Book Title: Mevad ka Prakrit Sanskrit evam Apbhramsa Sahitya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 2
________________ २०० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० NEPA JAMAP माण THAN . . . . 'समराइच्चकहा' प्राकृत कथाओं की अनेक विशेषताओं से युक्त है। इसमें उज्जैन के राजकुमार समरादित्य के नौ भवों की सरस कथा वणित है। वस्तुतः यह कथा सदाचारी एवं दुराचारी व्यक्तियों के जीवन-संघर्ष की कथा है। काव्यात्मक दृष्टि से इस कथा में अनेक मनोरम चित्र हैं। प्राचीन भारत के सांस्कृतिक जीवन का जीता-जागता उदाहरण है-समराइच्चकहा । 'धूर्ताख्यान' व्यंगोपहास-शैली में लिखी गयी अनूठी रचना हैं। आचार्य हरिभद्र ने इसे चित्तौड़ में लिखा था। इस ग्रन्थ में हरिभद्र ने पुराणों, रामायण, महाभारत आदि की कथाओं की अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक, अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा के माध्यम से निराकरण किया है। कथा का व्यंग्य ध्वंशात्मक न होकर रचनात्मक है । 'उपदेशपद' में प्राकृत की ७० प्राकृत कथाएँ दी गयी हैं । 'दशवकालिक टीका' में भी प्राकृत की ३० कथाएँ उपलब्ध होती हैं । इन कथाओं में नीति एवं उपदेश प्रधान कथाएँ अधिक हैं । 'संवोहपगरण' का दूसरा नाम तत्त्व प्रकाश भी है। इसमें देवस्वरूप तथा साधुओं के आचार-विचार का वर्णन है । 'धम्मसंगहणी' में दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन है।" इस प्रकार हरिभद्र ने न केवल अपने मौलिक कथा-ग्रन्थों द्वारा प्राकृत साहित्य को समृद्ध किया है, अपितु टीकाग्रन्थों में । भी प्राकृत के प्रयोग द्वारा मेवाड़ में प्राकृत के प्रचार-प्रसार को बल दिया है। आचार्य हरिभद्र के शिष्यों में उद्द्योतनसूरि प्राकृत के सशक्त कथाकार हुए हैं। उन्होंने हरिभद्र से सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया था । यद्यपि उद्द्योतनसूरि ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'कुवलयमालाकहा' की रचना जालौर में की थी, किन्तु अध्ययन की दृष्टि से उनका मेवाड़ से सम्बन्ध रहा है । मेवाड़ के प्राकृत-कथा-ग्रन्थों की परम्परा में ही उनकी कुवलयमाला की रचना हुई है। यद्यपि वह अपने स्वरूप और सामग्री की दृष्टि से विशिष्ट रचना है। ऐसे ही प्राकृत के दो आचार्य और हैं, जिनका चित्तौड़ से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, किन्तु उनकी कोई रचना मेवाड़ में नहीं लिखी गयी है । वे हैं-एलाचार्य एवं आचार्य वीरसेन । एलाचार्य मेवाड़ के प्रसिद्ध विद्वान् थे । वे वीरसेन के शिक्षा गुरु थे। इन्द्रनन्दि ने अपने 'श्रु तावतार' में एलाचार्य के सम्बन्ध में लिखा है कि बप्पदेव के पश्चात् कुछ वर्ष बीत जाने पर सिद्धान्तशास्त्र के रहस्य ज्ञाता ऐलाचार्य हुए। ये चित्रकूट (चित्तौड़) नगर के निवासी थे। इनके पास में रहकर वीरसेनाचार्य ने सकल सिद्धान्तों का अध्ययन कर निबन्धन आदि आठ अधिकारों (धवला टीका) को लिखा था । वीरसेन ने धवला टीका शक सम्वत् ७३८ (८१६ ई.सं.) में समाप्त की थी। अतः एलाचार्य आठवीं शताब्दी में चित्तौड़ रहते रहे होंगे । इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । अतः ये वाचक गुरु के रूप में ही प्रसिद्ध थे। आचार्य वीरसेन ने चित्तौड़ में अपना अध्ययन किया था। गुरु एलाचार्य की अनुमति से इन्होंने वाटग्राम (बड़ोदा) को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था । वीरसेन संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने ७२००० श्लोक-प्रमाण समस्त खण्डागम की धवला टीका लिखी है । तथा कषायप्राभृत की चार विभक्तियों की २०,००० श्लोक प्रमाण जयधवलाटीका लिखने के उपरान्त इनका स्वर्गवास हो गया था। आचार्य वीरसेन की ये दोनों टीकाएँ उनकी अगाध प्रतिभा और पाण्डित्य की परिचायक हैं । जिस प्रकार 'महाभारत' में वैदिक परम्परा की समस्त सामग्री ग्रथित है, उसी प्रकार वीरसेन की इन टीकाओं में जैन दर्शन के सभी पक्ष प्रतिपादित हुए हैं। भारतीय दर्शन, शिल्प एवं विभिन्न विद्याओं की भरपूर सामग्री इन टीका ग्रन्थों में है। इनकी भाषा प्राकृत और संस्कृत का मिश्रित रूप है। U mmy MITIES ....... WARNIN RS ...... . IIHIDILA गिरिमार १. जैन, जगदीशचन्द्र, 'प्राकृत साहित्य का इतिहास', पृ० ३३२ । २. जैन, प्रेमसुमन, 'कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ । ३. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः ।। तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमघीत्य वीरसेन गुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्याधिकारानष्ट च लिखि ।। -श्रु तावतार, श्लोक, १७७-७८ । ४. धवला टीका, प्रथम पुस्तक, प्रस्तावना । - PARAN DOHO VDO 280 GURUDRUITELiend FoPrivateersonali www.jainelibrary.org

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