - "एक ही शब्द के पर किया गया है। अनेक अर्थ होते हैं, कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त रचनाकाल - निर्यक्तियों के काल निर्णय के सम्बन्ध में विद्वानों है. श्रमण महावीर के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द में मतैक्य नहीं है. फिर भी उनका रचनाकाल विक्रम संवत से सम्बद्ध रहा है, प्रभृति बातों को लक्ष्य में रखकर अर्थ का ३०० से १०० के मध्य माना जाता है। सम्यक् रूप से निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के
नियुक्तिकार - जिस प्रकार महर्षि यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का कार्य है।
शब्दों की व्याख्या करने के लिए निघण्टुभाष्य रूप निरुक्त दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध
लिखा, उसी प्रकार जैनागमों के पारिभाषिक शब्दों के व्याख्यार्थ बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है-- "सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं
आचार्यभद्रबाहु द्वितीय ने नियुक्तियों की रचना की। ध्यातव्य है सम्बन्धनं नियुक्ति:"३ अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन
कि नियुक्तिकार आचार्यभद्रबाहु, चतुर्दशपूर्वधर, छेदसूत्रकार, करने वाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं।'
भद्रबाहु से पृथक् हैं, क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाहु ने अनेक प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् शान्टियर ने नियुक्ति की व्याख्या
स्थलों पर छेदसूत्रकार श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया करते हुए लिखा है “नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल
है। यदि छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार एक ही भद्रबाहु होते तो इंडेक्स का कार्य करती हैं - वे सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों साल
नमस्कार का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि कोई भी समझदार का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।
ग्रन्थकार अपने आपको नमस्कार नहीं करता है। इस संशय का अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन प्रकार बताए गए हैं एक कारण यह भी है कि भद्रबाहु नाम के एक से अधिक - १. निक्षेपनिर्गक्ति, २. उपोदघातनिर्गक्ति . ३. आचार्य हुए हैं। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार चतुर्दशपूर्वधर सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति। ये तीनों भेद विषय की व्याख्या पर आधारित आचार्यभद्रबाहु नेपाल में योगसाधना के लिए मये थे, जबकि हैं। डॉ. घाटगे ने नियुक्तियों को निम्न तीन भागों में विभाजित दिगम्बर मान्यता के अनुसार यही भद्रबाहु नेपाल में न जाकर किया है -
दक्षिण में गए थे। इन दोनों घटनाओं से यह अनुमान हो सकता है acroririrawhniwomowondwarorondomobrowbrowdniroinor-७४ Horomirironiroinomiadiomowondinirbird-ord-wariwariworar
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