Book Title: Malva ke Swetambara Jain Bhasha Kavi
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा - कवि D साहित्य वाचस्पति श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर । मालव प्रदेश के साथ जैनधर्म का सम्बन्ध बहुत प्राचीन है, विशेषतः उज्जयिनी और दशपुर (मन्दसौर) के तो प्राचीन जैन उल्लेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । मध्यकाल में धार, नलपुर, नरवर, सारंगपुर, देवास, मांडवगढ़ आदि स्थानों के भी उल्लेख जैन साहित्य में मिलते ही हैं । वहाँ जैनधर्म का अच्छा प्रचार रहा है । समृद्धिशाली व धर्मप्रेमी जैन श्रावकों के वहाँ निवास करने के कारण विद्वान जैनाचार्यों और मुनियों का विहार भी मालवा में सर्वत्र होता रहा है इन स्थानों में रहते हुए उन्होंने अनेकों ग्रंथ भी बनाये हैं । खेद है कि अभी तक मालव प्रदेश के जैनधर्म के प्रचार वाले केन्द्र स्थानों के जैन इतिहास की कोई खोज नहीं की गई। उधर के जैन ज्ञान भंडार भी अभी तक अज्ञात अवस्था में पड़े हैं । अतः मालवा में बने हुए बहुत से जैन ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं आ पाये । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के मालव प्रदेश में अनेक हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहालयों में होंगे । उनका अन्वेषण भली-भांति किया जाना चाहिए । इन्दौर और उज्जैन के जैन ज्ञान भण्डारों की तो थोड़ी जानकारी मुझे है । इन्दौर के दो जैन भण्डारों के सूची - पत्र भी मैंने देखे थे और उज्जैन के एक यति प्रेमविजयजी के जैन भण्डार का सूची पत्र तो छपा भी था, पर सुना है, अब यह सब ग्रन्थ सुरक्षित नहीं रहे । मांडवगढ़ का जैन इतिहास तो बहुत ही गौरवशाली है । पर वहाँ के प्राचीन जैन मन्दिर और ज्ञान भण्डार सब नष्ट हो चुके हैं । धार में भी जैनों का अच्छा प्रभाव था, वहाँ कुछ पुरानी मूर्तियाँ तो हैं, पर ज्ञान भण्डार जानकारी में नहीं आया । उज्जैन के आस-पास में बिखरे हुए जैन पुरातत्त्व का संग्रह पं० सत्यधरजी सेठी ने किया है, पर जैन ज्ञान भण्डारों के सम्बन्ध में अभी तक किसी ने खोज नहीं की । उज्जैन के सिंधिया ओरियंटल इन्स्टीट्यूट में एक यतिजी का संग्रह आया है और अभी तक और भी कई यतियों और श्रावकों के संग्रह इधर-उधर अज्ञातावस्था में पड़े हैं जिनकी जानकारी अभी तक प्रकाश में नहीं आई है । नाचार्यों और मुनियों के सम्बन्ध में यह कहना बहुत कठिन है कि वे मालवा के कवि थे क्योंकि वे तो भ्रमणशील संत थे । वे कभी राजस्थान से गुजरात जाते हैं तो कभी राजस्थान से मालवा जाते हैं । इस तरह अनेक प्रान्तों में धर्म-प्रचार के लिए घूमते रहते हैं । जहाँ धर्म प्रचार विशेष होता दिखाई देता है एवं श्रावकों का विशेष Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ अनुरोध होता है वहीं वे वर्षाकाल के ४ माह ठहरते हैं। उनका जीवन बहुत संयमी होने से वे बहुत सा समय पठन-पाठन ग्रंथ रचने व लिखने में लगाते रहे हैं। इसलिए एक ही कवि की एक रचना राजस्थान में हुई है, तो दूसरी गुजरात में और तीसरी मालवा में, अत: यह नहीं कहा जा सकता कि वे अमुक प्रांत के कवि हैं । बहुत से साधु-साध्वियों का जन्म एवं दीक्षा तो मालवा में हुई पर उनका विहार क्षेत्र-राजस्थान, गुजरात