Book Title: Mahopadhyayaji ke Sahitya me Laukikatattva
Author(s): Manohar Sharma
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 7
________________ स्थित थीं। यही कारण है कि ऐसी गाथाओं को अनेक दोकड़े ताल मादल भला वाजई / रूपों में प्रयुक्त देखा जाता है। आगे समयसुन्दरजी की दोकड़े जिणवर ना गण गाजइ / / रचनाओं में प्रयुक्त कुछ प्राकृत-गाथाओं के उदाहरण दोकड़े लडी हाथ बे जोडइ / द्रष्टव्य हैं दोकड़ा पाखइ करड़का मोड़इ ! 1 कि ताणं जम्मेण वि, जणणीए पसव दुक्ख जणएण / (धनदत्त श्रेष्ठि चौपई) पर उपयार मुणो विहु, न जाण हिययंमि विप्फुरई // 1 // 5 जासु कहीये एक दुख, सो ले उठे इकवीस / दो पुरिसे धरउ धरा, अहवा दोहि पि धारिया धरिणी। एक दुख बिच में गयो मिले बीस बगसीस // उवयारे जस्स मई, उवयार जो नवि म्हुसई // 2 // (पुण्यसार चरित्र चौपई) लच्छी सहाव चला, तओ वि चवलं च जीवियं होई। ऊपर जो लोक प्रचलित सुभाषित प्रस्तुत किये गए हैं, भावो तउ वि चवलो, उपयार विलंबणा कोस // 3 // वे जनसाधारण में कहावतों के समान काम में लाये जाते 2 दोसइ विविहं चरियं, जाणिज्जइ सयण दुजण विसेसो। रहे हैं। बहावत के समान हो उक्तियों के द्वारा वक्ता अप्पाणं च कलिजइ, हिडिजइ तेण पुहवीए // 2 // अपने कथन को प्रमाण-पुष्ट बनकर संतोष मानते हैं। (प्रिय मेलक चौपई) साथ ही ध्यान रखना चहिये कि महाकवि समयसून्दरजी 3 गेहं पि तं मसाणं, जत्थ न दीसइ धलि सिरीया ने अपने काव्य में स्थान-स्थान पर राजस्थानी कहावतों का आवंति पडंति रडवडंति, दो तिन्नि डिभाई // 1 // भी बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है। आगे इस सम्बन्ध आगे राजस्थानी भाषा के कुछ लोक प्रचलित सुभाषित द्रष्टव्य हैं घरि घोड़उ नइ पालउ जाइ, घरि घोणउ नइ लूखउ खाइ। घरि पलंग नइ धरती सोयइ, तिण री बइरी जीवतइ नाइ रोवइ / (प्रियमेलक चौपई) 2 छटी राते जे लिख्या, मत्थइ देइ हत्थ / देव लिखावइ विह लिखइ, कूण मेटिवा समत्थ / (चंपक सेठ चौपई) 3 जसु धरि वहिल न दीसइ गाडउ, जसु धरि भइंसि न रोक पाडउ / जम् घरि नारि न चड़उ खलका, तसु घरि दालिद बहरे लहकइ / / 4 दोकड़ा वाल्हा रे दोकड़ा वाल्हा / दोकड़े रोता रहई छै काल्हा / / 1 ऊखाणउ कहइ लोक, सहियां मोरी, पेट इ को घालइ नहीं, अति वाल्ही छुरी रे लो। (सीताराम चौपई, खण्ड 8, ढाल 1) 2 जिण पूठइ दुरमण फिरइ, गाफिल किम रहइ तेह रे, सूतां री पाडा जिाइ, दृष्टांत कहइ मह एहरे। (समयसुन्दर कृति कुसुमालि , पृ० 435) 3 उघतइ विछाणउ लाघउ, आहींणइ बूझांणउ बे। मंग नइ चाउल मांहि, घी घणउ प्रीसाणउ बे॥ (सीताराम चौपई, खण्ड 1, ढाल 6) उपर्युक्त विवेचन से प्राट होता है कि महोपाध्याय समयसुन्दरजी के साहित्य में लौकिक-तत्व प्रचर परिमाण में प्रयुक्त हैं और यही कारण है कि उनकी रचनाओं को इतनी जनप्रियता प्राप्त हुई है। इस विषय पर विस्तार से विचार किया जाय तो कई रोचक तथ्य प्रकट होंगे। आशा है राजस्थानी साहित्य को अध्येता इस दिशा में प्रयत्नशील होकर अपने परिश्रम का उपयोगी एवं मधुर फल साहित्य-जगत् को भेंट करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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