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महोपाध्याय समयसुन्दरजी के साहित्य में लौकिक तत्व
[ डा0 मनोहर शर्मा ]
जैन कवि कोविदों ने राजस्थान साहित्य को श्रीवृद्धि में अपूर्व योगदान किया है। इनमें महोपाध्याय समयसुन्दरजी का ऊंचा स्थान है। आपकी बहुविध रचनाओं से राजस्थानी साहित्य गौरवान्वित है । आप एक साथ ही बहुत बड़े विद्वान और और उच्चकोटि के कवि थे । आपने दीर्घ काल तक साहित्य साधना को और जनशधारण में शोल धर्म का प्रचार किया । मध्यकालीन भारतीय संत-साधकों में उनका व्यक्तित्व निराला ही है ।
महोपाध्याय समय सुन्दरजी की साहित्य साधना को यह एक विशेषता है कि उसमें एक साथ हो शास्त्र और लोक दोनों का सुन्दर समन्वय हुआ । जैन मुनि स्वयं शीलधर्म का आचरण करके उससे जनसाधारण को भो लाभान्वित करने की दिशा में सदैव प्रयत्नशील रहे हैं, अतः उनके साहित्य में लौकिक तत्त्वों का प्रवेश स्वाभाविक है । महाकवि समयसुन्दरजी के साहित्य में तो लोकसाहित्य का रंग भरपूर है । मध्यकालीन राजस्थानी (गुजराती) लोकसाहित्य के अध्ययन हेतु उनका साहित्य एक सुन्दर एवं उपयोगी साधन है । इस विषय में एक बड़ा ग्रन्थ लिखा जा सकता है परन्तु यहां विषय को विस्तार न देकर संक्षिप्त ज्ञातव्य ही प्रस्तुत किया जा रहा है ।
लोकगीतों की महिमा निराली है। इनमें एक साथ ही शब्द और स्वर दोनों का सरल सौन्दर्य समन्वित मिलता है । यह रसपूर्ण साधन जनसाधारण में किसी भी तत्व का प्रचार-प्रसार करने हेतु परमोपयोगी है। जनता अपने हो
स्वरों में गाए जानेवालों ज्ञान-तत्व को सहज ही अपनाकर उसको जीवन का अंग बना लेती है । इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को मुनिवरों ने पूर्णतया समझा और इसका अपने गीतों में प्रचुरता से प्रयोग किया। इसका मधुर फल यह हुआ कि उनकी दिव्यवाणी का लोक हृदय में प्रवेश सो हुआ ही, साथ ही लोकगीतों का अमूल्य भण्डार भी सुरक्षित हो गया। आज प्राचीन राजस्थानी लोकगीतों के अध्ययन हेतु जैन मुनियों के बनाये हुए गीत ही एक मात्र साधन स्वरूप उपलब्ध हैं । उन्होंने अपने गीतों की रचना लोक प्रचलित 'देशियों के आधार पर की और साथ ही उस गीत की प्रथम पंक्ति का प्रारंम्भ में ही संकेत भी कर दिया । 'जैन गुर्जर कवियों ( भाग ३ खण्ड ) में इन देशियों की विस्तृत सूची का संकलन देखते 'बनता है ।
महाकवि समयसुन्दरजी संगती शास्त्र के प्रेमी एवं ज्ञाता थे। आपने अपने गीतों को अनेक राग रागनियों के अतिरिक्त तत्कालीन लोक प्रचलित 'ढालों' (तर्जी ) में भी ग्रथित किया है। कहावत प्रसिद्ध है - 'समयसुन्दर रा गीतड़ा ने राणे कुंभैरा भींतड़ा ।' समयसुन्दरजी के गीतों की यह लोकप्रशस्ति कोई साधारण बात नहीं है । परन्तु ध्यान रखना चाहिये कि इस महिमा का मूल कारण उनके द्वारा लोकगीतों की स्वरलहरी को अपना कर उसके आधार पर गीत - रचना करना ही है। इस दिशा में कुछ चुने हुए उदाहरण द्रष्टव्य हैं, जिनमें लोकगीतों का प्रारंभिक अंश संकेत हेतु दिया गया है
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१ चरणाली चाड र णि चढइ, चख करि राता चोलो रे विरती दाणव दल विचि, घाउ दीयइ घमरोलो रे, चरणाली चामंड रणि चढइ ।
सीताराम चौपई, खण्ड २, ढाल ३) २ वेसर सोना की धरि दे बे चतुर सोनार, वेसर सोना की। वेसर पहिरी सोना की रंझे नंदकुमार, वेसर सोना की।
