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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
सिक्के तथा बिहार, मथुरा और भिटारी के उनके शिलालेख इस बात के साक्षी हैं' ।
चाल मंडल (कारामंडल ) तट पर बेंगी के पल्लवे के शिलालेखे से पता चलता है कि चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पल्लव राजाओं में भी भागवत धर्म का सम्मान था । गुजरात के वलभियों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है । उनके छठी शताब्दी के शिलालेख से यह बात स्पष्ट है । सातवीं शताब्दी में बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में पांचरात्र और भागवत दोनों का उल्लेख किया है !
शंकर -दिग्विजय के अनुसार शंकर को पांचरात्र और भागवत दोनों से शास्त्रार्थ करना पड़ा था । शंकर का समय कोई सातवीं शताब्दी मानते हैं और कोई नवीं ।
दक्षिण भारत में यह नारायणीय भागवत धर्म कब प्रचारित हुआ, इसका कोई स्पष्ट अनुमान नहीं किया जा सकता । हाँ, इतना कहा जा सकता है कि अत्यंत प्राचीन काल में ही वह वहाँ पहुँच गया था; और दसवीं शताब्दी में यद्यपि शैव धर्म के प्रमुख स्थान को वह नहीं छोन सका था, फिर भी बद्धमूल तो अवश्य है। गया था । तामिलभूमि के प्राव्वार संतों को हम इस शताब्दी से पहले ही पूर्ण वैष्णव पाते हैं । वैष्णव धर्म का अनुगमन वे केवल शब्दों द्वारा ही नहीं करते थे प्रत्युत वह उनके समस्त जीवन में
दियसपुत्रेण तखसिलाकेन येोनदूतेन
श्रागतेन महाराजस अंतलितस उपंता सकास
रजो कासिपुत्रस भागभद्रस ब्रातारस ।
(१) कनिंघम - 'शार्केलॉजिकल सर्वे', भाग १, प्लेट १७ और ३० ।
(२) 'इंडियन ऐंटिक्वेरी', भाग २, पृ० ११ और १७६ ।
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