Book Title: Nayavichara
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 6
________________ जितेन्द्रबी. शाह Nirgrantha से सत् का स्वीकार एवं अस्वीकार है। इन दो शब्दों के संयोजन से ही बारह भेद किए गए है। इसमें उस युग के समस्त भारतीय दर्शनका समावेश किया गया है। प्रथम चार अर में सत् को नित्य मानने वाले दर्शनों का समावेश किया है। उभयादि चार अर में सत् को नित्यानित्यात्मक मानने वाले दर्शनों का और अन्तिम चार अर में सत् को अनित्य मानने वाले दर्शनों का समावेश किया गया है । यद्यपि ग्रंथकार ने स्वयं कहा है कि विधि आदि शब्द आगम में से ही उद्धृत किया है, परंतु विधिनियम शब्द का प्रयोग करके नयों का विभाजन करने की शैली जैन दर्शन के उपलब्ध साहित्य में अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर होती नहीं है। तत्कालीन समस्त दर्शनों को जैनदर्शन में समाविष्ट करने के लिए ही ग्रन्धकार ने विधिनियम शब्दका प्रयोग करके बारह अर का विवेचन किया है, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रकार जैन दर्शन में नयों का क्रमिक विकास हुआ है किन्तु द्वादशार-नयचक्र में प्रयुक्त शैली एवं नयों के नाम नयचक्र के पूर्ववर्ती या परवर्ती साहित्यमें उपलब्ध नहीं होते। संदर्भसूची:१. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । हेमचन्द्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका श्लो० २२; सं० मुनिश्री सूर्योदयविजयजी, चंदननी सुवास, श्री श्वे० मू० पू० जैन संघ, कराड सं० २०२०, पृ० २४१. २. नयो ज्ञातुरभिप्राय: लघीयस्त्रयी, श्लो० ५५; सं० महेन्द्रकुमार शास्त्री, सरस्वती पुस्तक भंडार, अहमदाबाद १९९६, ज्ञातृणामभिसन्धयः खतु नयाः । पृ० १०. सिद्धिविनिश्चय टीका, भट्ट अकलंक, सं० महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९४४, पृ० ५१७. ३. अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति-प्रापयति संवेदनमारोहयतीति नयः ।। न्यायावतास्वार्तिकवृत्ति, शान्तिसूरि, प्रथमावृत्ति, ___ सं० पं० दलसुख मालवणिया, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई १९४९, पृ०७३. ४. सन्मतिप्रकरण भा० ४, सं० पं० सुखलाल संघवी - पं० बेचरदास दोशी, गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद १९३२, ३.४७. ५. सन्मतिप्रकरण - १.४-५. ६. महेन्द्रकुमार जैन, जैन दर्शन, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी १९७४. पृ० ३५१-३५४. ७. न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, पृ० २२. ८. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दानया:॥ तत्त्वार्थसूत्र १.३४, सं० पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी १९७६. ९. सन्मतिप्रकरण - १.४-५. १०. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दनयाः । तत्त्वार्थसूत्र १, ३४. ११. द्वादशारं नयचक्रं, सं० मुनि जम्बूविजय, श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर १९८८, भा० १, पृ० १०. १२. सप्तशतारनयचक्राध्ययने । द्वादशारं-नयचक्रं, पृ०८८६. १३. छारिया णं भंते ! पुच्छा ! गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, तं जहा-नेच्छिइयनए च वावहारियनए य। वियाहपण्णतिसुतं, सं० पं० बेचरदास दोशी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९७८, पृ० ८१४. १४. न्यायावतारवार्त्तिकवृत्ति, "प्रस्तावना", पृ० २२. १५. तित्थयरवयणसंगह-विसेस पत्थार मूलवागरणी। दब्बठिओ य पजवणओ य सेसा विकप्पा सिं। सन्मतिप्रकरण १.३. १६. सन्मतिप्रकरण भा० १, पृ० २. १७. फाणियगुले णं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते ? गोयमा ! एत्थं दो नया जवंति, तं जहा-नेच्छयियनए य वावहारियनए य। वावहारियनयस्स गोडे फालियगुले, नेच्छइय नयस्स पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, अट्ठफासे पन्नते। वियाहपण्णत्ति भा० २, पृ०८१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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