Book Title: Moksh Mahalki Pratham Sidhi Samkit
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 9
________________ सम्यक्त्वादिकी भी प्राप्ति हो जाय ।" इसी बातको एक अन्य प्रसंग में वे लिखते हैं- तातै मिथ्यादृष्टिका शुभोपयोग ती शुद्धोपयोगको कारण नाहीं ।" सातवें गुणस्थानसे नीचे चौथे आदिमें शुद्धोपयोगका विधान पण्डितजीके कुछेक स्थलोंसे प्रगट माना कार्यजाता है । जैसे उन्होंने कहा - 'ऐसे यह बात सिद्ध भई – जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने, तहाँ तो शुभ का निषेध ही है, अर जहाँ अशुभोपयोग होता जान' तहाँ शुभ की उपाय करि अंगीकार करना युक्त है । 3 परन्तु पं० टोडरमलजी भी उपयोगको आचार्य प्रणीत, उपरोक्त करणानुयोग सम्मत शास्त्रोक्त व्यवस्थाका ही विधान वास्तवमें करना चाहते थे । ऊपरके उद्धरणोंमें जो कुछ भी उन्होंने कहा है. वह उपयोगकी नहीं, योगकी स्थिति है । यहाँ उनका तात्पर्य जीवके परिणामोंसे नहीं, वरन् उनके मन-वचनकाकी प्रवृत्ति से है । त्रियोगकी ऐसी शुभ प्रवृत्ति उनका लक्ष्य है, जिसके बलपर अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव भी स्वर्ग में नवमें ग्रैवेयक तककी पात्रता प्राप्त कर लेता है । अपनी विवक्षाको पण्डितजी ग्रन्थमें आगे चलकर स्पष्ट करना चाहते थे। एक जगह उन्होंने लिखा है- "करणानुयोग विषै तौ रागादि रहित शुद्धोपयोग, यथाख्यात चारित्र भएँ होय, सो मोहका नाश भएँ स्वयमेव होगा ।" नीचली अवस्थावाला शुद्धोपयोग साधन कैसे करें । अर द्रव्यानुयोग विषै शुद्धोंपयोग करने ही का मुख्य उपदेश है, तातै यहाँ छद्मस्थ जिस काल विषै बुद्धि-गोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्य रूप परिणामनिकों छुड़ाय, आत्मानुभवनादि कार्यनि विषै प्रवर्तें तिसकाल ताकों शुद्ध उपयोगी कहिये । यद्यपि यहाँ केवल ज्ञान गोचर सूक्ष्म रागादिक हैं तथापि ताकी विवक्षा यहाँ न कही, अपनी बुद्धि-गोचर रागादि छोड़े, तिस अपेक्षा याकों शुद्धोपयोगी का है । ऐसे ही स्व-पर श्रद्धानादिक भयें सम्यक्त्वादि कहे, सो बुद्धि-गोचर अपेक्षा निरूपण है । सूक्ष्म भावनिकी अपेक्षा, गुणस्थानादि विषै सम्यक्त्वादिका निरूपण करणानुयोग विर्षे पाइये हैं । ४ इस प्रकार पण्डितजीके कथनका निराकरण स्वयं उनके ही कथनसे हो जाता है । वास्तव में निचली दशामें शुद्धोपयोगका विधान पण्डितजीने कहीं किया ही नहीं है । सर्वत्र उनका कथन योगोंपर ही घटित होता है । भक्ति आदि शुभ तथा हिंसादिक अशुभ कार्यों परसे ही उन्होंने शुभ-अशुभ उपयोगका विधान किया है । उदयगत परिणामोंकी अपेक्षा उनका निरूपण है ही नहीं । पण्डित जगन्मोहनलालजीने, अपने ग्रन्थ 'अध्यात्म अमृतकलश' में शुद्धोपयोगकी व्युत्पत्ति-मूलक व्याख्या तीन प्रकारसे करके आगमसे उसकी विधिपूर्वक संगति बिठाई है ।५ १ - शुद्ध आत्मनि यः उपयोगः स शुद्धोपयोगः' ऐसा शुद्धोपयोग चौथे गुणस्थानसे आत्म-चिन्तनके क्षणोंमें माना जा सकता है । २ - 'शुद्धश्चासौ उपयोगः रागादिविरहितः स शुद्धोपयोगः' ऐसे शुद्धोपयोगकी स्थिति, सातवें गुणस्थानसे ही प्रारम्भ हो सकेगी । १. मोक्षमार्ग प्रकाशक : हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय (प्रथमावृत्ति - १९११), अध्याय - सात, पृष्ठ २९० । २ . वही, अध्याय - सात, पृष्ठ ३६२ । ३. वही, अध्याय -- सात, पृष्ठ २९९ । ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक, वही, अध्याय-८, पृष्ठ ४०५ । ५. अध्यात्मकलश, जगन्मोहनलाल शास्त्री । Jain Education International - १७१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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