Book Title: Moksh Mahalki Pratham Sidhi Samkit Author(s): Niraj Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 7
________________ अपनी बात स्पष्ट कर दी है। पण्डित राजमलजीके पूर्व अर्थात् आजसे चारसौ वर्ष पहिले तक, स्वरूपाचरण नामका जैन आगम में कहीं कोई उल्लेख भी नहीं था । पंचाध्यायीकार पं० राजमलजीने अनन्तानुबन्धी अभाव में, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टिको भी, चारों गतियोंमें पाये जाने वाले स्वरूपाचरण चारित्रका सर्वप्रथम विधान किया है । उन्होंने प्रारम्भ से ही दर्शन - ज्ञान - चारित्रको अविनाभावी होने से अखण्ड ही स्वीकार किया है । इसीके ही सहारेसे पण्डित टोडरमलजीने चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्रकी व्यवस्था दी है । एक जगह उनका कथन है-तहाँ जिनका उदय तैं आत्मा के सम्यक्त्व न होय, स्वरूपाचरण चारित्र न होय सकें, ते अनन्तानुबन्धी कषाय है" । तथा अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है'बहुरी इस मिथ्याचारित्र बिषै स्वरूपाचरण रूप चारित्रका अभाव है ।' पं० गोपालदासजी बरैयाने चारित्रगुणके मूलत: स्वरूपाचरण और संयमाचरण -- ऐसे दो भेद करके, फिर संयमाचरणके तीन भेद किये हैं । उन्होंने पर मैं इष्टानिष्ट निवृत्तिपूर्वक निज स्वरूपमें प्रवृत्ति ही इसका लक्षण बताया है। इस प्रकार उन्होंने चारित्रको तीनकी जगह चार भेदोंमें बाँटा है । पण्डित दौलतरामजीने छहढालामें देश - चारित्रके साथ भी स्वरूपाचरणका विधान नहीं किया, वरन् सकल-चारित्रके वर्णनके बाद, निर्विकल्प दशामें ही उसका विधान मुनियोंके वर्णनमें किया है । यह स्वरूपाचरण चारित्र जो भी हो, पर यह वह तत्त्व नहीं है जिसे हम रत्नत्रयका एक अंग कह सकें । भले ही यह चौथे गुणस्थानमें सम्यक्त्व के साथ ही उत्पन्न होकर, अविनाभाव रूपसे रहता है, । पर चारित्र गुणकी निर्मलतासे आत्माको जो विशिष्ट उपलब्धियाँ होती हैं, उनका शतांश भी प्रकट करानेकी शक्ति इस स्वरूपाचरणमें नहीं है । यह तो सम्यक्त्वकी ही एक विशेषतारूप विकास है । पण्डित मक्खनलाल जीने भी इस स्थितिको स्पष्ट करते हुए लिखा है : 'सम्यग्ज्ञान होने पर यह नियम नहीं है कि चारित्र भी हो। चौथे गुणस्थानमें सम्यग्ज्ञान भी हो जाता है परन्तु सम्यक् चारित्ररूप संयम वहाँ नहीं हैं । अर्थात् सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्र हो भी, अथवा नहीं भी हो, नियम नहीं है । पण्डित टोडरमलजीने भी स्वरूपाचरणकी असमर्थता और मोक्षमार्ग में संयमाचरणकी अनिवार्यता स्वीकार करते हुए लिखा है, 'तातें अनन्तानु बंधीके गएँ किछु कषायनिकी मंदता तो हो है, परन्तु ऐसी मन्दता न होय जा करि कोई चारित्र नाम पावैं । यद्यपि परमार्थ तें कषायका घटना चारित्रका अंश है, तथापि व्यवहार तैं जहाँ ऐसा कषायनिका घटना होय जाकरि श्रावकधर्म वा मुनिधर्मका अंगीकार होय, तहाँ ही चारित्र नाम पाव है । इतना ही नहीं, पण्डितजीने यह भी स्पष्टतया निर्देशित कर दिया है कि संयमरूप चारित्रकी साधना किये बिना जीवको मोक्षमार्ग बनता ही नहीं है । उन्होंने स्वतः प्रश्न उठाया - " जो असंयत सम्यग्दृष्टि के तौ चारित्र नाहीं, वाकै मोक्षमार्ग भया है कि न भया है । ताका समाधान- १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ७६४, ६७ । २. मोक्षमार्ग प्रकाशक ( हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, प्रथमावृत्ति सन् १९११), अध्याय २, पृष्ठ ५५ । ३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, वही, अध्याय ४, पृष्ठ १९९ । ४. गुरु गोपालदास बरैया स्मृतिग्रन्थ, पृष्ठ १३९ । ५. छहढाला, दौलतराम । ६. पंचाध्यायी, अध्याय २ श्लोक ७६७ का भावार्थ । ७ मोक्षमार्ग प्रकाशक; वही, अध्याय ९ पृष्ठ ४८४ । २२ Jain Education International - १६९ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13