Book Title: Mantrajap ke Prakar aur Uska Vaigyanik Mahattva Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 4
________________ परमाणु होते हैं । उससे आहारक वर्गणा के परमाणुसमूह में ज्यादा परमाणु होते हैं । उसी तरह उत्तरोत्तर वर्गणा के परमाणुसमूह में ज्यादा ज्यादा परमाणु होते हैं अतः उसका परिणाम भी ज्यादा ज्यादा सूक्ष्म होता जाता है । अतः भाषा वर्गणा के परमाणसमूह से मनो वर्गणा के परमाणुसमूह में | ज्यादा परमाणु होते हैं । यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि जैन आगमों को विक्रम की पाँचवीं छट्टी शताब्दी में लिपिबद्ध किया गया । उसके पूर्व जैन श्रमण परंपरा से आगम कंठस्थ रखने की परंपरा विद्यमान थी । जबकि आधुनिक भौतिकी के क्वॉन्टम मैकेनिक्स का अनुसंधान अभी हाल ही में विक्रम की वीसवीं सदी के अन्त में हुआ है। ___ आधुनिक भौतिकी के अनुसार ध्वनि - शब्द अर्थात् भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह का वेग केवल 330 मीटर सैकंड होता है । जबकि तेजस् वर्गणा के परमाणुसमूह अर्थात् विद्युचुंबकीयतरंगें (electromagnetic waves), प्रकाश व रेडियो और टी. वी. की तरंग का वेग 30 करोड़ मीटर/सैकंड होता है । अतएव भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह में तैजस वर्गणा के परमाणुसमूह से ज्यादा परमाणु होने पर भी उसकी शक्ति कम मालुम पडती है । जबकि मनोवर्गणा के मन स्वरूप या विचार स्वरूप में परिणत परमाणुसमूह में सबसे ज्यादा परमाणु होते हैं | साथ-साथ हम अपने दैनिक जीवन में अनुभव करते हैं कि मन या विचारों के पुदगल अर्थात् परमाणुसमूह की गति भी ज्यादा तेज होती है । अतः उसकी शक्ति भी| सबसे अधिक होती है । ___ आध्यात्मिक ऋषि-मुनिओं द्वारा बताये गये जाप के प्रकार में प्रथम वाचिक जाप में भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह का उपयोग होता है और उसका वेग बहुत कम होने से उसकी आवृत्ति भी बहुत ही कम होती है । उसी कारण से उसकी शक्ति भी बहुत कम होती है । अतः इस प्रकार किये। गये जाप में उसकी ध्वनि उस मंत्र के अधिष्ठाता देव-देवी तक पहुँचने में देरी लगती है । इतना ही नहीं उसकी तीव्रता भी बहुत कम हो जाती है । __ जबकि दूसरे प्रकार के उपांशु. जाप में भी भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह का ही उपयोग होता है और उसका वेग भी 330 मीटर/सैकंड होता है। किन्तु उसके द्वारा जाप में अश्राव्य ध्वनि तरंगे पैदा होती हैं । सामान्यरूप से हमारे कान ज्यादा से ज्यादा 20,000 की आवृत्ति वाली ही ध्वनि सुन 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5