में ही अधिक रहा । १९वीं शताब्दी में विशिष्ट परिस्थितियों के कारण कुछ जैन यति स्थायी रूप से या अधिकांश रूप से एक स्थान पर अपना उपासरा बनाकर रहने लगे। अब उन यतियों के अधिकांश उपासरे खाली पड़े हैं, अर्थात् उनके शिष्य-प्रशिष्य की संतति नहीं रही। हां यह अवश्य सम्भव है कि वहां उनके ग्रन्थ भण्डार अभी तक पड़े हों। पर मालवा के ऐसे यतिजनों के ग्रन्थ भण्डारों की अभी तक खोज ही नहीं हुई । अतः मालवा प्रदेश में रचित जैन साहित्य की बहुत ही कम जानकारी प्रकाश में आयी है। दिगम्बर सम्प्रदाय में साधु-साध्वी तो बहुत ही कम रहे पर श्रावकों में स्वाध्याय का क्रम बराबर चलता रहा। इसलिए जहां-जहाँ भी दिगम्बर जैन मन्दिर हैं वहां थोड़ेबहुत हस्तलिखित शास्त्र अवश्य ही मिलेंगे। उनकी भी खोज की जानी आवश्यक है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी और गुजराती इन पांचों भाषाओं में मालवा प्रदेश में काफी जैन साहित्य रचा गया है । अत: एक-एक भाषा के साहित्य की स्वतंत्र रूप से खोज की जानी आवश्यक है। दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी सम्प्रदाय का भी मालवा प्रदेश में गांव-गांव में निवास है। बहुत से ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों की अंतिम प्रशस्तियों में ग्राम नगरों के नाम दिये हैं पर उनमें प्रदेश का उल्लेख नहीं मिला। अत: वे ग्राम किस प्रदेश के हैं, यह ठीक से नहीं कहा जा सकता । क्योंकि एक ही नाम वाले कई ग्राम नगर भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भी पाये जाते हैं । अतः प्रस्तुत लेख में मालव प्रदेश के जिन-जिन स्थानों के रचित साहित्य की निश्चित जानकारी मिली हैं उन्हीं का विवरण दिया जायगा। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी और दिगम्बर साहित्य की चर्चा इस लेख में नहीं की जा रही है। क्योंकि इसकी खोज में काफी समय व श्रम अपेक्षित है । अत: केवल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के उन कवियों की रचनाओं का ही विवरण इस लेख में देना सम्भव होगा कि जिन्होंने मालव प्रदेश के किसी ग्राम नगर में रचे जाने का स्पष्ट उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। यहाँ एक और भी स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक समझता हूँ कि मालव प्रदेश की बोली साधारण-सी भिन्नता रहते हुए भी राजस्थानी ही रही है । प्राचीनकाल में तो बहुत व्यापक प्रदेश की भाषा एक प्राकृत ही रही। फिर उसमें से अपभ्रंश का विकास हुआ। पर उसमें भी प्रान्तीय भेद, कम से कम साहित्यिक रचनाओं में तो अधिक स्पष्ट नहीं है। इसी तरह अपभ्रंश से जिन प्रान्तीय भाषाओं का विकास हुआ उनमें भी पहले अधिक अन्तर नहीं था। क्रमशः वह अन्तर ज्यों-ज्यों अधिक स्पष्ट Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा-कवि २७१ विवरण इस होता गया त्यों-त्यों प्रांतीय भाषाओं के नाम अलग से प्रसिद्ध होते गये। जिस भाषा को विद्वानों ने प्राचीन राजस्थानी या मरु-गुर्जर का नाम दिया है वह मालवा में भी चालू रही है । मालवा के अधिकांश जैन श्वेताम्बर श्रावक तो राजस्थान से ही वहां गये हुए हैं। वैसे राजस्थान और मालवा की सीमाएं भी मिली हुई हैं। कई ग्राम-नगर तो शासकों के आधिपत्य को लेकर कभी मालवा