Book Title: Mithyatvadi ka Pratikraman Katipay Prerak Prasang
Author(s): Hukamkunvar Karnavat
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 245 मिथ्यात्वादि का प्रतिक्रमण : कतिपय प्रेरक प्रसंग श्रीमती हुकम कुँवरी कर्णावट मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण राजा श्रेणिक ने, अव्रत का प्रतिक्रमण परदेशी राजा ने, प्रमाद का प्रतिक्रमण शैलक राजर्षि ने, कषाय का प्रतिक्रमण चंडकौशिक सर्प ने और अशुभयोग का प्रतिक्रमण प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने किया । इन पाँच घटनाओं के प्रसंग से लेख में प्रत्येक प्रतिक्रमण की महनीयता का प्रतिपादन हुआ है। -सम्पादक प्रतिक्रमण अनेक आत्माओं ने किया, कर रही हैं और कई आत्माएँ करती रहेंगी, परन्तु भावात्मक रूप में भी पाँचों प्रतिक्रमण की साधना आवश्यक है। पाँचों प्रतिक्रमण हैं- मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, अव्रत का प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण और अशुभ योग का प्रतिक्रमण। यहाँ इनमें से प्रत्येक प्रतिक्रमण का एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है। मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण मगध सम्राट् श्रेणिक ने मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण किया था। एक दिन महाराजा श्रेणिक भ्रमण करते हुए मंडिकुक्ष उद्यान में आ निकले। वहाँ एक मुनि को देखा! उनकी शांत सौम्य मुखामुद्रा देखकर बहुत प्रभावित हुए! इस तरुण अवस्था के मुनि से पूछ लिया- “आप इस तरुणावस्था में मुनि कैसे बने?" मुनि - राजन्! मैं अनाथ था। राजा - मैं आपका नाथ बनता हूँ। मेरे महलों में पधारें और सुखपूर्वक रहें। मुनि - राजन्! आप स्वयं अनाथ हैं। मगध सम्राट ने अपने राज्य, धन से भरे भंडार आदि का परिचय दिया। मुनि बोले- "राजन्! मेरे भी धन माल का भण्डार था। भरापूरा परिवार था, पत्नी थी। एक बार भयंकर नेत्रवेदना हुई। मेरे पिता ने सभी प्रकार के इलाज किए। धन पानी की तरह बहाया। परन्तु मेरा रोग ठीक नहीं हुआ। एक दिन मैंने मन में विचार किया - यदि मैं अच्छा हो जाऊँ तो प्रातः होते ही मुनि बनकर दीक्षा ले लूँगा, मेरा रोग ठीक हो गया। प्रातः होते ही मैंने अपने संकल्प के अनुसार संयम ले लिया। हे राजन्! यह मेरी अनाथता थी।" राजा श्रेणिक समझ गया कि वास्तव में धन परिवार कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता। धर्म ही हमारा सच्चा रक्षक है। ये बाहरी पुद्गल, परिवार, महल, बंगले नहीं धर्म ही हमारा सच्चा साथी है। इस प्रकार Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 राजा की जो राज्यादि की झूठी मान्यता थी, वह दूर हो गई। राजा ने सही समझ प्राप्त कर मिथ्यात्व या झूठी मान्यता का प्रतिक्रमण किया। अव्रत का प्रतिक्रमण परदेशी राजा ने अव्रत का प्रतिक्रमण किया था। राजा परदेशी शरीर और आत्मा को अलग-अलग नहीं मानता था । उसने अनेक जीवों को कोठी में बंद करके रखा था। वे प्राणरहित बन गए। वह नहीं जान सका कि उनकी आत्मा कहाँ से निकली और कैसे? एक दिन परदेसी राजा के नगरवासी चित्त सारथी ने सोचा कि राजा को प्रतिबोध दिलाना जरूरी है। राजा इतना पाप कर रहा है, यह तभी बंद होगा। सारथी चित्त ने केशी मुनि से निवेदन किया। मुनि ने राजा को सेवा में लाने की बात कही। साथी राजा को घोड़ों की परीक्षा के बहाने बगीचे में ले आया। मुनि पहले से ही पधारे हुए थे। राजा की नजर मुनि पर पड़ी- पूछा यह कौन ? सारथी ये शरीर और आत्मा को अलग-अलग मानते हैं। राजा तुरन्त उनकी सेवा में पहुँचा । राजा क्या आप जीव और शरीर को अलग-अलग मानते हैं ? मुनि हाँ, मृत्यु के बाद जीव दूसरी गति में जाकर पुण्य