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णाणसायर, दिल्ली दिसम्बर,
मूल भाषा में घुस-पैट 1993
. डॉ. के.आर. चन्द्रा, अहमदाबाद
म. महावीर के उपदेशों की मूल अर्धमागधी भाषा हमारे ही प्रमाद के कारण कितनी बदल गपी और उसे पुनः स्तापित करने के लिए एक नवीन संस्था का गान अनिजायं सा बन गया है।
मन संसार की कोई भी भाषा अपने मूल स्वरूप में हमेशा के लिए लोगों के व्यवहार की भाषा नहीं रही है। क्षेत्र क्षेत्र के अनुसार और कालक्रम के अनमा। वह बदलती जाती है। भारत में ही प्राचीनतम काल में अन्दम् (वेटों की भाषा) हा लोगों की भाषा थी फिर संस्कृत के नाम से एक नयी भाषा आयी। उसी प्रकार प्राकृत भाषा भी लोकभाषा रही परंतु कालानुक्रम एवं क्षेत्र के अनुसार उसका पिक विकास होता रहा-ऐतिहासिक और प्रादेशिक । इस विकास में प्राकृत भाषा ने अनेक नाम धारण किये-पालि (बौद्ध पिटकों की), मागधी (मगध देश की), अर्धमागधी (अर्थ मगध देश की, जैन आगमों की भाषा) पैशाची (उत्तर पश्चिम भाग्न गी/पक मान्यता के अनुसार), शौरसेनी (शूरसेन-मथुरा की), महाराष्ट्री (पश्चिम भाग्न की, महाराष्ट्र-गुजरात पश्चिम राजस्थान की) और फिर अपभ्रंश के रूप में सारे उना भारत की बोलचाल एवं व्यवहार की जनभाषा के रूप में विकसित होती गयी और नाना रूप धारण करती गयी। इनमें से अब कोई भी भाषा भारत की बाल-चाल की भाषा नहीं रही। परिवार की इन भाषाओं में से निकली हुई आजकल की भाषायं हैं- गुजरती. पराठी, हिन्दी, पंजाबी, सिंधी, राजस्थानी, आग्यिा. असमी, बंगाली इत्यादि । इन सभी भाषाओं की अपनी अपनी विशेषताएं। अतः वे एक दूसरे से अलग अलग व्यक्तित्व लिए हुए हैं। हरेक प्रदेश की भाषा की भी भिन्न भिन्न बोलियाँ है-जैसे राजरसानी में-मारवाडी, बड़ी मारवाडी, मेवाडी, मेवानी, नो गजगन में सूरती, भावनगरी, पालनपुरी, कच्छी, सोरठी, अमदावाटी, इत्यादि। यह एक अटल नियम है कि बोलचाल की भाषा व्याकरण के शास्त्रीय नियमों की वेड़ियों में जकड़ी हुई नहीं रहती, वह हमेशा बदलती ही रहती है।
जिस प्रकार वेदों की भाषा गन्दस् के नाम से जानी जानी जिसमें से संम्फन भाषा का उद्भव हुआ उसी प्रकार बौद्ध धर्म की भाषा पालि रही। जैन धर्म के प्राचीनतम धर्मग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी के नाम से प्रसिद्ध है और ना सानिध्य जन अर्धमागधी आगम के नाम से सुविख्यात है।
जिस प्रदेश में भ. महावीर ने अपने मौलिक उपदेश अर्थ-स्म में दिए थे उसी के आधार पर उसका नाम अर्धमागधी (मगध की. परना, राजगृह, इत्यादि) पड़ा। गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक रूप में द्वादशांगी एवंब,आगम गा की ....--.-- णाणसायर-गोम्पटेश्या अंक: 109 अन्य
दिल्ली.