में सम्मिलित हो गये तो कभी राजस्थान में । इसलिए श्वेताम्बर जैन भाषा कवियों ने मालवा में रहते हुए भी जो काव्य रचना की है, उसकी भाषा राजस्थानी से भिन्न नहीं है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर राजस्थान, गुजरात और मालवा की भाषा एकसी रही है। बोलचाल की भाषा में तो “बारह कोसे बोली बदले" की उक्ति प्रसिद्ध ही है। आगे चलकर मालवा की बोली पर निकटवर्ती प्रदेश की बोली हिन्दी का प्रभाव भी पड़ा। अत: वर्तमान मालवी बोली राजस्थानी और हिन्दी दोनों से प्रभावित लगती है। फिर भी उसमें राजस्थानी का प्रभाव ही अधिक है । इसीलिए भाषा वैज्ञानिकों ने मालवी को राजस्थानी भाषा समूह की बोलियों के अन्तर्गत समावेशित किया है। मालवा प्रदेश में रचित जिन श्वेताम्बर भाषा कवियों और उनकी रचनाओं का विवरण इस लेख में दिया जा रहा है। उनका आधार ग्रंथ जैन गुर्जर कवियो भाग १-२-३, नामक ग्रंथ हैं । जो गुजराती लिपि में जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस, बम्बई से ३०-४० वर्ष पहले छपे थे और इन ग्रन्थों को कई वर्षों के श्रम से अनेक जैन ज्ञान भण्डारों का अवलोकन करके जैन साहित्य महारथी स्वर्गीय मोहनलाल दुलीचन्द देसाई ने तैयार किया था। उन्होंने इसी तरह प्राकृत संस्कृत के जैन साहित्य और जैन इतिहास का विवरण अपने 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक ग्रंथ में दिया है पर खेद है इन महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थों का उपयोग जैनेतर विद्वानों की बात तो जाने ही दें, पर जैन विद्वान भी समुचित रूप से नहीं कर रहे हैं । गुजराती लिपि और भाषा में होने से कुछ जैन विद्वानों को इनके उपयोग में कठिनाई हो सकती है पर गुजराती लिपि तो नागरी लिपि से बहुत कुछ मिलती-जुलती सी है। केवल आठ-दस अक्षरों को ध्यान से समझ लिया जाय तो बाकी सारे अक्षर तो नागरी लिपि जैसे ही हैं। अतः हमारे विद्वानों को ऐसे महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थों से अवश्य लाभ उठाना चाहिए। ___ मालवा के श्वेताम्बर जैन राजस्थानी कवियों में सबसे पहला कवि कौन और कब हुआ तथा उसने कौन-सी रचना की यह तो अभी अन्वेषणीय है। साधारणतया विद्या-विलासी महाराजा भोज के सभा पण्डित एवं तिलोक मंजरी के रचयिता महाकवि धनपाल का जो 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' नामक लघु स्तुति काव्य मिलता है। उसमें अपभ्रंश के साथ कुछ समय तक लोक भाषा के विकसित रूप भी मिलते हैं। उससे मालवी भाषा के विकास के सूत्र खोजे जा सकते हैं। उसके बाद में १५वीं सदी तक भी मालव प्रदेश में बहुत से जैन कवि हुए हैं पर उनकी रचनाओं में रचना स्थान का उल्लेख नहीं होने से यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया जा सका है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी से मालवा के ग्राम नगरों में रचे जाने की स्पष्ट सूचना देने वाली रचनाएँ मिलने लगती हैं। अत: वहीं से श्वेताम्बर जैन कवियों और उनकी रचनाओं का विवरण देना प्रारम्भ कर रहा हूँ। करीब ४०० वर्षों तक यह परम्परा ठीक से चलती रही है। अत: इस लेख में १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ से १८वीं शताब्दी तक की ३०० वर्षों के मालवा में रचित श्वेताम्बर