Book Title: Nemichandra Acharya ki Khagol vidya evam Ganit Sambandhi Manyataye
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ९५ इस प्रकार ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जो मान की इकाईयों द्वारा मापी न जा सकी हो । द्रव्यमान के तीन भेद थे - संख्येय, असंख्येय और अनन्त । ये गणना- उपयोग में आते थे । सविस्तार इनके भेद बनाये गये, इनमें राशियाँ पिरोई गईं तथा असंख्येयता और अनन्तता का वास्तविक गुण निर्मित किया गया । वोरसेन ने अनन्त उस राशि को संज्ञा दी, जो अनन्तकाल तक व्यय होते हुए भी समाप्त न हो । यथा, मिध्यादृष्टि जीव राशि अनादिकाल द्वारा समाप्त नहीं हो पाई है, यद्यपि भव्य मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा उस राशि का व्यय जारी रहा । निम्नलिखित सारणी से स्पष्ट होगा कि संख्यामान के रूप क्या थे ? जघन्य संख्येय संख्येय मध्यम संख्येय परीत - अनन्त Jain Education International उत्कृष्ट संख्येय संख्यामान असंख्येय परीत- असंख्येय युक्त असंख्येय असंख्येय-असंख्येय युक्त - अनन्त ד जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य अनन्त For Private & Personal Use Only I मध्यम उत्कृष्ट अनन्त अनन्त जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट पूर्व परम्परानुसार नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त, भावानन्त और शाश्वतानन्त में से यह गणनानन्त की रूप रेखा है । उत्कृष्ट संख्यात श्रुत केवली का विषय बनता है, संभवतः जितना कुछ प्रतीकों, शब्दों आदि से समझा जाता हो । उत्कृष्ट असंख्येय अवधिज्ञानी का विषय बनता है, जो रूपी पदार्थों के रूप से सम्बन्धित हो सकता है - जितने रूप दूरियों में समाये हों, वे अवधि ज्ञानी के लिए उत्कृष्ट असंख्येय तक बन पाते होंगे । अनन्तानन्त केवल ज्ञानी का विषय बनता है, जिसमें कोई भी ज्ञान का अंश नहीं छूट पाता होगा ।" संख्यामान का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है-अनन्तों के अल्पबहुत्व का । क्या अनन्त से बड़ा अनन्त होता है ? क्या अनन्त के बराबर दूसरा अनन्त तथा किसी अनन्त से छोटा अनन्त भी होता है ? इन सभी प्रकार के अनन्तों का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है और संख्याओं में इनके अस्तित्व को जार्ज केन्टर ( १८४५-१९१८ ) ने १८६४ के बाद के शोध पत्रों में लगातार बतलाया १. देखिये तिलोपणती का गणित, पृ० ५५-६२ । www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16