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परंपरा संकड़ों वर्षों तक चानू रही। बीच बीच में अन्तराल से दुष्काल पड़ने के कारण पुनः पुनः आगमों.... वाचना की गयी और अन्तिम वाचना के समय पांच-छटी जताब्दी पू. देवर्षिगणि ने वलभी में (एक परंपरा के अनुसार) उसे लिपिवद्र
मूल उपदंश का स्थल मगध- आजकल का बिहार राज्याया। काल-क्रम से धर्म का प्रसार बढ़ता गया और एक समय मधुरा जन धर्म का बहुत बड़ा केन्द्र रहा तो आगे चलकर बलभी (गुजगन जैन धर्म का कंन्द्र रहा । इस क्षेत्रान्तर और कालान्तर के दाम्यान मूल भाषा में परिवर्तन आये विना नहीं रहे, मूल अर्धमागधी में प्रादेशिक रंग लगन गये । उस काल की पश्चिम भाग्न की महाराष्ट्री प्राकन का उस पर सवस अधिक प्रभाव पड़ा है जो हम आमम मारित्य में स्थल-स्थल पर द्रष्टिगांचा ना है। आगमों की मूल भाषा सर्वत्र अपने मौलिक रूप में नहीं वष राने का यह एक महत्वपूर्ण कारण है ता दुसग कारण यह भी है कि पैदिक परम्पग की जगह श्रमण परम्परा में शत-भाषा पर भार नहीं था जिससे वह कालक्रम आर क्षेत्रान्तर के प्रभाव से बचका मूल स्म में अपरिवर्तित बनी रहे। श्रमण परंपरा में अर्थ पर भार था । जहाँ भी मुनि वर्ग जाएं वे वहां की भाषा में भ. महावीर के उपदेश समनाएं। इस परंपरा के कारण मूल भाषा में परिवर्तन आने अनिवार्य थे। आगमों के लिपिवद्ध हो जाने के बाद एक नग आदेश दिया गया कि उनमें किसी अक्षर, मात्रा, व्यंजन, शब्द, वाक्यांश का भी फेरफार नहीं होना चाहिए। यदि कोई फेरफार करेगा तो उसे भाषा के अतिचार का दोष लगेगा और प्रायश्चित करना पड़ेगा। इतना कड़ा नियम होने के बावजूद भी हरेक वाचना टेने वाले आचार्य, हरेक पाठक और हरेक प्रतिलिपिकार के हाथ मूलभाषा कहीं पर अल्पांश में तो कहीं पर अधिकांश में बदलती ही गयी क्योंकि इन सब पर उस उस काल की बदली हुई चालू भाषा, जन-भाषा, लोक-भाषा का प्रभाव पड़ा अतः प्राचीन भाषा जाने-अनजाने बदलनी ही गयी। इस परिवर्तन के प्रमाण हमें हर हस्तप्रत में चाहे वह ताडपत्र की पुरानी प्रति हो या कागज की परवर्ती काल की प्रति हो उनमें देखने को मिलते हैं। इसी कारण आगमों के जो जो संस्करण हमें उपलब्ध हो रहे हूं उन सब में भाषिक एक-साना नहीं है क्योंकि किसी संपादक ने अमुक हस्नप्रना का आधार लिया तो किसी ने किसी अन्य प्रतियों का आधार लेकर सम्पादन किया। एक भी संस्करण ऐसा नहीं है जिसमें स्थल स्थल पर एक ही शब्द के एक समान पाट मिलते हो वा एक भी संस्करण दूसरे संस्करण के साथ पाठों की दृष्टि से एक-स्प हो। इतना ही नहीं परंतु मूल सूत्रों (आगम ग्रंथ) के पाटों तथा उनकी टीकाओं याकन में चूर्णि और संस्कृत में वृत्ति के पाटों में भी अन्तर पाया जाता है। चूर्णि में प्राचीन पाट सुरक्षित हैं तो... मूल सूत्रों में उत्तरवर्ती पाट घुस गये हैं। वृत्ति में भी ऐसा ही देखने को मिलता है। ये सब विषमताएं घर कर गयी है आर कोई भी संपादक मात्र किसी एक ही
