Book Title: Manussam khu Saddulla Ham
Author(s): Chandanmuni
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 3
________________ मूल पर ही स्कन्ध, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि आधारित रहते हैं। यदि मूल सूख गया तो ऊपर वाले परिकरों की क्या आशा की जा सकती है? प्राचीन जैन ग्रन्थों में यव राजर्षि का एक सुन्दर प्रसंग उल्लिखित है, जो विनयशीलता का जीवन्त उदाहरण है। यवराज यवपुर नामक नगर के राजा थे। उनकी महारानी धारिणी ने एक पुत्र और एक कन्या को जन्म दिया। पुत्र का नाम गर्दभिल्ल तथा कन्या का नाम अणोलिका रखा गया। एक बार महाराज यव अपनी प्रिय पुत्री को गोद में लिये बैठे थे और नन्हीं बालिका के साथ क्रीड़ा: विनोद कर रहे थे, तभी एक नैमित्तिक (भविष्यवक्ता, ज्योतिषी) आया। उसने भविष्यवाणी की कि यह कन्या ऐसी सुलक्षणयुक्त है कि इसका पति निश्चित रूप से राजा होगा। राजपुत्री का पति राजा हो, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी अत: बात आई-गयी हो गई। परन्तु राजा के महामंत्री दीर्घपृष्ठ ने जब यह बात सुनी तो उसके मन में कुछ हलचल मच गई । उसने सोचा कि ज्योतिषी के अनुसार अणोलिका का पति अवश्य राजा बनेगा । क्यों न इस कन्या का विवाह मेरे पुत्र के साथ हो जाय, मेरा पुत्र भी कोई मांडलिक नरेश बन जायेगा। अस्तु- समय बीतता रहा । गर्दभिल्ल पढ़ लिख कर योग्य बन गया। कन्या अणोलिका भी क्रमश: तारुण्य की ओर बढ़ने लगी। - एक बार चतुर्ज्ञानी आचार्य अभिधान सूरि का यवपुर में पदार्पण हुआ। धर्मोपदेश सुनकर राजा यव प्रतिबुद्ध हुये। उन्होंने तत्काल राज्य-शासन का परित्याग कर संयम-जीवन स्वीकार कर लिया। राज-काज का सारा भार राजकुमार गर्दभिल्ल पर आ पड़ा । दीर्घपृष्ठ सुयोग्य मंत्री था अत: राज्यकार्य के संचालन में वह पूरा सहयोग करने लगा। नये राजा गर्दभिल्ल ने शीघ्र ही सारी व्यवस्थाएं अपने नियन्त्रण में ले लीं। राजर्षि यव मुनि बनकर गुरु की सेवा में तल्लीन हो गये। विनयशील होने के साथ साथ ये बड़े व्यवहार-कुशल तथा इंगिताकार-सम्पन्न भी थे। राजर्षि की अकृत्रिम भक्ति से गुरु भी बहुत प्रसन्न थे । गुरु चाहते थे कि सेवा-वैयावृत्त्य आदि के साथ-साथ यव कुछ ज्ञानार्जन भी करे अत: वे बार-बार उन्हें ज्ञानार्जन की प्रेरणा देते, यवऋषि ! तुम्हें ज्ञानार्जन के लिये कुछ परिश्रम करना चाहिये । ज्ञान दीपक है, ज्ञान परम ज्योति है। क्रिया से भी ज्ञान का स्थान प्रथम है । अत: तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए परन्तु यवराजर्षि के मस्तिष्क में यह भ्रम घर कर गया था कि मैं तो ढलती वय वाला हूं । अब मुझे ज्ञान-प्राप्ति कैसे हो सकती है? मैं तो गुरु-भक्ति के द्वारा ही कर्मों श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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