पाप का फल भोगता है। राजा मेरे दादा बहुत पापी थे। आपके कथनानुसार वे नरक में गए होंगे। वे यहाँ आकर मुझसे कहते -- बेटा, पाप मत कर नहीं तो मेरी तरह नरक के दुःख भोगेगा। तो मैं शरीर और जीव को अलग मान लेता । #4 wall मुनि तुम अपनी सूर्यकान्ता रानी के साथ किसी पापी को व्यभिचार करते देखो तो क्या करोगे? राजा - मैं उसकी जान ले लूंगा। मुनि - यदि वह थोड़ी देर के लिए घरवालों को कहने हेतु जाना चाहे तो ? राजा - ऐसा कौन मूर्ख होगा ? - मुनि- इसी प्रकार अनेक पाप करते-करते तुम्हारे दादा को नरक से छुट्टी कैसे मिलेगी ? राजा- मैंने एक अपराधी को कोटी में बंद किया । कोठी पूरी बन्द थी। थोड़ी देर बाद कोठी में देखा । वह मर चुका था । किन्तु मैंने जीव को निकलते नहीं देखा। मुनि - राजन् ! गुफा का द्वार बन्द कर कोई अन्दर ढोल बजावे तो आवाज बाहर आयेगी । राजा - आयेगी। इसी प्रकार आत्मा शरीर से निकल जाता है, परन्तु दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार लोहे के गोले में आग प्रवेश कर जाती है, परन्तु पता नहीं चलता । श्रावस्ती का राजा परदेसी समझ गया । वह जैन धर्म का अनुयायी बन गया । बेले बेले तप करते हुए धर्मसाधना करने लगा। दानशाला खोल दी। रानी सूर्यकान्ता ने उसे भोजन में विष दे दिया। राजा ने समता रखी, मृत्यु पाकर देव बना और महाविदेह में जन्म लेकर वह मोक्ष जायेगा। इस प्रकार राजा परदेसी ने अबत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी का प्रतिक्रमण किया। प्रमाद का प्रतिक्रमण प्रमाद का प्रतिक्रमण करने के उदाहरण हैं- शैलक राजर्षि । शैलकपुरी के राजा शैलक किस प्रकार मुनि बन गए, यह वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के शैलक अध्ययन में आता है। एक बार शैलकपुर में भगवान् अरिष्टनेमि की परम्परा के शुक मुनि का पदार्पण हुआ। राजा शैलक भी वन्दनार्थ गए। धर्मोपदेश सुनकर राजा को प्रतिबोध हुआ ! मंत्रीवर्ग से सलाह की पंथक आदि ५०० मंत्री भी संयम लेने हेतु तैयार हो गए। जब राजा इस मार्ग पर जा रहे हों तो हम क्यों पीछे रहें। राजा ने राजकुमार को राज्य में स्थापित कर पंथक आदि मंत्रीगण के साथ संयम ग्रहण कर लिया। कर्मगति की विचित्रता। शैलक राजर्षि अस्वस्थ हो गए, विचरण नहीं कर रहे थे। एक स्थान पर विराज रहे थे। इलाज चल रहा था। शुभकर्म योग से स्वास्थ्य लाभ किया, परन्तु बहुत प्रमादी बन चुके थे। साधु के आचार को भूलकर शिथिलाचारी बन गए। पंथक आदि मुनियों ने देखा कि शैलक राजर्षि विहार नहीं कर रहे और शिथिलाचारी बन रहे हैं। उन्होंने पंथक मुनि को सेवा में रखकर विहार कर दिया। पंथक मुनि देवसिय प्रतिक्रमण पूर्ण कर चौमासी प्रतिक्रमण की आज्ञार्थ शैलक राजर्षि की सेवा में आए। वन्दन कर चरण स्पर्श किया। शैलक राजर्षि अपने आराम में व्यवधान से नाराज हुए। पंथक मुनि ने सारी स्थिति स्पष्ट की और प्रतिक्रमण की आज्ञार्थ चरणस्पर्श का निवेदन किया। भविष्य में मैं आपके विश्राम में बाधक नहीं बनूंगा-क्षमायाचना की पंथक मुनि ने। शैलक राजर्णि सावधान बने। प्रमाद का परिहार कर पश्चात्तापपूर्वक विहार करने लगे। साधुचर्या का सम्यक् पालन करने लगे। इस प्रकार शैलक राजर्षि ने प्रसाद का प्रतिक्रमण किया और अप्रमादी बनकर साधु समाचारी का पुनः पालन किया। कषाय का प्रतिक्रमण कषाय का प्रतिक्रमण किया था- चंडकौशिक सर्प ने। तीर्थंकर महावीर प्रभु साधनाशील थे। शीत, ताप आदि परीषहों को सहन करते हुए एक बार भयंकर वन प्रदेश में पहुँच गए। वहाँ एक भयानक विषधर चंडकौशिक रहता था। ग्वालों ने महावीर को उधर जाने से बहुत मना किया। चण्डकौशिक ने अपनी जहरीली फुफकार से और विषभरी नजर से हजारों प्राणियों को मौत के घाट उतार दिया था। प्रभु महावीर