Book Title: Malva ke Swetambara Jain Bhasha Kavi Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 3
________________ मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा-कवि २७१ विवरण इस होता गया त्यों-त्यों प्रांतीय भाषाओं के नाम अलग से प्रसिद्ध होते गये। जिस भाषा को विद्वानों ने प्राचीन राजस्थानी या मरु-गुर्जर का नाम दिया है वह मालवा में भी चालू रही है । मालवा के अधिकांश जैन श्वेताम्बर श्रावक तो राजस्थान से ही वहां गये हुए हैं। वैसे राजस्थान और मालवा की सीमाएं भी मिली हुई हैं। कई ग्राम-नगर तो शासकों के आधिपत्य को लेकर कभी मालवा में सम्मिलित हो गये तो कभी राजस्थान में । इसलिए श्वेताम्बर जैन भाषा कवियों ने मालवा में रहते हुए भी जो काव्य रचना की है, उसकी भाषा राजस्थानी से भिन्न नहीं है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर राजस्थान, गुजरात और मालवा की भाषा एकसी रही है। बोलचाल की भाषा में तो “बारह कोसे बोली बदले" की उक्ति प्रसिद्ध ही है। आगे चलकर मालवा की बोली पर निकटवर्ती प्रदेश की बोली हिन्दी का प्रभाव भी पड़ा। अत: वर्तमान मालवी बोली राजस्थानी और हिन्दी दोनों से प्रभावित लगती है। फिर भी उसमें राजस्थानी का प्रभाव ही अधिक है । इसीलिए भाषा वैज्ञानिकों ने मालवी को राजस्थानी भाषा समूह की बोलियों के अन्तर्गत समावेशित किया है। मालवा प्रदेश में रचित जिन श्वेताम्बर भाषा कवियों और उनकी रचनाओं का विवरण इस लेख में दिया जा रहा है। उनका आधार ग्रंथ जैन गुर्जर कवियो भाग १-२-३, नामक ग्रंथ हैं । जो गुजराती लिपि में जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस, बम्बई से ३०-४० वर्ष पहले छपे थे और इन ग्रन्थों को कई वर्षों के श्रम से अनेक जैन ज्ञान भण्डारों का अवलोकन करके जैन साहित्य महारथी स्वर्गीय मोहनलाल दुलीचन्द देसाई ने तैयार किया था। उन्होंने इसी तरह प्राकृत संस्कृत के जैन साहित्य और जैन इतिहास का विवरण अपने 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक ग्रंथ में दिया है पर खेद है इन महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थों का उपयोग जैनेतर विद्वानों की बात तो जाने ही दें, पर जैन विद्वान भी समुचित रूप से नहीं कर रहे हैं । गुजराती लिपि और भाषा में होने से कुछ जैन विद्वानों को इनके उपयोग में कठिनाई हो सकती है पर गुजराती लिपि तो नागरी लिपि से बहुत कुछ मिलती-जुलती सी है। केवल आठ-दस अक्षरों को ध्यान से समझ लिया जाय तो बाकी सारे अक्षर तो नागरी लिपि जैसे ही हैं। अतः हमारे विद्वानों को ऐसे महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थों से अवश्य लाभ उठाना चाहिए। ___ मालवा के श्वेताम्बर जैन राजस्थानी कवियों में सबसे पहला कवि कौन और कब हुआ तथा उसने कौन-सी रचना की यह तो अभी अन्वेषणीय है। साधारणतया विद्या-विलासी महाराजा भोज के सभा पण्डित एवं तिलोक मंजरी के रचयिता महाकवि धनपाल का जो 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' नामक लघु स्तुति काव्य मिलता है। उसमें अपभ्रंश के साथ कुछ समय तक लोक भाषा के विकसित रूप भी मिलते हैं। उससे मालवी भाषा के विकास के सूत्र खोजे जा सकते हैं। उसके बाद में १५वीं सदी तक भी मालव प्रदेश में बहुत से जैन कवि हुए हैं पर उनकी रचनाओं में रचना स्थान का उल्लेख नहीं होने से यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया जा सका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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