Book Title: Nari ka Udattarup Ek Drushti
Author(s): Prakashchandra
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 8
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ "अर्थात्-हे अयश की कामना करने वाले । तुझे धिक्कार है, जोकि तू असंयत जीवन के कारण से वमन किये हुए को पीने की इच्छा करता है । इससे तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है।' 'मैं उग्रसेन की पुत्री हूँ और तुम समुद्रविजय के पुत्र हो । हम दोनों को गन्धन कुल के सों के समान न होना चाहिए। अतः तुम निश्चल होकर संयम का आराधन करो।' इस वचनों के फलस्वरूप रथनेमि की जो स्थिति बनी, वह इस प्रकार है 'तीसे सो वयणं सोच्चा, संजईए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइआ । उत्तरा० २२/४७ "रथनेमि ने संयमशील राजमति के पूर्वोक्त सुभाषित वचनों को सुनकर अंकुश द्वारा मदोन्मत्त हस्ती की तरह अपने आत्मा को वश में करके फिर से धर्म में स्थित कर लिया। जैन धर्म दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान एवं विपुल रूप से दार्शनिक ग्रन्थों के रचयिता थी हरिभद्रसूरि आचार्य ने महासती महत्तरा याकिनी से प्रतिबोध प्राप्त किया था। प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों ही समय में अनेक साध्वी-रूमा नारियों ने भवि जीवों को सद्बोध से बोधित कर धर्मोपदेशिका के रूप को प्रकट किया है। शान्ति की अग्रदूता नारी प्रायः कहा जाता है कि इस जगत में ३ वस्तुएँ विग्रह को उत्पन्न करने वाली हैं-जर, जोरु और जमीन। किन्हीं अर्थों और सन्दर्भो में सही भी हो सकती है यह बात । पर नारी ने विश्व समुदाय को विग्रह से मुक्त भी कराया है। इस बात से हम अनभिज्ञ नहीं होकर भी अनभिज्ञ ही हैं। नारी में निर्माणक शक्ति भी है, सृजनात्मक शक्ति भी है और विनाशात्मक शक्ति भी। तीनों ही रूपों में नारी को हम देख सकते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में हमें नारी की निर्माणक और सृजनात्मक शक्ति को देखना है। जैन कथानकों में महासती मृगावती की कथा आती है। मृगावती एक समय युद्ध भूमि के मैदान में दिखाई देती है। वहाँ वह विग्रहकी के रूप में नहीं अपितु सन्धि एवं शान्ति की के रूप में दिखाई पड़ती है। युद्धरत दो राजाओं को, जोकि भाई-भाई ही थे किन्तु इस बात से वे अनजान थे और उनकी माता मृगावती ही थी-वह उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराकर वीतराग-वाणी का पान कराती है। फलस्वरूप युद्ध स्थगित होकर शान्ति की शहनाइयाँ गूंज उठती हैं। यह है नारी की शान्तिदूता के रूप में स्थिति । और भी अन्य उदाहरण मिल सकते हैं । .... .. BIH २५२ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान www.jaine

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