घबराए नहीं. वे तो कर्म काटने के लिए उसी मार्ग पर बढ़ रहे थे, आखिर पहुँच गए सर्प की बाँबी के निकट। चण्डकौशिक अपनी बाँबी पर आए मनुष्य को देखकर क्रोध में जलने लगा। वह महावीर के पाँव में डंक मारने लगा, परन्तु आश्चर्य यहाँ तो लाल नहीं सफेद खून था। वह उसे मीठा लगा! महावीर ने चण्डकौशिक को जगाया और कहा- “बोध प्राप्त करो। बोध क्यों नहीं पाते हो?" मन वाला चण्डकौशिक महावीर के कथन को समझ गया। सोच लिया कि अब किसी को नहीं काटेगा। उसका क्रोध शांत बना । उसे पूर्वभव में मुनि बनने का Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 | जिनवाणी ||15.17 नवम्बर 2006 स्मरण हो आया! मुंह बाँबी में डालकर वह निश्चेष्ट सा पड़ गया। भगवान् उसे बोध देकर आगे बढ़ गए। ग्वाले यह देखकर उसकी पूजा करने लगे। दूध, मिठाई आदि से पूजा करने से चींटियाँ आईं और उन्होंने चण्डकौशिक के शरीर को छलनी बना दिया, परन्तु चण्डकौशिक ने समता धारण कर ली थी। वह मरकर शुभभावों के कारण आठवें देवलोक में गया! इस प्रकार चण्डकौशिक ने क्रोधादि कषायों का प्रतिक्रमण किया। इन्हें त्याग कर उसने समता/समा धारण की। अशुभ योग का प्रतिक्रमण अशुभयोग का प्रतिक्रमण करने के उदाहरण हैं-- प्रसन्नचंद्र राजर्षि। प्रसन्नचन्द्र पोतनपुर नगर के राजा थे। एक बार श्रमण भगवान् महावीर का यहाँ पदार्पण हुआ। प्रसन्नचन्द्र राजा प्रभु को वन्दन करने आए और उनका वीतरागतापूर्ण उपदेश सुना। उन्हें संसार से वैराग्य हुआ और प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। विनयपूर्वक ज्ञानाराधना करते हुए सूत्रार्थ के पाठी बने। भगवान् से आज्ञा लेकर एकान्त में ध्यानस्थ हो गए। मगध सम्राट् श्रेणिक भी संयोगवश भगवान को वन्दन करने आए। रास्ते में मुनि को एक पैर पर ध्यान में खड़े देखा, उन्हें विनयपूर्वक नमन किया। फिर भगवान् की सेवा में पहुँचे। भगवान् को सविनय वंदन कर पूछा - भगवन्! नगरी के बाहर मुनि ध्यान में खड़े हैं, अभी काल प्राप्त करें तो कौनसी गति में जायें? प्रभु ने कहा - सप्तम नरक में। श्रेणिक चकित रहे। कुछ देर बाद फिर घूछा तो उत्तर मिला - सर्वार्थसिद्ध देव विमान में। श्रेणिक ने पूछा - भगवन्! इतना अन्नर क्यों? महावीर प्रभु बोले - तुमने पहले यूछा तब ध्यानस्थ मुनि शत्रु के साथ मानसिक युद्ध कर रहे थे और बाद में आलोचना कर भूल का पश्चाताप कर उच्च श्रेणी में आरूढ बने। श्रेणिक ने राजर्षि प्रसन्नचन्द्र की इस स्थिति का मूल कारण जानना चाहा। प्रभु ने बताया - राजन्! वंदन को आने समय तुम्हारे दो सेनापतियों ने उन्हें ध्यानमग्न देखा। सुमुख सेनापति ने उन्हें स्वर्ग का अधिकारी बताया। दूसरे सेनापति दुर्मुख ने कहा - इन्होंने पाप किया है। छोटे पुत्र को राज्य सुपुर्दकर साधु बन गए। उधर इनके राज्य पर आक्रमण हो रहा है। संभव है बालवय राजा से शत्रु राजा राज्य छीन ले और उसे बन्दी बनाले। इस सेनापति की बात कान में आने पर प्रसन्नचंद्र मुनि विचलित हो गए और मन ही मन युद्ध करने लगे। सभी शस्त्रों के समाप्त हो जाने पर उनका हाथ सिर पर मुकुट प्रहार करने के लिए गया, पर सिर तो मुँडा हुआ था। मुनि अवस्था का भान हुआ और आलोचना की, पश्चात्ताप किया। इसलिए सर्वार्थसिद्धि गति के योग्य बने। प्रसन्नचन्द्र मुनि को उसके कुछ देर बाद केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार मन को अशुभ से हटाकर शुभ में लगाने से इस प्रतिक्रमण का फल केवलज्ञान तक पहुँच गया। इस प्रकार मिथ्यात्वादि में से एक-एक प्रतिक्रमण करने वाली आत्मा का भी जीवन सफल हो गया, जो पाँचों प्रकार के प्रतिक्रमण की सम्यक् साधना कर लेता है उसका तो जीवन स्वतः धन्य एवं सार्थक हो सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं।