Book Title: Navtattva Prakarana with Meaning
Author(s): Chandulal Nanchand Shah
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
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मइ इंदिए अ काए जोए वेए कसाय नाणे अ। संजम दंसण लेसा, भव सम्मे सन्नि आहारे ॥४५॥ नरगइ पणिदितस भव, सन्नि अहक्खाय खइअसम्मत्ते । मुक्खोऽणाहार केवल-दंसणनाणे न सेसेसु ॥४६॥ दव्वपमाणे सिद्धाण, जीवदव्वाणि हुंतिऽणताणि । लोगस्स असंखिज्जे, भागे इको य सव्वेवि ॥४७॥ फुसगा अहिया कालो, इग-सिद्ध-पडुच्च साइओणतो । पडिवायाऽभावाओ, सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥४८॥ सबजियाणमणते, भागे ते तेसिं दंसणं नाणं ।
खइए भावे परिणा-मिए अ पुण होइ जीवत्तं ॥ ४९ ॥ थोवा नपुससिद्धा, थी नर सिद्धा कमेण संखगुणा । इअ मुक्खतत्तमेअं नवतत्ता लेसओ भणिआ ॥ ५० ॥ जीवाइ नव पयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहतो, अयाणमाणेऽवि सम्मत्तं ॥५१॥ सच्चाई जिणेसर-भासियाई वयणाई नन्नहा हुति । इइ बुद्धि जस्स मणे, सम्मत्तं निच्चलं तस्स ॥ ५२ ॥ अंतोमुहुत्तमित्त-पि फासिय हुज्ज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपुग्गल-परिअट्टो चेव संसारो ॥ ५३॥ उस्सप्पिणी अणंता, पुग्गलपरियट्टओ मुणेयव्यो । तेऽणंताऽतीअद्धा, अणागयद्धा अणंतगुणा ॥५४ ॥ जिणअजिणतित्थऽतित्था, गिहि अन्नसलिंग थी नर नपुसा । पत्तेय सयंबुद्धा, बुद्धबाहिय इक्कणिका य ॥५५॥
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