जैन भाषा साहित्य का संक्षिप्त उल्लेख किया जायेगा। १. सम्वत् १५०७ में ओसवंशीय आनन्द मुनि ने धर्म लक्ष्मी महतरा भाख नामक ५३ पद्यों का ऐतिहासिक काव्य बनाया जो कि 'जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय' नामक ग्रंथ में प्रकाशित भी हो चुका है। इसमें रत्नाकरगच्छ के रत्नसिंह सूरि के समुदाय की धर्मलक्ष्मी महतरा का ऐतिहासिक परिचय दिया जाता है । वे विहार करती हुई मांडवगढ़ पहुँचती हैं, उसका वर्णन करते हुए कवि लिखता है मांडवगढ़ गिरि आवीया मे ननिहिं मनोरथ लाहि । श्री धर्म लक्ष्मी मुहतर वांदुउ, सफल जन्म तुम्ह होहिं ॥३६॥ भाग्य विशेषिइ पुहतां श्री रत्नसिंह सूरिंद । श्रीधर्मलक्ष्मी मुहतर साचिहु, पेखवि अति आणंद ॥३७॥ इण अवसरि नित महा महोत्सव, श्री संघपति उल्लास ।। मालवदेस नयरि गठि मंदिरि पूरई वंछित आस ॥३८॥ हंस गमणि मृग लोयणि सुन्दरि, अहवि करइ सिंगार।। हसमसि नारि वधावइ मोती, इण परि रंग अपार ॥३६॥ दिये उपदेश अस्योम अनोपम, बूझइ जाण-अजाण । भल विदवास तथा चित चमकइ, महिमा मेरु समाण ॥४०।। अन्त में कवि ने रचनाकाल, स्थान व मांडवगढ़ के श्रावकों का उल्लेख करते हुए लिखा है : गुरुआ अ आचार, कीधा गुण नवि वीसरई । जाणती अ गुरु उवयार, श्रीधर्मलक्ष्मी मुहतरा ॥ मंडवू अ नयर प्रवेसि, संवत (१५०७) पनरसतोतरइ । श्री मुहतरु भास करेसि, ओसवंसि आनंद मुनि ।। श्री संघ अ सिं अनदिन मंडण भीम सहोदरु मे। सोती ओ भोजा तन, संघपति माणिक पय नमइ ॥ धामिणि मे दो आसीस, श्री रयणसिंह सूरि परिवार सहा । जीवू ओ कोडी वरीस, श्री धर्मलक्ष्मी महतरा ऐ ।। दूहा-श्री धर्मलक्ष्मी मुहतरा, अविचल जी ससिभाण । अह निसि अह गुण गाइतां, रिद्धि वृद्धि कल्याण ।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा कवि २७३ २. सम्वत् १५१६ में खरतरगच्छ की पिटपलक शाखा के स्थापक विद्वान जैनाचार्य जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य न्यायसुन्दर उपाध्याय ने विद्या विलास नरेन्द्र चौपाई की रचना नरवर में की । ३५७ पद्यों का यह चरित्र - काव्य अभी अप्रकाशित है । इसके वे अंतिम तीन पद्य नीचे दिये जा रहे हैं जिनमें कवि ने ग्रन्थ का नाम, गुरु व अपना नाम तथा रचनाकाल एवं स्थान का उल्लेख किया है इणि परि पूरउ पाली आऊ । देवलोक पहुतउ नर राउ | खरतरगच्छ जिनवर्धन सूरि । तासु सीस बहु आणंद पूरि ॥ श्री अ न्याय सुन्दर उवझाय । नरवर किध प्रबन्ध सुभाग ॥ संवत् पनर सोल (१५१६) वरसंमि । संघ वयण से विहिया सुरंमि ॥ विद्या विलास नरिंद चरित्र । भविय लोय कहूँ अव पवित्र ॥ जेनर पढई सुई सांभलई | पुण्य प्रभाव मनोरथ फलई ॥ ३. सम्वत् १५६१ में कवि ईश्वर सूरि ने ललितांग चरित्र नामक सुन्दर काव्य दशपुर (मन्दसौर) में बनाया । काव्य की दृष्टि से यह बहुत उल्लेखनीय एवं मनोहर है । इसकी प्रशस्ति में कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी प्राप्त हैं। इसकी भाषा भी कुछ अपभ्रंश प्रभावित है । इसे अवश्य प्रकाशित करना चाहिये । पाटण भण्डार में इसकी प्रति है । इसमें छन्दों का वैविध्य भी उल्लेखनीय है । प्रशस्ति देखिये - परिवार जुत्र ॥ महि महति मालव देश, घणा कणय लच्छि निवेस | सिंह नयर मंडव दुग्ग, अहि नवउ जाण कि सग्ग || सिंह अतुल बल गुणवंत, श्री ग्यास सुत जयवंत । समरथ साहस धीर, श्री पातिसाह निसीर ॥ तसु रज्जि सकल प्रधान, गुरु रुव रयण निधान । हिन्दुआ राय वजीर, श्री पुंज मयणह धीर ॥ श्रीमाल वंश वयंश, मानिनी मानस हंस सोना राय जीवन पुत्र बहु पुत्र श्री मलिक माकर पहि, हय गय सुदृढ़ बहु चहि । श्री पुंज पुज नरीन्द्र बहु कवित केलि सुछंद ॥ दश पुरह नयर मझारि, श्री संघ तणइ आधारि । श्री शांति सूरि सुपसाई, दुह दुरिय दूर पुलाई ॥ सेसि रसु विक्रम काल (१५६१), ए चरिय रचिउ रसाल । जां ध्रुव रवि ससि नभर, तहाँ जयउ गच्छ संडेर || वाचंत वीर चरित, विच्छरउ जगि जय तसु मणुअ भव धन्न, श्री पासनाहु कित्ति । प्रसन्न ॥ धन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ इसका अपर नाम 'रासक चूड़ामणि पुण्य प्रबन्ध' भी दिया है। इसमें गाथा, दूहा, षटपद, कुण्डलिया, रसावला वस्तु, इन्द्रवज्रा, अडिल्ल, सूर बोली, वर्णन बोली, यमक बोली, सोरठी आदि १६ तरह के छन्द प्रयुक्त हैं। ४. सम्वत् १५६५ के भादवा सुदि ७ गुरुवार को मण्डप दुर्ग में मलधार गच्छ के कवि हीरानन्द ने 'विद्या-विलास पवाड़ों' नामक चरित-काव्य बनाया। उसकी प्रति भण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट पूना के संग्रह में है । ५. १७वीं शताब्दी के आगमगच्छीय कवि मंगल मणिक ने उज्जयिनी में रहते हुए दो सुन्दर लोक कथा काव्य बनाये । जिनमें से प्रथम विक्रम राजा और खापरा चोर रास की रचना सम्वत् १६३८ के माघ सुदी ७ के रविवार को पूर्ण हुई। दूसरी रचनाअम्बड़ कथानी चौपाई का प्रारम्भ तो सम्वत् १६३८ के जेठ सुदी पांचम गुरुवार को कर दिया गया था पर उसकी पूर्णाहुति सम्वत् १६३६ के कार्तिक सुदी १३ के दिन उज्जयिनी में हुई। इसकी प्रशस्ति में भट्टी खास निजाम और भानु भट्ट एवं मित्र लाडजी का उल्लेख किया है । मित्र लाडजी दरिया गुणी की प्रार्थना और मुनि लाडस के आदर के कारण ही इस रास की रचना की गई है। उजेणीइ रही चोमासि, कथा रची ओ शास्त्र विभासि । विनोद बुधि वीर रस बात, पण्डित रसिक मांहि विख्यात ।।५७।। भरी खांन नदू ज जाम पसाय, विद्या भणी भानु मेर पाय । मित्र लाडजी सुणि वा कालि, वाची कथा विडालधी राजि । कहई वाचकय मंगल माणिक्य, अम्बड़ कथा रसई आधिक्य ।। ते गुरु कृपा तणो आदेश, पूरा सात हुआ आदेश ॥५८।। ६. सम्वत् १६६२ के वैशाख सुदी १५ गुरुवार को उज्जैन में तपागच्छीय कवि प्रेमविजय ने १८५ दोहों का 'आत्म-शिक्षा' नामक उपयोगी ग्रन्थ बनवाया जो प्रकाशित भी हो चुका है। संवत् सोल वासठ (१६६२), वैशाख पुन्यम जोय । वार गुरु सहि दिन भलो, अ संवत्सर होय ।। नगर उजेणीयां वली, आतम शिक्षा नाम । मन भाव धरी ने तिहां, करी सीधां वंछित काम ॥ अकशत अशी पांच अ, इहा अति अभिराम । भणे सुणे जे सांभणे ते, लहे शिव ठाम ॥१८५।। ७. सम्वत् १६७२ के मगसिर सुदी १२ को उज्जैन में कवि कृपासागर ने नेमिसागर उपाध्याय निर्वाण रास १० ढालों, १३५ पद्यों का बनाया। यह एक ऐतिहासिक काव्य है। इसके प्रथम पद्य में उज्जैन के अवन्ती पार्श्वनाथ का स्मरण किया गया है। रचना सम्वत् व स्थान का उल्लेख इस प्रकार है Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा-कवि २७५ सम्वत सोल बिहुत्तरइ, नयर उजेणी मझार जी। मगसिर सुदि वारस दिने, थुणिऊ श्री अणगारोजी । जैन गुर्जर कवियो भाग १ पृष्ठ १८४ के अनुसार यह रास प्रकाशित भी हो चुका है। ८. इसी बीच सम्वत् १६६१ में तपागच्छीय कवि विजयकुशल के शिष्य ने शील रत्न रास की रचना की। इस रास का प्रारम्भ उज्जैन के निकटवर्ती सामेर नगर में किया गया था । पूर्णाहुति मगसी पार्श्वनाथ के प्रसाद से हुई है। मालव देश मनोहर दीढि मोहि मन । शेलडी स्याल्य गोधुम विणा, अहवऊ हेश रतन्न ॥