Book Title: Mevad ka Prakrit Sanskrit evam Apbhramsa Sahitya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ मेवाड़ का प्राकृत, अपभ्रश एवं संस्कृत साहित्य | 207 संकलित है / संस्कृत की इन रचनाओं में गुजराती, मेवाड़ी और देशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है, जो भाषा-विज्ञान की अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। १५वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि हए हैं-महोपाध्याय चरित्नरत्नगणि। इन्होंने सं० 1466 में चित्तौड़ में 'दान प्रदीप' नामक ग्रन्थ की रचना संस्कृत में की थी। ग्रन्थ में दान के प्रकार एवं उनके फलों का अच्छा विवेचन हुआ है। इस ग्राथ में अनेक लौकिक कथाएँ भी दी गयी हैं। इसी शताब्दी में जयचन्द्र सूरि के शिष्य जिनहर्षगणि ने वि०सं० 1467 में चित्तोड़ में 'वस्तुपाल चरित' की रचना की थी। यह काव्य ऐतिहासिक और काव्यात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें वस्तुपाल एवं तेजपाल चरित्र के अतिरिक्त प्रासंगिक रूप से कई दृष्टान्त और कथाएँ भी दी 000000000000 000000000000 संस्कृत प्रशस्तियाँ मेवाड़ राज्य में संस्कृत की अनेक प्रशस्तियाँ व अभिलेख उपलब्ध हैं। इनका केवल ऐतिहासिक ही नहीं, अपितु काव्यात्मक महत्त्व भी है / इस प्रकार की प्रशस्ति-लेखन में जैनाचार्यों का भी योग रहा है। १२वीं शताब्दी के दिगम्बर विद्वान् रामकीर्ति ने चित्तौड़गढ़ में सं० 1207 में एक प्रशस्ति लिखी थी। जो वहाँ के समिधेश्वर महादेव के मन्दिर में लगी हुई है। कालीशिला पर उत्कीर्ण इस 28 पंक्तियों की प्रशस्ति में शिव और सरस्वती स्तुति के उपरान्त चित्तौड़गढ़ में कुमारपाल के आगमन का विवरण दिया गया है। प्रशस्ति छोटी होने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। मेवाड़ के दूसरे जैन प्रशस्तिकार आचार्य रत्नप्रभसूरि हैं। इन्होंने महारावल तेजसिंह के राज्यकाल में जो प्रशस्ति लिखी थी वह चित्तौड़ के समीप 'घाघसे' की बावड़ी में लगी हुई थी। इसकी रचना वि०सं० 1322 कार्तिक कृष्णा 1 रविवार को हुई थी। इसमें तेजसिंह के पिता जैत्रसिंह द्वारा मालवा, गुजरात, तुरुष्क और सांभर के सामन्तों की पराजय का उल्लेख हैं। 3 रत्नप्रभसूरि की दूसरी महत्त्वपूर्ण प्रशस्ति चीरवां गांव की है। वि०सं० 1330 में लिखित इस प्रशस्ति में कुल संस्कृत के 51 श्लोक हैं। इसमें चेत्रागच्छ के कई आचार्यों का नामोल्लेख है तथा गुहिल वंशी बापा के वंशजों में समरसिंह आदि के पराक्रम का वर्णन है। गुणभद्र मुनि ने वि० सं० 1226 में बिजौलिया के जैन मन्दिर की प्रशस्ति लिखी थी। इसमें कुल 63 श्लोक हैं। इस प्रशस्ति में पार्श्वनाथ मन्दिर के निर्माताओं के अतिरिक्त सांभर के राजा तथा अजमेर के चौहान नरेशों की वंशावली भी दी गयी है / 5 १५वीं शताब्दी में चरित्ररत्नगणि ने महावीर प्रासाद प्रशस्ति लिखी थी। इस प्रशस्ति में तीर्थकरों और सरस्वती की स्तुति के उपरान्त मेवाड़ देश का सुन्दर वर्णन किया गया है। चित्तौड़ को मेवाड़ रूपी तरुणि का मुकुट कहा गया है। इसमें मन्दिर के निर्माता गुणराज की बंशावली दी गयी है। इस प्रकार मेवाड़ के संस्कृत साहित्य के विकास में इन प्रशस्तिकारों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। मेवाड़ में प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लेखन का प्रारम्भ करने वाले जैन मुनियों ने इस परम्परा को बीसवीं शताब्दी तक बराबर अक्षुण्ण बनाये रखा है। आधुनिक युग में भी अनेक मुनि इस प्रकार के साहित्य लेखन में संलग्न हैं। अतः स्पष्ट है कि मेवाड़ में रचित किसी भी भाषा के साहित्य का इतिहास जैन कवियों की रचनाओं को सम्मिलित किये बिना अधूरा रहेगा। इस साहित्य को आधुनिक ढंग से सम्पादित कर प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। 00 1. नवांगवाधिशीतांशु (1466) मिते विक्रमवत्सरे। चित्रकूट महादुर्गे ग्रन्थोऽयं समापयत / -प्रशस्ति, 16 2. श्री जयकोतिशिष्येण दिगम्बर गणेशिना / प्रशस्तिरीदृशीचक्रे-श्री रामकीर्तिना // 3. वरदा, वर्ष 5, अंक 3 3. वीरविनोद, भाग 1, पृ० 386 / 5. एपिक ग्राफिक इण्डिका, भाग 26 में प्रकाशित / 6. सोमानी, महाराज कु. पृ० 338 KAKANNA

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9