हस्तप्रत को आदर्श मानकर उससे प्रनिवट होकर सम्पादन करता है तो वह क्षतियुक्त ही होता है। आनुषंगिक अन्य साक्ष्यों का (आदर्शा, चूर्णि, टीका आदि का सहारा लेना अनिवार्य होता है अन्यथा हरेक संपादन आर हरेक संस्करण में भाषिक भेद वने ही रहेंगे। इस विषमता को दूर करने के लिए तथा मृतभाषा को प्रतिस्थापित करने के लिए एक ही उपाय है और वह यह कि मूल सूत्रों की प्रतियां, चूर्णि और टीका में जो जो पाटान्तर मिल रहे हैं उनमें से कौन सा पाट भाषा की दृष्टि से प्राचीनतम है उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि यह सिद्धान्त मान लिया जाय तो फिर एक ही संस्करण या अलग अलग संस्करणों में भाषा की कोई विषमता नहीं रहेगी और उसकी एकरूपता आग के नये संस्करणों में स्वतः आ जाएगी। परंत इस कार्य के लिए प्राकृत भाषाओं का गहन ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक ज्ञान होना अनिवार्य है, मात्र हमचन्द्रोचार्य के प्रारत व्याकरण के अध्ययन से कार्य नहीं चलेगा जसाकि आगम-प्रभाकर मुनि श्री पूविजयजी अपने 'कल्पसूत्र' की भूमिका में फरमा गये है। यदि हम अपने पूर्वग्रहों को नहीं छोड़ेंगे और लकीर के फकीर बने रहना चाहेंगे तो यह उदार का कार्य नहीं होगा। भाषिक दृष्टि से नवीन संपादन का कार्य करने से आशातना और कर्म बन्धन होने आदि की रट लगाना वस्तुस्थिति से मुँह मोड़ना होगा। - एकान्त-अनेकान्त, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के परिप्रेक्ष्य में विषय की गम्भीरता पर चिंतन माना चाहिए तभी पर सत्य का उद्घाटन होगा, वास्तविकता प्रकाश में आएगी और विषय का सम्यग योध होगा।
भाषा सम्बन्धी बाड़े से उदाहरण देकर अब इस विषय को स्पष्ट किया जाएगा। पहले आजकल की भाषाओं के उदाहरण प्रस्तुत किए जाएंगे तत्पश्चात् जैन आगमों की अर्धमागधी भाषा के। ___हर काल और हर क्षेत्र में अलग अलग भाषाएं चलती हैं। किसी एक भाषा के विशिष्ट प्रयोग दूसरी भाषा पर थोपे नहीं जाते और यदि ऐसा कर दिया जाए नो वह प्रयोग ही गलत हो जाता है। हिन्दी, गुजराती और मारवाडी अलग अलग भाषाएं हैं, उनके ही भाषा-प्रयोग देखें। (9) हिन्दी हम इस गांव के निवासी हैं।
गुजराती अमे आ गामा रहेवासी छी। ना
मारवाडी : मे (म्हे) अण गंमरा रेवासी हो। (२) हिन्दी तेरा क्या नाम है।
गुतगती : ताशुं नाम छे?