११॥ श्री मगसी पास पसाऊलि, कीधउ रास रतन्न । भविक जीव तने सांभली, करयो शील जतन्न ॥१२॥ सामेर नगर सोहामणु, नयर ऊजाणी पास । वाडी वन सर शोभतु जिहां छि देव नीवास ॥१३॥ सम्वत सोल अकसठि कीधऊ रास रसाल । शील तणा गुणमि कहि मूकी आल प्रपाल ॥१४॥ ६. सम्वत् १६७६ के सावण बदी ६ गुरुवार को दशपुर में विजय गच्छ के कवि मनोहरदास ने 'यशोधर चरित्र' काव्य बनाया, जिसकी प्रति बड़ौदा सेन्ट्रल लायब्रेरी में है। सम्वत सोल छहतरई सार । श्रावणवदि षष्ठि गुरुवार । दशपुर नवकण पास पसाय । रच्यो चरित्र सबइ सुखदाय ॥ विजयगच्छि गुण सूरि सूरिंद । जस दरसण हुई परमाणंद ॥ श्रीमुनि देवराज सुखकन्द । तास शिष्य मल्लिदास मुनिन्द ।। तस पद पंकज सेवक सदा । मनोहरदास कहई मुनि मुदा ॥ जा मन्दिर अवनी चिर रहई । तां लगि अ चरित्र गह गहई । राय जसोधर तणो चरित्र । सांभलतां हुई पुण्य पवित्र ॥ ओ चरित्र नरनारी भणई । तेहनइ लिछमी घर आंगणई ॥ १०. सम्वत् १६६३ के जेठ वदी १३ गुरुवार को सारंगपुर गुजराती लोकागच्छीय कवि रामदास ने दान के महात्म्य पर पुण्यपाल का रास बनाया। इसमें चार खण्ड हैं, कुल गाथाएँ ८२३ हैं। सम्वत सोल त्रयाणुवा (१६९३) वर्षे, मालव देश मझारि । सारंगपुर सुन्दर नगरे, जेठ वदि तेरसरे वृहस्पतिवार । पुन्यपाल चरित सोहामणो, सांभले जे नर सुजाण । ऋद्धि समृद्ध सुख-सम्पदा, ते पगि पगि पामेरे कोडि कल्याण ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ ११. सम्वत् १७३० के विजयदशमी गुरुवार को मालवा के शाहपुर में 'सती मृगांकलेखारास' तपागच्छीय कवि विवेक विजय ने चार खण्डों वाला बनाया। उसमें ३५ ढालें हैं। श्री वीर विजय गुरु सुपसायो, मृगांक लेखा रास गायो रे । श्री ऋषभदेव संघ सानिद्धे, सरस सम्बन्ध सवायो रे। सुखीयाने सुणंता सुख वाद्धे, विरह टले. विजोगो रे । विवेकविजय सती गुण सुण्यां पांगे वंछित भोगा रे। सम्वत सतरंजीवा (१७३०) वरचे, विजय दशमी गुरुवार रे । साहपुर सो भीत मालवे रास रच्यो जयकार रे । १२. सम्वत् १७१८ के वैशाख सुदी १० को भोपावर में शान्तिनाथजी के प्रसाद से तपागच्छीय कवि श्री मानविजय ने नव तत्व रास बनाया जो १५ ढालों में है। सम्वत सतर अठारई, वैशाख सुदि दशमी सार। श्री शान्तीसर सुदसाय, पुर भोपावर मांहि ॥ मालवा प्रदेश में कतिपय जैन तीर्थ भी हैं जिनमें मगसी पारसनाथ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के मान्य हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनेक कवि जिन्होंने इस तीर्थ की यात्रा की थी उन्होंने यहाँ के पार्श्वनाथ के कई स्तुति-काव्य बनाये हैं। उनमें से विजयगच्छीय श्री उदयसागरसूरि रचित 'मगसी पार्श्वनाथ स्तवन' की कुछ पंक्तियाँ नीचे दी जा रही हैं इस पाससामी सिद्धि गामी, मालव देसईं जाणीयइ । मगसिय मंडण दुरित खंडण, नाम हियडइ आणीयई। श्री उदयसागर सूरि पाय प्रणमइ अहनिस पास जणंद ओ। जिनराज आज दया दीठ तु मन हुवई आंणद । पृष्ठ ५३० में सुबुद्धि विजय के मगसीजी पाश्र्व १० भव स्तवन का विवरण