Book Title: Moksha dharm aur Vyavastha Dharm
Author(s): Sukhlalmuni
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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Page 2
________________ I अग्नि का धर्म है जलाना । वह जलाती है तभी अग्नि है । इसी तरह आत्मा का धर्म है चेतना । जब वह चेतना में स्थित होता है तभी धर्म है । व्यक्ति जब चेतना से पदार्थ में चला जाता है तब अधर्म में चला जाता है । इसी आधार पर धर्म को त्रिवर्ग के स्थान पर चतुर्वर्ग माना गया। चौथे पुरूषार्थ की स्वीकृति ही मोक्ष का धर्म की स्वीकृति है । इससे व्यवस्था का धर्म अलग हो गया और मोक्ष का धर्म अलग हो गया। हमारे यहां बहुत सारे शब्द प्रचलित हैं - धर्मयुद्ध, धर्म की कमाई, पति धर्म आदि-आदि। पर क्या युद्ध कभी धर्म हो सकता है ? क्या परिग्रह कभी धर्म हो सकता है ? क्या पत्नी कभी धर्म हो सकती है ? असल में ये सारे शब्द समाज-व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। धर्म का अर्थ हो गया सामाजिक व्यवस्था । जो व्यवस्था सुख देती है वह धर्म बन गई, जो दुःख देती है वह अधर्म बन गई। ऐसा युद्ध जो युद्ध के नियमों से लड़ा जाता है वह धर्मयुद्ध हो गया। जो पैसा न्याय से कमाया जाता है वह धर्म की कमाई हो गई जो भोग एक पति तक सीमित रहा वह पति धर्म बन गया । इसी तरह समाज की अनेक व्यवस्थाओं को विधि निषेधों में बांधकर उन पर धर्म की मुहर लगा दी गई । श्रुतियां स्मृतियां उन विधिनिषेधों से भरी पड़ी हैं ; इनके कारण धर्म के नाम पर बहुत अन्धकार फैला हुआ है । इसलिए आत्मा का धर्म खो गया, पदार्थ का धर्म ऊपर आ गया। यद्यपि नास्तिक इन विधि-निषेधों को नहीं मानते। उनके हिसाब से : पिब खाद च चारुलोचने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्नते नहि भीरू ! गतं निवर्तते, समुदय मात्रर्मिद कानेवरम | Jain Education International 2010_03 दर्शन दिग्दर्शन वृहस्पति इन्द्रिय रूप सुख से आगे नहीं बढ़ते। उनकी दृष्टि में अच्छा खानापीना और ऐश आराम ही जीवन की सार्थकता है। पर उससे एक अव्यवस्था भी फैल सकती है । यदि व्यक्ति स्वार्थ केन्द्रित है अनायास ही वह दूसरों पर चोट कर सकता है। इसलिए समाज व्यवस्था से इंकार नहीं हुआ जा सकता। भले ही श्रुतियों स्मृतियों को मानना जरूरी न हो, पर इन्द्रिय से परे भी कोई सुख है। यह तो मानना ही होगा। जब तक पदार्थ सुख ही अभिप्रेत बना रहेगा तब तक आत्मानन्द से नहीं प्राप्त किया जा सकता । सुख पदार्थ में हैं, आनन्द पदार्थ से परे आत्मा में है । जब सुख ही सब कुछ बन जाता है तो १८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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