Book Title: Mul Bhasha Me Ghus Pet Author(s): K R Chandra Publisher: K R Chandra View full book textPage 3
________________ गुजराती तेणे शुं कखुं छे । मारवाडी : उणरे कंई करणो है। अंब इन चार वाक्यों को कोई मिश्रित भाषा में उनकी खिचड़ी बनाकर बोले या लिखे तो क्या वह किसी एक भाषा की दृष्टि से शुद्ध माना जाएगा? उदाहरणार्थ(१) हम आ गामना रेवासी हो; अमे अण गांव के निवासी हो, में इस गोमरा रहेबासी छीओ। (२) तेरा शुं नोम छे; तारं क्या नाम है, धारं शुं नोम है। (३) मेरे माटे पोणी लाओ; मारा लिए पाणी लावो मारे हारुं पानी लावो ।. (४) उसे शुं करणो है; तेणे कंड करना है; उणरे क्या कबुं छे । अर्थ की दृष्टि से सही हो परंतु भाषिक दृष्टि से ये सब प्रयोग सही नहीं कहलाएंगे। आगम ग्रंथों की हस्तप्रतों में पाटान्तरों के जंगल को देखकर ही आगम प्रभाकर पू. मुनि श्री पुण्यविजयजी को 'कल्पसूत्र' की भूमिका में कहना पड़ा कि आगमों की अर्धमागधी भाषा खिचड़ी बन गयी है और मूल प्राचीन भाषा को खोज निकालना दुष्कर सा हो गया है। पू. महाप्रज्ञ युवाचार्यजी ने भी 'आगम सम्पादन की समस्याएं' में उचित ही कहा है कि यह सब (यानि पाठान्तरों का जंगल) हमारे प्रमाद के कारण ही हुआ हैं। इन अभिप्रायों से स्पष्ट है कि मूल प्राचीन भाषा की दृष्टि से आगमों के पुनः सम्पादन की आवश्यकता अभी भी बनी हुई ही है। विषय की स्पष्टता के लिए प्राचीनतम आगमग्रंथ 'आधारांग' के विभिन्न संस्करणों में जो पाठान्तर मिलते हैं उनमें से कुछ शब्दों के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं। स्पष्टतया के लिए 7 9 सूत्र महावीर जैन शब्रिंग नं. विद्यालय, महोदय, बम्बई जर्मनी अन्नतर णात भवति २ ३ लोगावादी 'शब्द और संस्करणों के नाम ७ भगवता १३ अहिताए १४ उदर २० विजहित्ता अन्नयर नाय भवइ लोगावाई भगवया अहियाए उयर विजहित्तु 112:: आगमोदय समिति महेसाणा अण्णयर णाय भवति लोयावादी भगवता अहिआए उदर वियहित्ता जैन विश्व भारती लाडनूं अण्णयर णात भवइ लोगावाई भगवया अहिआए उपर वियहित्तु माणसाया - गोम्मटेश्वर अंक दिल्ली हिन्दी अर्थ अर्थ अन्य कोई ज्ञात होता है संसारवादी भगवान के द्वारा अहितकारी पेट त्यागकर अलग अलग संस्करणों में ही पाठों की भिन्नता हो ऐसा ही नहीं है, एक ही संस्करण में एक ही शब्द के विभिन्न पाठ भी मिलते हैं। श्री महावीर जैन विद्यालय के 'आचारांग' के संस्करण के ही (ग्रंथ के अन्त में दी गयी शब्द-सूची के अनुसार) कुछ शब्द देखिए । १. यथा (जिस प्रकार ) २. एकदा ( एक बार) ३. लोके (संसार में) ४. क्षेत्रज्ञ (ज्ञानी) = जहा, अहा = एगदा, एगया = लोकसि, लोगंसि, लोयंसि = खेत्तण्ण, खेतण्ण, खेयण्ण हस्तप्रतों में तो पाठान्तर इतने अधिक प्रमाण में मिल रहे हैं कि आगम प्रभाकर पू. मुनि श्री पुण्यविजयजी ( कल्पसूत्र की प्रस्तावना) को उसे पाठान्तरों का जंगल ही कहना पड़ा। इस बात को स्पष्ट करने के लिए खंभात, पाटन, पूना, जेसलमेर, अहमदाबाद आदि में मिल रही 'आचारांग' की ताडपत्र और कागज की हस्तप्रतों में से कुछ प्रतों में से कुछ शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। हस्तप्रतों में उपलब्ध प्राकृत शब्द नं. संस्कृत शब्द यथा = जैसे एकदा = एक बार प्रवेदित = प्रतिपादित लोके = संसार में 9 २ ३ ४ * क्षेत्रज्ञ = ज्ञानी जया, जहा, अघा, अहा एकदा, एगदा, एगता, एगया पवेदित, पवेतित, पवेतिय (पवेइय) लोगस्सिं लोकसि, लोगसि, लोयसि, लोकम्मि, लोगमि, लोयमि खेत्तन्न, खेतन्न, खेदन्न, खेअन्न, खेयन्न, खेत्तण्ण, खेतण्ण, खित्तण्ण, खेदण्ण, खेअण्ण, खेयण्ण त केसाथ आगमों से कुछ और शब्दों के पाटभेद देखिए : मेधावी, मेहावी; अहिताए, अहियाए: अबोधीए, अबोहीए; सदा, सता सया अनितिय, अणिइय, अनिच्च, अणिच्च; नगर, नगर, नयर, णयर; अत्ता, आता, अप्पा, आया (आत्मा): भवितव्वं, भविदव्वं, भवियव्वं, इत्यादि । इस प्रकार एक ही संस्करण में या अलग अलग संस्करणों में तथा विभिन्न हस्तप्रतों में कालक्रम से और क्षेत्रान्तर के कारण बदलती हुई प्रचलित भाषाओं के प्रभाव के कारण जाने-अनजाने या अपने ही प्रमाद के कारण भगवान महावीर के उपदेशों की मूल अर्धमागधी भाषा को सुरक्षित बनाये रखने की तरफ उपेक्षा भाव' के कारण (उपलब्ध हो रहे संस्करणों में) भाषा का जो स्वरूप मिल रहा है वह प्राचीन अर्धमागधी के साथ सर्वत्र समानता नहीं रखता है। मूल प्राचीन अर्धमागधी भाषा को प्रस्थापित करने के लिए अत्यन्न परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता होगी। विभिन्न हस्तप्रनों में से भाषिक दृष्टि से प्राचीन णाणसावर गोम्मटेश्वर अंक 113 दिल्ली बनायेPage Navigation
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