जै० गु० का० भा० ३ में है। कई रचनाओं का रचना स्थान संदिग्ध है जैसे १५वीं शताब्दी के अन्त या १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में रचे एक महावीर स्तवन का विवरण जैन गुर्जर कवियों भाग-१ पृष्ठ ३३ में छपा है। उसमें यान विहार का अन्त में उल्लेख है जिसे श्री देसाई ने उज्जैन में बताया है। पर उद्धरित पदों में मालव या उज्जैन का कहीं उल्लेख नहीं है । कवि का नाम भाव सुन्दर बतलाया है वह भी संदिग्ध है। क्योंकि वहाँ इस नाम का दूसरा अर्थ भी हो सकता है। प्रारम्भ में सोमसुन्दर सूरि को स्मरण किया है अतः स्तवन प्राचीन है । अंतिम पद्य में यान विहार पाठ छपा है । देसाई ने ऊपर के विवरण में पान विहार दिया है । पता नहीं शुद्ध पाठ कौनसा है। उज्जैन में इस नाम का कौनसा विहार या मंदिर है-यह मुझे तो पता नहीं है। देसाई ने इसे उज्जैन में बताया है, इसका आधार अज्ञात है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा - कवि २७७ पद्य रचनाओं की तरह राजस्थानी गद्य में लिखी हुयी मालव प्रदेश की कुछ गद्य रचनाएँ मिली हैं जिनमें से एक का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है । १६वीं शताब्दी के खरतरगच्छीय मुनि मेरुसुन्दर बहुत बड़े गद्य लेखक हुए हैं । उन्होंने मांडवगढ़ में रहते हुए कई जैन ग्रन्थों की भाषा टीकाएँ 'बालावबोध' के नाम से लिखी हैं जिनमें से 'शीलोपदेशमाला बालावबोध' सम्वत् १५२५ में मांडव दुर्ग के श्रीमाल जातीय संघपति धनराज की अभ्यर्थना से रचा गया है । यथा- श्री मेरुसुन्दर गणेर्गुणभक्ति परायणः । नाना पुण्यजनाकीर्णे दुर्गे श्री मांडपाभिधे ॥ उदार चरित खयात श्रीमाल ताति सम्भवः । संघाधिप धनराजो विजयो सति दया पर ॥ तस्याभ्यर्थनया भव्यजनोपकृतिदेतवे । शीलोपदेश मालाया बालावबोधो मया रचितः ॥ तत्व ५२ व्रत चंड' मिते वर्षे हर्षेण मेरुणा रचितः । तावन्नन्दतु सोज्यं भाव जिन वीर तीर्थमिदं ॥ मांडवगढ़ में १६वीं शताब्दी में काफी जैन मंदिर थे । उन मंदिरों का विवरण खरतरगच्छीय कवि खेमराज ने मंडपाचल चैत्य परिपाटी में दिया है । २३ पद्यों की इस ऐतिहासिक रचना को मैं प्रकाशित भी कर चुका हूँ । आदि अन्त के पद्य नीचे दिये जा रहे हैं जिसमें इसे 'फाग बंधी' शैली में रचे जाने का उल्लेख किया है । पास जिणेसर पय नमिय, कामिय फल दातारो । फाग बंधि संणिसु, जिणविर बिंब अपारो ॥ इणिपरि चैत्य प्रवारी रची मांडवगढ़ हरि सिद्धि । संचीय सुकृत भंडार सुगुरु सोमधर्मगणि सीसिहि ॥ फाग बंधि जे पुण्यवंत नारी नर गावई । खेमराज गणि भणई तेई यात्रा फल पावई ।। मालव प्रदेश ने अनेक जैन आचार्यों, मुनियों कवियों तथा धनीमानी श्रावकों को जन्म देने का श्रेय प्राप्त किया है । उन सबकी खोज की जाय तो एक बड़ा शोध प्रबन्ध तैयार हो सकता है । केवल एक मांडवगढ़ के जैन इतिहास की भी इतनी बड़ी सामग्री प्राप्त है कि उस पर भी महत्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध लिखा जा सकता है । डा० सुभद्रादेवी क्राउभे ने मांडवगढ के जैन इतिहास की अच्छी सामग्री इकट्ठी की थी । और कुछ लेख भी लिखे हैं, पर वे शोध प्रबन्ध का काम पूरा नहीं कर सकी हैं। वे अब काफी वृद्ध हो चुकी हैं अतः उनकी संग्रहीत सामग्री ही उनसे प्राप्त करके यदि प्रकाशित करदी जाय तो कोई भी व्यक्ति उस पर