(वही, खण्ड ४, ढाल १) ३ तोरा कीजई म्हांका लाल दारू पिअइजी,
पड़वइ पधारउ म्हांका लाल, लसकर लेज्यांजी, तोरी अजब सूरति म्हांको मनड़उ रंज्यो रे लोभी लंज्यो जी।
__(वही, खंड ५, ढाल ३) । सहर भलो पणि सांकड़ों रे, नगर भलो पणि दूर रे, हठीला वयरी नाह भलो पणि नान्हड़ो रे लाल । आयो आयो जोवन पूर रे, हठीला बयरी लाहो लइ हरपालका रे लाल ।
(वही, खंड ५, डाल ४) ५ लंका लीजइगी, पुणि रावण लंका लीजइगी। ___ओ आवत लखमण कउ लसकर, ज्युं घण उमटे श्रावण।
(वही खंड ६, ढाल २) ६ रे रंगरता करहला, मो प्रीउ रत्तउ आणि, हुँ तो ऊपरि काढि नइ, प्राण करू कुरबाण, सुरंगा करहा रे, मो प्रीउ पाछउ वालि, मजीठा करहा रे।
(वही, खंड ७, ढाल ३) ७ सिहरां सिरहर सिवपुरी रे, गळां वडउ गिरनारि रे,
राण्यां सिरहरि रुकमिणी रे, कुमरां नन्दकुमार रे, कंसासुर-मारण आविनइ, प्रल्हाद-उधारण रास रमणि घरि आज्यो,
धरि भाज्यो हो रामजी, रास रमणि घरि आज्यो।
(वही, खण्ड ७, ढाल ५) ८ सूबरा तुं सूलताण, बीजा हो, बीजा हो थारा सुंबरा ओलगू हो
(वही, खण्ड ८, ढाल ६) ६ अम्मां मोरी मोहि परणावि हे,
अम्मां मोरी जेसलमेरा जादवां हे. जादव मोटा राय, जादव मोटा राय हे, अम्मां मोरी कड़ि मोरी नइ घोड़े चढे हे ।
(वही, खण्ड ८, हाल ७) १० गलियारे साजण मिल्या मारुराय,
दो नयणां दे चोट रेधण वारी लाल । हसिया पण बोल्या नहीं मारुराय, काइक मन मांहि खोट खोट रे, आज रहउ रंगमहल मई मारुराय ।
(वही, खंड ६, ढाल २) ११ दिल्ली के दरवार मई लख आवइ लख जाइ, एक न आवइ नवरंगखान जाकी पघरी ढलि
ढलि जावइ वे, नवरंग वइरागी लाल।
(वही, खण्ड ६, डाल ४) यहां महाकवि समयसुन्दरजी के द्वारा अपने गीतों में प्रयुक्त केवल ग्यारह 'देशियों' के संकेत दिये गए हैं, परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि इन 'देशियों' के गीत विविध प्रकार के हैं। इनमें भक्तिरस के साथ ही शृगाररस भी है और साथ ही सामाजिक जीवन की झलक भी स्पष्ट है। महाकवि ने कई जगह पर गीत के प्रचलन-स्थान की भी सूचना दी है, जैसे 'ए गीत सिंध मांहे प्रसिद्ध छइ' 'ए गीतनी ढाल जोधपुर, नागौर, मेड़ता नगरे प्रसिद्ध छइ' आदि। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं प्रयुक्त 'देशी' के गेयतत्व के सम्बन्ध में भी सूचना दी गई है, जैसे
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१ 'जा जा रे बांधव तु बड़उ' ए गुजराती गोतनी ढाल अथवां 'वीसरी मुन्हें वालहइ' तथा हरियानी
(मीताराम चौपई, खण्ड ४, डाल २) २ एहनीं ढाल नायकानी ढाल सरीखी छह पण आंकणी लहरकउ छ ।
(वही, खण्ड ५, डाल ४) ३ ए गीतनी हाल राग खंभायतो सोहलानी।
वही खण्ड ८, डाल ७) यहां तक महाकवि के गीतों में प्रयुक्त लोक-संगीत पर चर्चा हुई है। आगे उनके गीतों में प्रयुक्त लौकिक दोहों के उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं, जो एक निराली ही छटा प्रकट करते हैं। लोक और शास्त्र का यह समन्वय अन्य राजस्थानी कवियों में भी अनेक देखा जाता है और यह परम्परागत चीज है । नमूने के तौर पर यहां महाकवि समयसुन्दरजी का एक पूरा गीत दिया जाता है - श्रोस्थूलिभद्र गीतम्
( राग सारंग) प्रीतड़िया न कीजइ हो नारि परदेसियां रे. खिण खिण दाझा देह । वीछड़िया वाल्हेसर मलवो दोहिलउ रे, सालइ सालइ अधिक सनेह ॥प्रोतः॥ आज नइ तउ आव्या काल उठि चालव' रे, भमर भमंता जोइ। साजनिया बोलावि पाछा वलता था रे, धरती भारणि होइ ।। प्रीता राति नइ त उ नावइ वाल्हा नींदड़ी रे, दिवस न लागइ भूख। अन्न नइ पाणी मुझ नइ नवि रुचइ रे, दिन दिन सबलो दुख ॥ प्रीत० ॥
