Book Title: Mitti Me Savva bhue su Author(s): Padmasagarsuri Publisher: Arunoday Foundation View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यत्किचित् भूत के शोक और भविष्य की चिन्ता से मुक्त होकर जो वर्तमान सुख का अनुभव करना जानते हैं, वे चिन्ताकर्षक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए आत्मा को पापपंक से कलंकित नहीं किया करते; क्योंकि उन समस्त वस्तुओं में "अनित्यता" का निवास होता है। धर्मग्रन्थों की आज्ञा के अनुसार अनित्य वस्तुओं के संकलन को परोपकार में लगाकर वे "अपरिग्रह और "अनुशासन" का एक साथ पालन करते हैं। वे "आत्मा" के स्वरुप को जानने के लिए शास्त्रों के स्वाध्याय का पवित्र "उटाम" करते हैं और अनुद्विग्न चित्त से पूर्वोपार्जित शुभाशुभ 'कमफल भोगते हैं। उनमें उदारता होती है, "कृपणता" नहीं कृपण न खाता है और न खिलाता है। उसकी सम्पत्ति अजागलस्तनवत् निरर्थक होती है। उड़ाऊ व्यक्ति अनावश्यक खर्च करता रहता है. किन्तु कृपण आवश्यक खर्च भी नहीं करता दोनों अविवेकी हैं विवेकी वे हैं, जो एक रुपया भी अनावश्यक खर्च नहीं करते और आवश्यक होने पर हजारों रुपये भी खर्च कर डालते हैं। कृपणता जैसे दोषों को छोड़कर मितव्ययिता जैसे गुणों को अपनाना "गुणग्रहकता" है। यही वह गुण है, जो व्यक्ति को गुणवान् बना सकता है । धन की अपेक्षा गुणों का संग्रह अधिक महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि गुणों से धन तो मिल सकता है; परन्तु धन से गुण नहीं मिल सकते । गुण ग्राहकता के लिए गुणों में रुचि आवश्यक है। जिसमें रुचि नहीं होती, वह गुण For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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