Book Title: Nayavichara Author(s): Jitendra B Shah Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 1
________________ नयविचार जितेन्द्र बी० शाह निर्ग्रन्थ दर्शन में वस्तु तत्त्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। प्रत्येक वस्तु अनेकानेक भावात्मक और अभावात्मक गुणधर्मों से युक्त होती है। इतना ही नहीं अपितु वस्तु में परस्पर विरोधी गुणधर्म भी एक ही समय में पाए जाते हैं। वस्तु की यह अनन्तधर्मात्मकता ही अनेकान्तवाद का तात्त्विक आधार हैं। वस्तु में अनेक गुणधर्मों के होने पर भी जब उसका कथन करना होता है तब किसी एक धर्म को, किसी एक अपेक्षा विशेष को प्रमुख बनाकर कथन किया जाता है। वस्तु के विविध पक्षों में जब किसी एक पक्ष को ही प्रधान बनाकर हम कथन करते हैं तब वस्तुत: अन्य पक्षों या गुणधर्म का अभाव नहीं हो जाता । इस अनन्तधर्मात्मक वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए किसी ऐसी कथन-शैली की आवश्यकता होती है जो वस्तु के किसी एक गुणधर्म का विधान करते हुए अन्य गुण धर्मों का निषेध न करे । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वस्तु के सम्बन्ध में जो सापेक्षित कथन किया जाता है वह किसी अभिप्राय-विशेष या दृष्टिकोण-विशेष को ध्यान में रखकर किया जाता है। वक्ता का यह अभिप्राय-विशेष किंवा दृष्टिकोण-विशेष ही नय कहलाता है। तदतिरिक्त जिस अपेक्षा के आधार पर वस्तु के अनन्तगुणधर्मों में से किसी एक गुणधर्म का विधान या निषेध किया जाता है वह नय कहलाता है । नय का सम्बन्ध वस्तु की अभिव्यक्ति की शैली से है। इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतिप्रकरण (प्रायः ईस्वी सन् की पांचवीं शती का पूर्वार्द्ध) में कहा है कि : जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥ अर्थात् कथन की जितनी शैलियां या जितने वचन-पथ होते हैं उतने ही नयवाद होते हैं एवं जितने ही नयवाद होते हैं उतने ही पर-समय अर्थात् परदर्शन होते हैं। इस आधार पर यह सिद्ध होता है कि नयों की संख्या अनन्त है। क्योंकि वस्तु के अनंत गुणधर्मों की अभिव्यक्ति हेतु विविध दृष्टिकोणों का सहारा लेना पड़ता है। यह सभी विशेष दृष्टिकोण नयाश्रित ही होते हैं। जैन दर्शन में नयों की चर्चा विभिन्न रूपों में की गई है। सर्वप्रथम आगमयुग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से वस्तु का विवेचन उपलब्ध होता है। वस्तु के द्रव्यात्मक या नित्यत्व को जो अपना विषय बनाता है उसको 'द्रव्यार्थिक-नय' कहा जाता है । इसके विपरीत वस्तु के परिवर्तनशील पक्ष को जो नय अपना विषय बनाता है, वह नय 'पर्यायार्थिक-नय' कहलाता हैं । फिर प्रतीति एवं यथार्थता के आधार पर भी प्राचीन आगमों में दो प्रकार के नयों का उल्लेख मिलता है। जो नय वस्तु के मूलभूत स्वाभाविक स्वरूप को अपना विषय बनाता है उसे हम “निश्चयनय" और जो नय वस्तु के प्रतीतिजन्य विषय को अपना विषय बनाता है उसे “व्यवहारनय" कहा गया है। प्राचीन आगमों में मुख्य रूप से इन्हीं दो प्रकार के नयों की चर्चा हुई है। कभी-कभी व्यवहारनय या द्रव्यार्थिक नय को अव्युच्छित्ति-नय तथा पर्यायार्थिक-नय या निश्चयनय को व्युच्छित्ति-नय भी कहा गया है। नयों के इस द्विविध विवेचन के पश्चात् हमें अन्य वर्गीकरण भी उपलब्ध होते हैं । उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (प्राय: ईस्वी ३५०) में नेगमादि पांच मूल नयों का उल्लेख किया है । सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतिप्रकरण में नैगमनय को छोड़कर छ: नयों की चर्चा की हैं। तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर टीकाकार एवं कुछ अन्य आचार्य सात नयों की चर्चा करते है । द्वादशार-नयचक्र में ग्रन्थकर्ता मल्लवादी (ई० ५५०-६००) ने बारह नयों अर्थात् दृष्टिकोणों को आधार बनाकर चर्चा की है। इन विभिन्न नयों और इनके विभिन्न संयोगों के आधार पर किसी आचार्य ने सात सौ नयों की चर्चा की थी। सप्तशतार-नयचक्र नामक ग्रंथ में इन्हीं सात सौ नयों का उल्लेख किया गया था, ऐसा उल्लेख द्वादशार-नयचक्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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