मन ना मनोरथ सवि मनमा रह्या रे, कहियइ केहनइ रे साथि । कागलिया तो लिखता भीजइ आंसूओ रे, आवइ दोखी हाथि ॥ प्रति०॥ नदियां तणा व्हाला रेला वालहा रे, ओछा तणां सनेह। बहता वहइ वालह उतावला रे, झटकि दिखावइ छेह ॥ प्रीत० ॥ सारसड़ी चिड़िया मोती चुगइ रे, चुगे तो निगले कांइ। साचा सदगुरु जो आवी मिलइ रे, मिले तो बिछुड़इ कांइ ॥ प्रीत० ॥ इण परि स्थूलिभद्र कोशा प्रतिबूझवी रे, पाली-पाली पूरब प्रीति सनेह । शील सुरंगी दीधी चुनड़ी रे, समयसुन्दर कहइ एह ॥ प्रीत० ॥
(समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि, पृष्ठ ३११-३१२) उपर्युक्त गीत की प्रायः सभी 'कडियों में लोकप्रचलित दोहों का सरस एवं सुन्दर प्रयोग सहज ही देखा जा सकता है, जिनमें निम्न दोहे तो अति प्रचलित हैं--
राति न आवइ नींदड़ी, दिवस न लागइ भूख । अन्न पाणी नवि रुचइ, दिन दिन सबलो दूख ॥ १ ॥ डूंगर केरा वाहला, ओछां केरा नेह । बहता बहइ उतावला, झटकी दिखावइ छेह ॥ २ ॥ सारसड़ी मोती चुगे, चुगै तो निगले काय । साचा प्रीतम जो मिले, मिले तो बिछुड़े काय ॥ ३ ॥
लोक साहित्य का दूसरा प्रमुख अंग लोककथा है । लोककथाओं के संरक्षण में जैन विद्वानों का योगदान अत्यन्त सराहनीय है। उन्होंने शीलोपदेश हेतु अनेक लोककथाओं का प्रयोग किया है और साथ ही उन्हें लिखकर भी सुरक्षित कर दिया है। उनकी टीकाओं में भी लोक
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[ १०० ] से पालन किया गया ।
कथाओं का बालबोध हेतु प्रयोग हुआ है । इस प्रकार बालावबोध टोकाएं लोककथाओं के अध्ययन के लिए बड़ी उपयोगी हैं। जैन कवियों ने अपने कथा - काव्यों में भी प्रचुरता के साथ लोककथाओं का आधार ग्रहण किया है। इस प्रक्रिया ने एक नया ही वातावरण बना दिया है। वहां लोककथाओं को साधारण परिवर्तन के साथ धार्मिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। पात्रों एवं स्थानों के नाम रख दिए गए हैं और उनके सुख-दुःख का कारण पूर्वजन्म के भले अथवा बुरे कर्मों को प्रगट किया गया है । जिस प्रकार बोद्ध कथा - साहित्य में लोककथाओं का धार्मिक
दृष्टि से प्रयोग हुआ है, वैसा ही कुछ जैन साहित्य में
। शैली भी हुआ है परन्तु दोनों जगह प्रयोग करने की की
में कुछ मिग्नता अथवा अपनी विशेषता है। साथ ही ध्यान रखना चाहिये कि एक ही लोककथा को आधार मान कर अनेक जैन विद्वानों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की है, जो उन लोककथाओं की जनप्रियता तथा बोधपूर्णता की सूचक हैं | महाकवि समयसुन्दरजो ने भी अनेक कथा-काव्यों की रचना की है, जिनको परम्परा के अनुसार 'रास' 'चौपई' अथवा 'प्रबंध' नाम दिया गया है । यह विषय अति विस्तृत विवेचना की अपेक्षा रखता है परन्तु यहां स्थानाभाव के कारण उनकी केवल एक रचना पर ही कुछ चर्चा की जाती है । महाकवि प्रणीत श्री पुण्यतर चरित्र चोई' नामक कथाकाव्य प्रसिद्ध है, जो श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित 'समयसुन्दर रास पंचक में प्रकाशित हो चुका है। इस काव्य की वस्तु संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है
