Book Title: Mithyatvadi ka Pratikraman Katipay Prerak Prasang Author(s): Hukamkunvar Karnavat Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 4
________________ 248 | जिनवाणी ||15.17 नवम्बर 2006 स्मरण हो आया! मुंह बाँबी में डालकर वह निश्चेष्ट सा पड़ गया। भगवान् उसे बोध देकर आगे बढ़ गए। ग्वाले यह देखकर उसकी पूजा करने लगे। दूध, मिठाई आदि से पूजा करने से चींटियाँ आईं और उन्होंने चण्डकौशिक के शरीर को छलनी बना दिया, परन्तु चण्डकौशिक ने समता धारण कर ली थी। वह मरकर शुभभावों के कारण आठवें देवलोक में गया! इस प्रकार चण्डकौशिक ने क्रोधादि कषायों का प्रतिक्रमण किया। इन्हें त्याग कर उसने समता/समा धारण की। अशुभ योग का प्रतिक्रमण अशुभयोग का प्रतिक्रमण करने के उदाहरण हैं-- प्रसन्नचंद्र राजर्षि। प्रसन्नचन्द्र पोतनपुर नगर के राजा थे। एक बार श्रमण भगवान् महावीर का यहाँ पदार्पण हुआ। प्रसन्नचन्द्र राजा प्रभु को वन्दन करने आए और उनका वीतरागतापूर्ण उपदेश सुना। उन्हें संसार से वैराग्य हुआ और प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। विनयपूर्वक ज्ञानाराधना करते हुए सूत्रार्थ के पाठी बने। भगवान् से आज्ञा लेकर एकान्त में ध्यानस्थ हो गए। मगध सम्राट् श्रेणिक भी संयोगवश भगवान को वन्दन करने आए। रास्ते में मुनि को एक पैर पर ध्यान में खड़े देखा, उन्हें विनयपूर्वक नमन किया। फिर भगवान् की सेवा में पहुँचे। भगवान् को सविनय वंदन कर पूछा - भगवन्! नगरी के बाहर मुनि ध्यान में खड़े हैं, अभी काल प्राप्त करें तो कौनसी गति में जायें? प्रभु ने कहा - सप्तम नरक में। श्रेणिक चकित रहे। कुछ देर बाद फिर घूछा तो उत्तर मिला - सर्वार्थसिद्ध देव विमान में। श्रेणिक ने पूछा - भगवन्! इतना अन्नर क्यों? महावीर प्रभु बोले - तुमने पहले यूछा तब ध्यानस्थ मुनि शत्रु के साथ मानसिक युद्ध कर रहे थे और बाद में आलोचना कर भूल का पश्चाताप कर उच्च श्रेणी में आरूढ बने। श्रेणिक ने राजर्षि प्रसन्नचन्द्र की इस स्थिति का मूल कारण जानना चाहा। प्रभु ने बताया - राजन्! वंदन को आने समय तुम्हारे दो सेनापतियों ने उन्हें ध्यानमग्न देखा। सुमुख सेनापति ने उन्हें स्वर्ग का अधिकारी बताया। दूसरे सेनापति दुर्मुख ने कहा - इन्होंने पाप किया है। छोटे पुत्र को राज्य सुपुर्दकर साधु बन गए। उधर इनके राज्य पर आक्रमण हो रहा है। संभव है बालवय राजा से शत्रु राजा राज्य छीन ले और उसे बन्दी बनाले। इस सेनापति की बात कान में आने पर प्रसन्नचंद्र मुनि विचलित हो गए और मन ही मन युद्ध करने लगे। सभी शस्त्रों के समाप्त हो जाने पर उनका हाथ सिर पर मुकुट प्रहार करने के लिए गया, पर सिर तो मुँडा हुआ था। मुनि अवस्था का भान हुआ और आलोचना की, पश्चात्ताप किया। इसलिए सर्वार्थसिद्धि गति के योग्य बने। प्रसन्नचन्द्र मुनि को उसके कुछ देर बाद केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार मन को अशुभ से हटाकर शुभ में लगाने से इस प्रतिक्रमण का फल केवलज्ञान तक पहुँच गया। इस प्रकार मिथ्यात्वादि में से एक-एक प्रतिक्रमण करने वाली आत्मा का भी जीवन सफल हो गया, जो पाँचों प्रकार के प्रतिक्रमण की सम्यक् साधना कर लेता है उसका तो जीवन स्वतः धन्य एवं सार्थक हो सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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