Book Title: Mevad ki Lok Sanskruti me Dharmikta ke Swar Author(s): Mahendra Bhanavat Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 1
________________ ------------- M-0-0--------------- ---------------- मेवाड़ के कण-कण में धार्मिक भावना, श्रद्धा, 8 सदुपदेश, समर्पण एवं बलिदान के स्वर मुखरित हो । । रहे हैं। लोक जीवन के निकटतम पारखी डा० भानावत द्वारा प्रस्तुत ये शब्द-चित्र मेवाड की । ३ धार्मिकता की अखण्ड प्रतिमा को अनावृत कर D डॉ. महेन्द्र भानावत [उपनिदेशक-भारतीय लोककला मंडल, उदयपुर] ०००००००००००० ०००००००००००० Two-0--0--0--0-0-0---0--0--0-0--0-0--0--0--0--0--S Movo-~~-~~~-~~~-~~-~-~~-~~~-~~~3 मेवाड की लोकसंस्कति में धार्मिकता के स्वर AARA RERNANA DUTTA लोक संस्कृति की दृष्टि से मेबाड़ का अपना गौरवमय इतिहास रहा है, यहाँ के रण बाँकुरों ने जहाँ इसकी वीर संस्कृति को यशोमय बनाया वहाँ यहाँ की लोक संस्कृति भी सदैव समृद्ध और राग-रंग से रसपूरित रही है । जिस स्थान की संस्कृति अधिक पारम्परिक होती है वहाँ का जनमानस उतना ही अधिक धर्मप्रिय तथा आध्यात्मिक होता है, इसलिए उसका जीवन शांत, गम्भीर तथा गहराई लिए होता है, उसमें उथला-छिछलापन उतना नहीं रहता । यही कारण है कि ऐसे लोगों में अधिक पारिवारिकता, भाईचारा, रिश्ते-नाते, सौहार्द सहकार तथा प्रेम सम्बन्ध की जड़े अधिक गहरी तथा घनिष्ट होती हैं, जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत तक समग्र जीवन राग-रंगों तथा आनन्द उल्लासों से ओत-प्रोत रहता है। परम्परा से पोषित एवं पल्लवित होने के कारण ऐसी संस्कृति में अपने जीवन के प्रति पूर्ण आस्था होती है इसलिए ऐसा मनुष्य अपने वर्तमान से प्रति पूर्ण आस्थावान रहते हुये अगले जन्म को भी सुखद, सुपथगामी बनाने के लिए कल्याणकर्म करने को उत्सुक रहता है । सुविधा की दृष्टि से यहाँ हम निम्नलिखित बिन्दुओं में इसका वर्गीकरण कर रहे हैं ताकि लोकसंस्कृति के व्यापक परिवेश में जो विविधता विधाएँ हैं उनका समग्र अध्ययन-चिंतन किया जा सके। ये बिन्दु है (क) व्रतोत्सवों तथा अनुष्ठानों में धार्मिकता के स्वर (ख) लोकनृत्य नाट्यों में धार्मिकता के स्वर (ग) मंडनों, गोदनों तथा विविध चित्रांकनों में धार्मिकता के स्वर (घ) लोककथा, गाथा एवं भारत में धार्मिकता के स्वर (च) धर्मस्थानों के लोकसाहित्य में धार्मिकता के स्वर (क) व्रतोत्सवों तथा अनुष्ठानों में धार्मिकता के स्वर व्रतोत्सव तथा अनुष्ठान यहाँ के लोकजन के वे आधार हैं जिन पर उनके जन्म-जीवन की दृढ़ मित्तियाँ आश्रित हैं। इनकी शरण पकड़कर यह लोक अपने इस भव के साथ-साथ अगले भव-भव-भव को सर्व पापों से मुक्त निष्कलंकमय बनाता है इनका मूल स्वर मानव-जीवन को मोक्षगामी बनाने का होता है इसलिए प्रत्येक कर्म में वह मनवचन-कर्म की ऐसी भूमिका निभाता है कि भले ही स्वयं को वह कष्टों में डाल दे पर उनके कारण कोई अन्य प्राणी दु:खी न हो अपने स्वयं के गृहस्थ-परिवार, पास-पड़ोस, गुवाड़-गाँव तथा समाज की सुख समृद्धि चाहता हुआ सम्पूर्ण विश्व को वह अपने कुटुम्ब-परिवार में देखता भालता हुआ सबका क्षेम-कुशल-कल्याण चाहता है, सारे के सारे व्रत, उत्सव और अनुष्ठान इन्हीं भावनाओं से भरे-पूरे हैं, व्यष्टि से प्रारम्भ हुआ यह मनोरथ समष्टि की और बढ़ता है और एकता में अनेकता को वरण करता हुआ अनेकता को एकता में ले चलता है। चैत्र में शीतला सप्तमी को चेचक से बच्चों को बचाने के लिए शीतला माता की पूजा की जाती है । शीतला के रूप में चेचक के ही रंगाकार के पत्थर पूजे जाते है । चेचक का एक नाम इधर बोदरी भी है अतः शीतला माता को बोदरीमाता कहते हैं। छठ की रात को माता सम्बन्धी जो गीत गाये जाते हैं उनमें बालूड़ा की रक्षक माँ को प्रार्थना की A 798ON NP ONOCO in duettonational EPISODEO wwwjaimaharary.orgPage Navigation
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