Book Title: Mevad aur jain Dharm Author(s): Balwansinh Mehta Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 1
________________ - श्री बलवन्तसिंह मेहता [रैन बसेरा, उदयपुर मेवाड़ की सांस्कृतिक संपदा के उन्नयन में जैनधर्म का अपूर्व योगदान रहा है। शिल्प, स्थापत्य, साहित्य राजनीति एवं व्यापार-उद्योग आदि क्षेत्रों में । जैनधर्म की भूमिका का ऐतिहासिक विहंगावलोकन यहाँ प्रस्तुत है। 000000000000 ०००००००००००० मेवाड़ और जैनधर्म मेवाड़ में जैन धर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि उसका इतिहास । मेवाड़ और जैन धर्म का मणिकाञ्चन का संयोग है । मेवाड़ आरम्भ ही से जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र रहा है । मेवाड़ भारत वर्ष के प्राचीनतम स्थानों में से है और आरम्भ से ही शौर्य प्रधान रहा है । भारतवर्ष में सिन्धुघाटी सभ्यता काल के और पूर्व ऐतिहासिक काल के यदि कहीं नगर मिलेंगे तो मेवाड़ में ही पाये जायेंगे और उनके नामकरण भी जैन धर्म की मूल भाषा अर्धमागधी में और वे भी सुन्दर रूप में । आयड़ की सभ्यता महेन्जादोरा के समान प्राचीन और चित्तौड़ के पास मज्झिमिका महाभारत कालीन नगर पाये गये हैं जो जैन धर्म के बड़े केन्द्र रहे हैं । शारदापीठ बसन्तगढ़ जैनियों का प्राचीन सांस्कृतिक शास्त्रीय नगर रहा है । संसार के प्रथम सहकार एवं उद्योग केन्द्र जावर का निर्माण और उसके संचालन का श्रेय प्रथम जैनियों को ही मेवाड़ में मिला है । दशार्णपुर जहाँ भगवान महावीर के पदार्पण, आर्य रक्षित की जन्म भूमि और आचार्य महागिरी के तपस्या करने के शास्त्रीय प्रमाण हैं और नाणादियाणा और नादियों में भगवान महावीर की जीवन्त प्रतिमाएं मानी गई हैं वे सब इसी मेवाड़ की भूमि के अंग रहे हैं । आज भी ऋषभदेव केसरियाजी जैसा तीर्थ भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । और राणकपुर जैसा गोठवण शिल्पयोजना का भव्य विशाल व कलापूर्ण मन्दिर अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। चित्तौड़गढ़ जो भारतवर्ष का एकमात्र क्षात्रधर्म का तीर्थ माना जाता है मौर्य जैन राजा चित्रांग का बसाया हुआ है और बौद्धो और जैनियों का समान रूप से वन्दनीय तीर्थ स्थान ही नहीं रहा किन्तु प्रायः सब ही जैनाचार्यों की कर्मभूमि, धर्मभूमि और उनकी विकास भूमि भी रही है। भारत के महानतत्त्व विचारक, समन्वय के आदि पुरस्कर्ता, अद्वितीय साहित्यकार एवं महान शास्त्रकार हरिभद्र सूरि और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की एकमात्र विदुषी एवं तपस्विनी साध्वी याकिनी महत्तरा की यह जन्म भूमि है । जैन जगत के मार्तण्ड सिद्धसेन चित्तौड़ की साधना के बाद ही दिवाकर के रूप में प्रगट हुए। जैन धर्म में फैले हुए अनाचार को मिटा उसे शुद्ध रूप में प्रकट करने के लिए जिन वल्लभ सूरि ने गुजरात से आकर यहीं से आन्दोलन आरम्भ किया जो सफल हो, देश में सर्वत्र फैल गया है । हरिभद्रसूरि और जिनदत्त सूरि ने लाखों व्यक्तियों को प्रति बोधित कर उन्हें अहिंसक बनाया, उसका आरम्भ भी यहीं से हुआ। अशोक के समान बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाला यदि जैन धर्म में कोई हआ तो वह था उसका पौत्र संप्रति । मेवाड, मालवा और सम्पूर्ण पश्चिमी भारत उसके हिस्से में होने से पूर्ण रूप से जीव हिंसा का निषेध था और चित्तौड़ में ७वीं शताब्दी तक उसी के वंशज मौर्यों का ही राज्य रहा है। किन्तु मेवाड़ के शैव राजाओं पर भी जैन धर्म का प्रभाव बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया था कि चित्तौड़ के रावल तेजसिंह ने तो परम भट्टारक की जैन पदवी धारण की और उसके पुत्र समरसिंह ने, अंचल गच्छ के अमितसिंह सूरि के उपदेश से सम्पूर्ण मेवाड़ राज्य में जीव हिंसा निषेध की आज्ञा इसी चित्तौड़ भूमि से निकाली गई । आयड़ में घोर तपस्या करने वाले जगतचन्द्र सूरि को तपा का विरुद दे, तपागच्छ की स्थापना करने वाले, महाप्रतापी चित्तौड़ के ही राजा जैत्रसिंह थे। सिसोदिया साडैयरा, चौदसिया, चौहान । चैत्यवासिया चावड़ा, कुलगुरु एह प्रमाण ॥ For Private & Personal Use Only www.janellorary.org -lain Education IntentionalPage Navigation
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