Book Title: Nari ka Udattarup Ek Drushti Author(s): Prakashchandra Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 7
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । iiiiiiiiiiiiiiiiiii HREE ::::::: iiiiiiiiiHHHHHHHHHHHHHHHH जैन धर्म में २४ तीर्थंकरों के विशाल साध्वी समुदाय का नेतृत्व २४ नारियों ने ही किया है। प्रथम तीर्थंकर के समय ब्राह्मी महासती थी और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के शासन में महासती वंदना हुई है। इन दोनों ने और बीच के २२ तीर्थंकरों के समय की २२ महासतियों ने बड़ी कुशलता से विशाल साध्वी समुदाय जो कि हजारों-लाखों की संख्या में था उनका नेतृत्व किया। इनके द्वारा किया गया नेतृत्व स्वयं के लिए भी कल्याणकारी था और साध्वी समुदाय के लिए भी। एक उदाहरण लें-महासती चंदना जी ने एक बार महासती नृगावती को उपालंभ दिया। इस उपालंभ के माध्यम से ही मृगावती और चंदना दोनों को ही केवलज्ञान उपलब्ध हो गया। धर्मोपदेशिका के रूप में यूं तो नारी माता के रूप में उपदेशिका/शिक्षिका रही ही है किन्तु आत्म-साधना के मार्ग में भी नारी स्वयं अपना ही आत्म-कल्याण नहीं करती अपितु अपने परिवार एवं अनेक भवि-जीवों को भी आत्म-साधना के पथ पर बढ़ाने में सहायक होती है। साधना-पथ में भी वह कुशल उपदेशिका का रूप ग्रहण कर वीतराग-वाणी का प्रसार करती हुई अनेक भव्य-जीवों को प्रशस्त पथ/साधना पथ पर आरूढ़ करती है । यथा-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की सुपुत्री साध्वी ब्राह्मी एवं सुन्दरी दोनों ने तपस्यारत अहं से ग्रसित अपने भाई बाहुबली को उपदेश देकर अहं रूपी हाथी से उतारकर केवलज्ञान रूपी ज्योति से साक्षात्कार कराया। 'वीरा म्हारा ! गज थकी नीचे उतरो ! गज चढ्या केवल नहीं होसी रे........."वीरा म्हारा........! ___ अहं के टीले पर चढ़कर किसी ने आज तक केवलज्ञान रूपी सूर्य को नहीं देखा/पाया। जिसने भी देखा/पाया उसने नम्रता/विनय से ही। ब्राह्मी-सुन्दरी के उद्बोधन से बाहुबली भी नम्रीभूत हुए और ज्यों ही उन्होंने चरण-न्यास किया, वे केवल-सूर्य से प्रभासित हो गये। ठीक इसी तरह का उपदेश साध्वी राजमति ने रथनेमि मुनि को भोगों की ओर मुड़ते देखकर दिया था। यथा धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वन्तं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥ ४२ ॥ अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ ४३ ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २२ नारी का उदात्त रूप-एक दृष्टि : मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' | २५१Page Navigation
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