Book Title: Nemichandra Acharya ki Khagol vidya evam Ganit Sambandhi Manyataye
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 15
________________ लक्ष्मीचन्द्र जैन और सिद्ध किया। निस्सन्देह उन्हें तत्कालीन उच्चकोटि के गणितज्ञों से बड़ा कड़ा संघर्ष करना पड़ा। आज जार्ज केन्टर को राशि सिद्धान्त के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है और इसका आज इतना विकास हुआ है तथा उपयोग हुआ है कि कोई विज्ञान न तो इससे अछूता है न ही इसके बिना आधारित है। अनन्त से बड़े अनन्त का अस्तित्व सिद्ध करना एक दृष्टि से सरल है, किन्तु अनन्त से बड़ा अनन्त निर्मित कर दिखाना कठिन है। केन्टर ने एक विधि बतलाई, जिससे बड़ा अनन्त उत्पन्न किया जा सके, किन्तु दो अनन्तों के बीच कौन सा अनन्त है, यह वह न दिखा सके । किन्तु जैनागम में धाराओं द्वारा प्रायः सभी प्रकारों के प्रमुख अनन्तों की क्रमवार स्थिति नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार में उपलब्ध है । ऐसा वर्णन और कहीं उपलब्ध नहीं है । परिमित संख्याओं को क्रमवार स्थिति दिखाना सरल है, किन्तु किसी धारा ( sequence ) में क्रमशः आने वाले अनन्तों की स्थिति दिखाना एक बहुत ही बड़े बुनियादी कार्य का परिणाम हो सकता है। उदाहरणार्थ, द्विरूपवगंधारा(२१)में आने वाले संख्येय, असंख्येय अनन्त विशेषता लिये हुए n पद वृद्धिगत में क्रमशः जघन्य परीतासंख्यात, आवली, पल्य, अंगुल, जगश्रेणी का घनमूल, जघन्य परीतानन्त, अभव्य जीव राशि, सर्वजीव राशि, सर्व पुद्गल राशि, सर्वकाल राशि, श्रेण्याकाश एवं प्रतराकाश प्रदेशराशि, धर्माधर्मद्रव्य-अगुरलघु-अविभाग-प्रतिच्छेद-राशि, एकजीव-अगुरलवु-अविभागप्रतिच्छेद-राशि, जघन्य-ज्ञान-अविभाग-प्रतिच्छेद राशि, जघन्य-क्षायिक लब्धि (सम्यक् दर्शन ) अविभाग राशि प्रतिच्छेद राशि और केवल ज्ञान अविभाग प्रतिच्छेद राशि और बीच की राशियों सहित प्रकट होती है । फर्मा ( १६०१-१६५५ ) गणितज्ञ ने.२०+१ संख्याओं की (n के विभिन्न मानों के लिए ) विशेषता पर कार्य किया था। __इसी प्रकार दिव्यरूपचन धारा (३.(२)-१ ) में आवलिघन, पल्य, घन, जगश्रेणी प्रदेश राशि, जीवराशि धन, सर्वाकाश (तथा बीच की संख्याएँ) प्राप्त होती हैं । यथा, पल्य वर्गशलाका धन, पल्य अर्थच्छेद घन आदि भी। द्विरूप घनाघन धारा में लोकाकाश प्रदेशराशि, तैजास्कायिक जीवराशि, गुणकार शलाका राशि, तेजस्कायिक जीवराशि, तैजस्कायिक स्थिति, अवधिनिबद्ध उत्कृष्ट क्षेत्र, स्थितिबद्ध प्रत्यय स्थान, रसाबंधाध्यवसाय स्थान, निगोद जीव काय उत्कृष्ट संख्या, निगोद काय स्थिति, सर्वज्येष्ठ योग उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद आदि राशियाँ प्राप्त होती हैं। इसमें थोड़ा सा अन्तर दृष्टव्य है : ३ (२)-१ उपर्युक्त धारायें द्विरूप ( dyadic ) हैं, जिन पर केन्टर द्वारा गहन कार्य किया गया था। केन्टर के अनुसार यदि No कोई अनन्तात्मक संख्या हो तो उससे बड़ी अनन्तात्मक संख्या होगी। इसमें संचय का भेद छिपा हुआ है। जैसे ६४ अक्षरों से बनने वाले पदों को कुल संचय संख्या (२)६४-१ होगी। ___ आज के सभी विज्ञानों में सर्वाधिक महत्त्व उस विधि का है, जो जघन्य ( minimal ) और उत्कृष्ट (maximal) पर आधारित है। जैन आगम में गति समय, प्रदेश, ज्ञान आदि प्रत्येक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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