पर्मात्मा पुन्दर सेठ के पुण्पधी नामक पवित्रता पत्नी थी, परन्तु उनके कोई पुत्र न था । अतः वे उदास रहते थे ! आखिर सेठ ने पुत्र हेतु कुलदेवी को आराधना की, जिसके वरदान से उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । पुत्र का नाम पुण्यसार रखा गया और उसका बड़े हुलार
जब पुण्यसार बड़ा हुआ तो उसको पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजा गया । उसी पाठशाला में सेठ रत्नसार को पुत्र रत्नवती भी पड़ती थी। वह पुरुष निंदक थी। एक दिन इन दोनों में विवाद हो गया और ने पुण्यसार रत्नवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करने का निश्चय प्रकट कर दिया ।
पुण्यसार ने घर आकर अन्न-पान छोड़ दिया और रत्नवती से विवाह करने का निश्चय सबको कह सुनाया। उसका पिता पुरन्दर सेठ नगर में बड़ी प्रतिष्ठा रखता था। वह रत्नसार के घर गया और अपने पुत्र के लिए उनकी पुत्री रत्नवती को मांग को परन्तु रत्नवती इस सम्बन्ध
के लिए एकदम नट गई। फिर भी उसके पिता ने उसे अबोध समझ कर उसकी सगाई पुण्यसार के साथ
कर दी ।
जब पुण्यसार कुछ और बड़ा हुआ तो वह जुआरियों की संगत में पड़ गया और एक दिन उसके पिता के यहां धरोहर रूप में पड़ा हुआ रानी का हार जुए में हार गया । फल यह हुआ कि पुण्यसार को अपना घर छोड़ना पड़ा और वह जंगल में जाकर एक बड़ के कोटर में रात बिताने के लिए बैठ गया ।
रात्रि के समय उस बड़ के पेड़ पर पुण्यसार ने दो देवियों को परस्पर में बातचीत करते हुए सुना । उनके वार्तालाप से प्रगट हुआ कि बल्लभी नगर में सुन्दर सेठ ने अपनी सात पुत्रियों के विवाह की पूर्ण तैयारी कर रखी है और लम्बोदर के आदेश से उनके लिए वर पाने की प्रतीक्षा में बैठा है। यह कौतुक की वस्तु थी । अतः उसे देखने के लिए उन देवियों ने वटवृक्ष को मन्त्र प्रभाव से उड़ाया और वे वलभी आ पहुँचीं कहना न होगा कि पुण्यसार भी वृक्ष के कोटर में बैठा हुआ वहीं आ पहुँचा। फिर दोनों देवियों नायिका के रूप में
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सुन्दर सेठ के यहां चलीं तो पुण्यसार भी उनके पीछे हो लिया। आगे सेठ ने अपनी सातों पुत्रियों का विवाह उसके साथ करके बड़ा सुख माना ।
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विवाह के बाद पुण्यसार अपनी पत्नियों के साथ महल में गया परन्तु उसे चिन्ता थी कि कहीं वटवृक्ष उड़ कर वापिस न चला जावे। वह देह चिन्ता की निवृत्तिहेतु अपनी गुणसुन्दरी नामक पक्षी के साथ महल से नीचे आया और वहां एक दीवार पर इस प्रकार लिख दिया
किहां गोपाचल किहां वलहि, किहां लम्बोदर देव । आव्यो बेटो विहि वसहि, गयो सत्तवि परणेवि ॥ गोपालपुरादागां, वल्लभ्यां नियतेर्वशात् । परिणीय वधू सप्त पुनस्तत्र गतोस्म्यहम् ॥
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इसके बाद पुण्यसार वहां से वटवृक्ष के कोटर में आ बैठा और वापिस अपने स्थान में आ गया ।
चुपचाप चल कर उस देवियों के साथ उड़कर
अगले दिन पुरन्दर सेठ पुत्र की तलाश करता हुआ उसी बड़ के पास आ पहुँचा और पुत्र को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित देख कर परम प्रसन्न हुआ। सेठ अपने बेटे को घर ले गया और उसके लाए हुए गहनों को बेच कर रानी का हार प्राप्त कर लिया गया। अब पुण्यसार ने जुए का व्यसन त्याग दिया और वह पिता के साथ अपनी दूकान पर काम करने लगा ।
