Book Title: Moksha dharm aur Vyavastha Dharm
Author(s): Sukhlalmuni
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ मोक्षधर्म और व्यवस्था धर्म - मुनि सुखलाल धर्म एक बहुत उलझन भरा शब्द है। यह आज ही उलझन भरा नहीं है। बहुत पुराने जमाने में भी इसके सामने उलझनें आती रही है। जीवन की प्रेरणा के रूप में प्राचीनकाल में धर्म, अर्थ और काम यह पुरूषार्थ त्रयी बहुत प्रचलित रही है। आचार्य सोमप्रभ ने कहा है - त्रिवर्ग-संसाधनमन्तरेण, पशोरिवायुविफलं नरस्य। तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं बिना यद भवतोपर्थकामौ।। धर्म, अर्थ और काम के बिना मनुष्य का जीवन पशु के तुल्य है, निस्सार है। लेकिन तीनों में धर्म की प्रेरणा प्रमुख है। धर्म के बिना अर्थ और काम भी बेस्वाद हो जाते पुरूषार्थत्रयी में धर्म मान्य तो हैं, पर वह अर्थ और काम से जुड़ा हुआ है। हो सकता है कभी धर्म का अर्थ आत्मशुद्धि रहा हो, पर धीरे-धीरे वह व्यवस्था से जुड़ गया। ईश्वर कृष्ण ने सांख्यकारिका में – “अथातो धर्म जिज्ञासा" कहकर धर्म को जिज्ञासेय तो जरूर बताया है, पर उसको स्पष्ट करते हुए यह भी कह दिया - स अभ्युदय निःश्रेयस हेतुः।" वह मनुष्य के अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों का हेतु है।। अभ्युदय का अर्थ है इहलौकिक विकास और निःश्रेयस का अर्थ है पारलौकिक विकास। यहां धर्म द्विविध हो गया। संसार के लिए भी धर्म की आवश्यकता है। यहां एक बहुत बड़ा घपला पैदा हो गया। घपला यह कि संसार के लिए भी धर्म की आवश्यकता है और मुक्ति के लिए भी धर्म की आवश्यकता है। इसीलिए शायद धर्म को फिर से संज्ञापित करने की आवश्यकता हुई और कहा गया – “वत्थुसहावो धम्मो” वस्तु का स्वभाव ही धर्म है , क्योंकि धर्म है तभी वस्तु है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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