मारवाडी थाएं का नोम है? (३) हिन्दी : मेरे लिए पानी लाओ।
गुजराती : मारा माटे पाणी लावो।
मारवाडी : मारे हासू पोणी लावो । (४) हिन्दी : उसे क्या करना है।
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-110:: णाणमाया गाम्माया र
दिल्ली
दिल्ली
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गुजराती तेणे शुं कखुं छे ।
मारवाडी : उणरे कंई करणो है।
अंब इन चार वाक्यों को कोई मिश्रित भाषा में उनकी खिचड़ी बनाकर बोले या लिखे तो क्या वह किसी एक भाषा की दृष्टि से शुद्ध माना जाएगा? उदाहरणार्थ(१) हम आ गामना रेवासी हो; अमे अण गांव के निवासी हो, में इस गोमरा रहेबासी छीओ।
(२)
तेरा शुं नोम छे; तारं क्या नाम है, धारं शुं नोम है।
(३) मेरे माटे पोणी लाओ; मारा लिए पाणी लावो मारे हारुं पानी लावो ।. (४) उसे शुं करणो है; तेणे कंड करना है; उणरे क्या कबुं छे ।
अर्थ की दृष्टि से सही हो परंतु भाषिक दृष्टि से ये सब प्रयोग सही नहीं कहलाएंगे। आगम ग्रंथों की हस्तप्रतों में पाटान्तरों के जंगल को देखकर ही आगम प्रभाकर पू. मुनि श्री पुण्यविजयजी को 'कल्पसूत्र' की भूमिका में कहना पड़ा कि आगमों की अर्धमागधी भाषा खिचड़ी बन गयी है और मूल प्राचीन भाषा को खोज निकालना दुष्कर सा हो गया है। पू. महाप्रज्ञ युवाचार्यजी ने भी 'आगम सम्पादन की समस्याएं' में उचित ही कहा है कि यह सब (यानि पाठान्तरों का जंगल) हमारे प्रमाद के कारण ही हुआ हैं। इन अभिप्रायों से स्पष्ट है कि मूल प्राचीन भाषा की दृष्टि से आगमों के पुनः सम्पादन की आवश्यकता अभी भी बनी हुई ही है। विषय की स्पष्टता के लिए प्राचीनतम आगमग्रंथ 'आधारांग' के विभिन्न संस्करणों में जो पाठान्तर मिलते हैं उनमें से कुछ शब्दों के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं।
स्पष्टतया के लिए 7
9
सूत्र महावीर जैन शब्रिंग नं. विद्यालय,
महोदय,
बम्बई
जर्मनी
अन्नतर
णात भवति
२
३ लोगावादी
'शब्द और संस्करणों के नाम
७ भगवता
१३ अहिताए
१४ उदर २० विजहित्ता
अन्नयर
नाय
भवइ
लोगावाई
भगवया
अहियाए उयर
विजहित्तु
112::
आगमोदय
समिति
महेसाणा
अण्णयर
णाय
भवति लोयावादी
भगवता अहिआए
उदर
वियहित्ता
जैन विश्व
भारती
लाडनूं
अण्णयर
णात
भवइ
लोगावाई
भगवया
अहिआए
उपर
वियहित्तु
माणसाया - गोम्मटेश्वर अंक
दिल्ली
हिन्दी अर्थ अर्थ
अन्य कोई
ज्ञात
होता है संसारवादी
भगवान के द्वारा अहितकारी
पेट त्यागकर
अलग अलग संस्करणों में ही पाठों की भिन्नता हो ऐसा ही नहीं है, एक ही संस्करण में एक ही शब्द के विभिन्न पाठ भी मिलते हैं। श्री महावीर जैन विद्यालय के 'आचारांग' के संस्करण के ही (ग्रंथ के अन्त में दी गयी शब्द-सूची के अनुसार) कुछ शब्द देखिए ।
१. यथा (जिस प्रकार ) २. एकदा ( एक बार) ३. लोके (संसार में)
४. क्षेत्रज्ञ (ज्ञानी)
= जहा, अहा = एगदा, एगया
= लोकसि, लोगंसि, लोयंसि = खेत्तण्ण, खेतण्ण, खेयण्ण
हस्तप्रतों में तो पाठान्तर इतने अधिक प्रमाण में मिल रहे हैं कि आगम प्रभाकर पू. मुनि श्री पुण्यविजयजी ( कल्पसूत्र की प्रस्तावना) को उसे पाठान्तरों का जंगल ही कहना पड़ा। इस बात को स्पष्ट करने के लिए खंभात, पाटन, पूना, जेसलमेर, अहमदाबाद आदि में मिल रही 'आचारांग' की ताडपत्र और कागज की हस्तप्रतों में से कुछ प्रतों में से कुछ शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। हस्तप्रतों में उपलब्ध प्राकृत शब्द