शीघ्र ही शोध प्रबन्ध तैयार कर सकेगा | मांडवगढ़ के महान् साहित्यकार मंत्री मंडन तथा मंत्री संग्रामसिंह एवं जावड आदि सम्बन्धी मेरे भी कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इसी तरह धारा नगरी के जैन इतिहास और साहित्यकार सम्बन्धी मेरा लेख कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पूनमगच्छ में एक मालवी ऋषि हो गये हैं। मालव प्रदेश में उत्पन्न होने के कारण ही उनका नाम 'मालवी ऋषि' पड़ गया। उनके जीवन से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक घटना मालव इतिहास का एक आवृत पृष्ठ खोलती है / इसके सम्बन्ध में मेरा एक लेख पूर्व प्रकाशित हो चुका है। सम्वत् 1616 के भादवा मास की पंचमी को मालव ऋषि की सज्झाय रची गयी है जिसमें उक्त घटना का उल्लेख है / इस रचना के कुछ पद्य यहां उद्धृत किये जा रहे हैं। मालवीय ऋषि महिमा वडुरे जे हुई संघ लेई देसि / मालवदेश महिय देवास ग्राम निधि जेहनी परसिद्धि जाणीइ ओ। तेहनउ देस-घणी ऋद्धि छाई जास धणी, सिल्लादी नरायव साणी // १६वीं शताब्दी में मालवा के आजणोढ गांव के सोलंकी रावत पदमराय की पत्नी सीता के दो पुत्र हुए जिनमें ब्रह्मकुमार का जन्म सम्वत् 1568 के मगसिर सुदि 15 गुरुवार को हुआ था। वे अपने बड़े भाई के साथ द्वारका तीर्थ की यात्रा करने को सम्वत 1576 में गये। वहां से गिरनार जाने पर रंगमंडन मनि से दोनों भ दीक्षा ग्रहण की। उनमें से आगे चलकर ब्रह्ममुनि पार्श्वचन्द्र सूरि की परम्परा में विनयदेव सूरि नामक आचार्य बने / ये बहुत अच्छे कवि थे / सम्वत् 1564 से 1636 के बीच इन्होंने चार प्रत्येकबुद्ध चौपाई, सुधर्मा गच्छ परीक्षा, सुर्दशन सेठ चौपाई, नेमिनाथ विवाहला आदि बहुत से काव्य रचे / यद्यपि उन रचनाओं में रचना-स्थान का उल्लेख नहीं है पर ये ब्रह्ममूनि मालव के जैनेतर कुटुम्ब में जन्म लेकर जैन आचार बने / इसलिए इनका उल्लेख यहाँ कर देना आवश्यक समझा। इनकी जीवनी सम्बन्धी मनजी ऋषि रचित दो रचनायें प्राप्त हैं। इनमें से प्रथम रचना विजयदेव सूरि 'विवाहलो' की कुछ पंक्तियाँ नीचे दी जा रही हैं। मालव देश सोहामणो, गाम नगर पुर ढाम / श्रावक वसइ व्यवहारियाए, लिइ जिणवर नूं नाम // 14 // आजणोठ नयर सोहामणं, घणा राउत ना ढाम। पदमो राउत तिहां वसइ, नारि सीता दे नाम // 15 // सीता दे कुखि इं अवतर्या, धन ब्रह्मरिषि गुरुराय / भविक जीव प्रतिबोधता, आव्या मालव देश॥कि०॥१६॥ खोज करने पर और भी बहुत सी ऐसी रचनायें मिलेंगी जो मालव प्रदेश के साहित्य और इतिहास की जानकारी में अभिवृद्धि करेंगी। मध्य प्रदेश सन्देश के ता० 5 अगस्त 1972 के अंक में तेजसिंह गौड़ का प्राचीन मालव के जैन विद्वान और उनकी रचनायें नामक लेख प्रकाशित हुआ है / उसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य के रचयिता जैन विद्वानों का विवरण दिया गय है। अतः प्रस्तुत लेख अपूर्ण रह गया है। उसकी पूर्ति के लिए यह खोज पूर्ण लेख बड़े परिश्रम से तैयार करके प्रकाशित किया जा रहा है / इस सम्बन्ध में अभी और खोज की जानी आवश्यक है क्योंकि मालव प्रदेश से जैनधर्म का बहुत प्राचीन और घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है / अतः वहां प्रचुर साहित्य रचा गया होगा / वास्तव में यह विषय एक पी-एच० डी० के शोध प्रबन्ध का है।