Book Title: Moksh Mahalki Pratham Sidhi Samkit Author(s): Niraj Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 6
________________ भगवान कुन्दकुन्दने तो प्रायः सौ टंचका कुन्दन ही अपनी दृष्टि में रखकर हर जगह बात की है। उनका ज्ञानी तो पूर्व निराश्रव, वीतरागी, अवंचक और निष्कम्प परिणति वाला है (समयसार गया १६६) इनके हार्दको प्रगट करनेके लिए जयसेन आचार्यने सम्यग्दर्शनको 'सराग' और 'वीतराग'-इन दो प्रकारोंमें विभक्त करके चौथेसे छठवें गणस्थानके जीवोंको-जो बुद्धिपूर्वक रागादि रूप परिणतिमें प्रवृत्त हैं-सराग सम्यग्दृष्टि कहा । और सातवें तथा उससे उपरके गुणस्थानोंके जीवोंको, जहाँ बुद्धिपूर्वक रागादिरूप परिणतिका सर्वथा अभाव है-वीतराग सम्यग्दष्टि कहा। इस प्रसंगमें उन्होंने एक मार्गदर्शन और हमें दिया कि समयसार पढ़ते समय सम्यम्दृष्टि या ज्ञानीका अर्थ मुख्यतः वीतराग सम्य दृष्टि ही करना चाहिये । पूज्यपाद स्वामीने प्रशम संवेगादिककी अभिव्यक्ति लक्षणवाला 'सराग सम्यग्दर्शन' और आत्माकी विशुद्धि मात्रको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' कहा है। राजवार्तिकमें अकलंक देवने, सातों प्रकृतियोंके आत्यंतिक क्षय होने पर प्रगट होनेवाली, आत्मविशुद्धिको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' माना है। समयसारके टीकाकार त्रिगुप्तिरूप अवस्थाको ही वीतराग सम्यग्दर्शनकी संज्ञा देते हैं। समयसार तात्पर्यवृत्तिमें, जयसेनाचार्यने अशभ कर्मके कत्तपिनेको छोड़नेवालेको 'सराग सम्यग्दष्टि' तथा शुभ और सब प्रकारके कर्मोके कत्तपिनेको छोड़कर निश्चय चारित्रकी अविनाभूत दशाको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' कहा है (गाथा ९७) । दूसरी ओर, पंचाध्यायीकार ग्रन्थके दूसरे अध्याय (श्लोक ८२५-३१) में कहते हैं कि 'सम्यक्दर्शनमें जो 'सराग' 'वीतराग' आदि भेद देखता है, वह मिथ्यादृष्टि है, परन्तु उन्होंने ग्रन्थमें सम्यक्त्वका विशद विवेचन करते हुए नाना अपेक्षाओंसे अपनी बात समझाई है। ___ सम्यग्दर्शनके विविध लक्षणोंका समन्वय करते हुए डा० पन्नालाल साहित्याचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी भूमिकामें उसके पाँच लक्षण माने हैं : १. परमार्थ देव-शास्त्र-गुरुकी प्रतीति, २. तत्त्वार्थ श्रद्धान, ३. स्व-पर श्रद्धान । ४. आत्माका भद्धान ५. सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे प्राप्त श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति । उनका यह कथन विशेष मननीय है कि-इन पाँच लक्षणोंमेंसे पाँचवाँ लक्षण जो करणानुयोगका सम्यग्दर्शन है, वही साध्य है । शेष चार उसके साधन हैं । जहाँ इन चारोंको सम्यग्दर्शन कहा है, वहाँ कारणमें कार्यका उपचार ही समझना चाहिये । सम्यक्त्वके साथ चारित्रकी व्याप्ति आचार्योंकी स्थापित परम्परामें सम्यग्दर्शनकी चारित्रके साथ विषम व्याप्ति स्वीकार की गई है। इसी कारण चौथे गुणस्थानवर्ती, अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको, न तो रत्नत्रयधारी माना गया है, और न ही उसे मोक्षमार्गकी उपलब्धि मानी गई है। आचार्योने संयमाचरण चारित्रके तीन भेद किये हैं-देश चारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र । पाँचवाँ गुणस्थान ही चारित्रका प्रथम सोपान कहा गया है । वहींसे जीवको मोक्षमार्गका एकदेश प्रारम्भ होता है । कुन्दकुन्दकी चारित्रपाहुडकी आठवीं गाथाके सहारेसे, स्वरूपाचरण चारित्रकी संगति, चौथे गुणस्थानमें बैठानेका प्रयत्न, कुछ विद्वानोंने किया है, परन्तु भगवानकी मूल शब्दावलीमें 'सम्यक्त्वचरण चारित्र' शब्द आया है, स्वरूपाचरण नहीं । संस्कृत टीकाकार श्रुतसागर सूरिने 'यच्चरति यत्प्रतिपालयति यतिः' लिखकर, उस सम्यक्त्वचरण चारित्रको मुनियोंके लिए साध्य बताकर, स्पष्ट ही चौथे गुणस्थानमें उसकी संभावनाका निषेध कर दिया है। अगली गाथाकी टीकामें भी उन्होंने 'ये सूरयः' शब्द रखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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