नं. संस्कृत शब्द
यथा = जैसे
एकदा = एक बार
प्रवेदित = प्रतिपादित
लोके = संसार में
9
२
३
४
* क्षेत्रज्ञ = ज्ञानी
जया, जहा, अघा, अहा एकदा, एगदा, एगता, एगया पवेदित, पवेतित, पवेतिय (पवेइय) लोगस्सिं लोकसि, लोगसि, लोयसि, लोकम्मि, लोगमि, लोयमि खेत्तन्न, खेतन्न, खेदन्न, खेअन्न,
खेयन्न, खेत्तण्ण, खेतण्ण,
खित्तण्ण, खेदण्ण, खेअण्ण, खेयण्ण
त
केसाथ
आगमों से कुछ और शब्दों के पाटभेद देखिए :
मेधावी, मेहावी; अहिताए, अहियाए: अबोधीए, अबोहीए; सदा, सता सया अनितिय, अणिइय, अनिच्च, अणिच्च; नगर, नगर, नयर, णयर; अत्ता, आता, अप्पा, आया (आत्मा): भवितव्वं, भविदव्वं, भवियव्वं, इत्यादि ।
इस प्रकार एक ही संस्करण में या अलग अलग संस्करणों में तथा विभिन्न हस्तप्रतों में कालक्रम से और क्षेत्रान्तर के कारण बदलती हुई प्रचलित भाषाओं के प्रभाव के कारण जाने-अनजाने या अपने ही प्रमाद के कारण भगवान महावीर के उपदेशों की मूल अर्धमागधी भाषा को सुरक्षित बनाये रखने की तरफ उपेक्षा भाव' के कारण (उपलब्ध हो रहे संस्करणों में) भाषा का जो स्वरूप मिल रहा है वह प्राचीन अर्धमागधी के साथ सर्वत्र समानता नहीं रखता है।
मूल प्राचीन अर्धमागधी भाषा को प्रस्थापित करने के लिए अत्यन्न परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता होगी। विभिन्न हस्तप्रनों में से भाषिक दृष्टि से प्राचीन
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बनाये
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________________ पाटों को खोज निकालना होगा। यह कार्य किसी एक व्यक्ति का नहीं है परंतु किसी एक संस्था को यह कार्य उठा लेना चाहिए। नीचे एक ही पाट के उत्तरवर्ती और प्राचीन प्रयोगों के कुछ उदाहरणों के साथ यह लेख समाप्त किया जाता है। नीचे नं. 1 में मजैवि का पाठ है और नं. 2 में विविध हस्तप्रतों में मिलने वाले बम्बई प्राचीन पाट दिये गये हैं। (7) 1. सुयं मे आउसं? तेणं भगवया एवं अक्वायं 2. सुतं मे आउसंते? गं भगवता एवं अक्वातं 1. अत्यि मे आया उववाइए 2. अत्थि मे आता ओबवादिए 1. तत्य खलु भगवया परिण्णा पवेड्या 2. तत्य खलु भगवता परिन्ना पवेदिता (4) 1. तं से अहियाग, तं मे अबोहीए 2. तं मे हिताए, तं से अबोधीए इसमें स्पष्ट है कि यदि भाषा की घुस-पैठ को निष्कासित करके प्राचीनता को स्थापित करना है तो भाषिक दृष्टि से अर्धमागधी के आगम ग्रंथों को पुनः सम्पादित किया जाना चाहिए और निश्चिन्त होकर यह भी समझ लेना चाहिए कि इस प्रकार के सम्पादन से मूत अर्थ में कहीं पर भी अल्पांश में भी कोई अन्तर मला नहीं आएगा परंतु इससे तो हम उलटे अपने गणधरों की भाषा के निकट ही पहुंचेंगे। श्री महावीर जैन विद्यालय के संस्करण के साथ अन्य संस्करणों की तुलना करने पर उसमें इसी प्रकार की अंशतः भाषिक प्रगति सिद्ध होती है और अब इससे भी आगे बढ़ने की आवश्यकता है जो सर्वथा हस्तप्रतों के और आगमों के प्राचीन पाटों के आधार पर ही एक नवीन संस्करण तैयार होगा। शुभकामनायें : मै० वर्द्धमान डाईकास्टिंग इन्डस्ट्रीज 10, बैंक कॉलोनी, मैरिस रोड, अलीगढ़ (उ० प्र०)-202001