Book Title: Mevad aur jain Dharm Author(s): Balwansinh Mehta Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 4
________________ मेवाड़ और जैनधर्म | १११ । ०००००००००००० ०००००००००००० AND AUTORILE . विक्रमादित्य तथा उदयसिंह का अभिभावक नियुक्त किया। इन्होंने बाबर की कूटनीति से मेवाड़ राज्य के प्रवेश द्वार रणथम्भौर की रक्षा की तथा चित्तौड़ के तीसरे साफे में वीरगति प्राप्त की । इनके पुत्र भामाशाह राणा प्रताप के सखा, सामंत, सेनापति व प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने मेवाड़ के स्वतन्त्रता संग्राम में तन, मन, धन सर्वस्व समर्पण कर दिया । ये हल्दी घाटी व दिवेर के युद्धों में मेवाड़ के सेनापति रहे तथा मालवा व गुजरात की लूट से इन्होंने प्रताप के युद्धों का आर्थिक संचालन किया। भामाशाह के भाई ताराचन्द हल्दीघाटी के युद्ध की बाँयी हरावल के मेवाड़ सेनापति थे। इन्होंने जैन ग्राम के रूप में वर्तमान भींडर की स्थापना की तथा हेमरत्नसूरि से पद्मणि चरित्र की कथा को पद्य में लिखवाया और संगीत का उन्नयन किया। दयालदास अन्य जैन वीर हुए जिन्होंने अपनी ही शक्ति से मेवाड़ की स्वतन्त्रता के शत्रुओं का इतिहास में अनुपम प्रतिशोध लिया । मेहता जलसिंह ने अलाउद्दीन के समय चित्तौड़ हस्तगत करने में महाराणा हम्मीर की सहायता की। मेहता चिहल ने बलवीर से चित्तौड़ का किला लेने में महाराणा उदयसिंह की सहायता की । कोठारी भीमसिंह ने महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय द्वारा मुगल सेनापति रणबाज खां के विरुद्ध लड़े गये युद्ध में वीरता के उद्भुत जोहर दिखाकर वीरगति प्राप्त की। महता लक्ष्मीचन्द ने अपने पिता मेवाड़ी दीवाननाथजी मेहता के साथ कई युद्धों में भाग लेकर वीरता दिखायी और खाचरोल के घाटे के युद्ध में वीरगति प्राप्त की। मांडलगढ़ के किलेदार महता अगरचन्द ने मेवाड़ राज्य के सलाहकार व प्रधानमन्त्री के रूप में सेवा की तथा मराठों के विरुद्ध हुए युद्ध में सेनापति के रूप में वीरता के जौहर दिखाये और महाराणा अरिसिंह के विषम आर्थिक काल में मेवाड़ की सुव्यवस्था की। इनके पुत्र मेहता देवीचन्द ने मेवाड़ को मराठों के आतंक से मुक्त कर मांडलगढ़ में उन्हें अपनी वीरता से करारा जवाब दिया। बाद में ये भी अपने पिता की भाँति मेवाड़ के दीवान बनाये गये और उन्होंने भी आर्थिक संकट की स्थिति में राज्य की सुव्यवस्था की। तोलाशाह महाराणा सांगा के परम मित्र थे। इन्होंने मेवाड़ के प्रधानमन्त्री पद के सांगा के प्रस्ताव को विनम्रता से अस्वीकार किया किन्तु अपने न्याय, विनय, दान, ज्ञान से बहुत कीर्ति अजित की। इन्हें अपने काल का कल्पवृक्ष कहा गया है। इनके पुत्र कर्माशाह सांगा के प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने शहजादे की अवस्था में बहादुरशाह को उपकृत कर शत्रुञ्जय के जीर्णोद्धार की आज्ञा प्राप्त की और करोड़ों रुपया व्यय कर शत्रुञ्जय मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। इनके अतिरिक्त और कई जैन प्रधानमन्त्री हुए जिन्होंने मेवाड़ राज्य की अविस्मरणीय सेवाएँ की । महाराणा लाखा के समय नवलाखा गोत्र के रामदेव जैनी प्रधानमन्त्री थे। महाराणा कुम्भा के समय बेला भण्डारी तथा गुणराज प्रमुख धर्मधुरीण व्यापारी व जैन वीर थे । इसी समय रत्नसिंह ने राणपुर का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया। महाराणा विक्रमादित्य के समय कुम्भलगढ़ के किलेदार आशाशाह ने बाल्य अवस्था में राणा उदयसिंह को संरक्षण दिया । मेहता जयमल बच्छावत व मेहता रतनचन्द खेतावत ने हल्दीघाटी के युद्ध में वीरता दिखाकर वीरगति प्राप्त की। महाराणा अमरसिंह का मन्त्री भामाशाह का पुत्र जीताशाह था और महाराणा कर्मसिंह का मन्त्री जीवाशाह का पुत्र अक्षयराज था। महाराणा राजसिंह का मन्त्री दयालशाह था । महाराणा भीमसिंह के मन्त्री सोमदास गाँधी व मेहता मालद मालदास थे। सोमदास के बाद उसके भाई सतीदास व शिवदास मेवाड़ राज्य के प्रधानमन्त्री रहे। महाराणा भीमसिंह के बाद रियासत के अन्तिम राजा महाराणा भूपालसिंह तक सभी प्रधानमन्त्री जैनी रहे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मेवाड़ राज्य के आरम्भ से अन्त तक सभी प्रधानमन्त्री जैनी थे। इन मन्त्रियों ने न केवल मेवाड़ राज्य की सीमा की कार्यवाहियों के संचालन तक अपने को सीमित कर राज्य की सुव्यवस्था की बल्कि अपने कृतित्व-व्यक्तित्व से जन-जीवन की गतिविधियों को भी अत्यधिक प्रभावित किया और इस राज्य में जैन मन्दिरों के निर्माण व अहिंसा के प्रचार प्रसार के भरसक प्रयत्न किये । हम पाते हैं कि जिन थोड़े कालों में दो-चार अन्य प्रधानमन्त्री रहे उन कालों में मेवाड़ राज्य में व्यवस्था के नाम पर बड़ी विषम स्थितियाँ उत्पन्न हुईं। इसलिये मेवाड़ के इतिहास में स्वर्णकाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जैन अमात्यों के वंशधरों को महाराणाओं ने इस पद के लिये पुनः आमन्त्रित किया और बाद में यह परम्परा ही बन गई कि प्रधानमन्त्री जैनी ही हो । यहाँ जैन लोगों ने इतिहास के निर्माण में भी बड़ी सही भूमिका निभायी। राजपूताने के मुणहोत नैणसि के साथ कर्नलटाड के गुरु यति ज्ञानचन्द, नैणसि के इतिहास के अनुवादक डूंगरसिंह व मेहता पृथ्वीसिंह का नाम इतिहासज्ञों में उल्लेखनीय है, तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजयी ने ऐतिहासिक सत्यों-तथ्यों के संग्रह से ASS PmM ----::SBA.int/raharPage Navigation
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