इधर वल्लभी में जामाता के अचानक चले जाने के कारण सुन्दर सेठ के घर में बड़ी चिन्ता फैल गई और उसकी सातों पुत्रियाँ विरह में विलाप करने लगीं। गुणसुन्दरी ने पुण्यसार द्वारा दीवार पर लिखे हुए लेख को पढ़ कर अपने पति का पता लगाने का निश्चय किया। वह पुरुषवेश धारण करके गुणसुन्दर व्यापारी के रूप में गोपाचल आ पहुँची और वहाँ थोड़े ही समय में उसने अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली ।
यहाँ गुणसुन्दर (युवक व्यापारी) पर रजवती की नजर पड़ी तो वह उसके रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो गई और उसी के साथ विवाह करने का निश्चय किया। रलसार सेठ ने अपनी पुत्री के विवाह हेतु गुणसुन्दर को कहा परन्तु वह इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ । फिर बहुत आग्रह किए जाने पर उसे रत्नवती का पाणिग्रहण करना ही पड़ा ।
गुणसुन्दरी ने ६ मास की अवधि में अपने पति का यह अवधि समाप्त
पता लगा लेने का प्रण किया था। होने पर उसने गोपाचल में अग्निप्रवेश करने का निश्चय किया। राजा ने उसे रोका और पुण्यसार को उसे समझाने के लिए भेजा। इस समय वार्तालाप में सारा भेद प्रकट हो गया और गुणसुन्दर ने नारी वेश धारण कर लिया ।
सुन्दर सेठ की पुत्री का विवाह गुणसुन्दर के साथ हुआ था, जो स्वयं एक नारो था। अब उसके पति की समस्या सामने आई तो स्वभावतः ही पुण्यसार उसका पति माना गया। अंत में गुणसुन्दरी की ६ बहनों को भी वल्लभी से गोपाचल बुलवा लिया गया और पुण्य गर अपनी आठों पश्नियों के साथ आनंद से रहने लगा।
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पुण्यसार विषयक उपर्युक्त कथा के प्रमुख प्रसंग इस प्रकार के हैं कि वे अन्य लोककथाओं में हुए कुछ बदले रूप में भी मिलते हैं । उनका सामान्य परिचय नीचे लिखे अनुसार हैं
१ देवो अथवा देव की आराधना से संतानहीन व्यक्ति को पुत्र की प्राप्ति ।
२ युवक तथा युवती का पाठशाला में एक साथ पढ़ना और उनमें परस्पर प्रेम असा विवाद का पैदा होना ।
३ सेठ-पुत्र का विशिष्ट कन्या से विवाह के लिए हठ करना और उसकी इच्छापूर्ति होना ।
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४ धन खो देने के कारण सेठ-पुत्र का पिता द्वारा है। 'ठकुरै साह री बात' में पद्य का रूप इस प्रकार है - अपने घर से निकाला जाना ।
__ सरसो पाटण सरस नय, सुसरै ठकुरो नांव । ५ किसी वृक्ष के नीचे सोए हुए अथवा छपे हुए ईसर तूठे पाईये, आ गैहण ओ गांव ॥ कथानायक द्वारा देवो अथवा पक्षियों की बात- उपर्युक्त कथावस्तु में पुरुषवेश धारण करने वाली नारो
चीत सुनना तथा उससे लाभान्वित होना । द्वारा दूसरा नारी के साथ विवाह करना भी आश्चर्यजनक ६ उड़ने वाले वृक्ष पर बैठकर कथानायक का दूर देश घटना है । यह घटना अंग्रेज-कवि शेक्सपीयर विरचित में पहुंचना और वहाँ धन प्राप्त करना तथा विवाह 'बारहवीं रात' ( Twelfth Night ) नामक प्रसिद्ध करना।
नाटक के कथानक का सहज हो स्मरण करवा देती है, - ७ कथानायक का देववाणी से दूर-देश में विवाहित जिसमें समान रूप वाले भाई-बहिन घर से निकलते हैं और होना।
अंत में आश्चर्यजनक रूप से उनके प्रेम-विवाह सम्पन्न होते ८ वर द्वारा दीवार पर या वधू के वस्त्र पर कुछ हैं। वहाँ बहिन पुरुषवेश में एक 'ड्यूक' की सेवा करती
लिख कर चुपचाप अज्ञात-दशा में चले जाना है, जो आगे जाकर उसका पति बनता है। इन दोनों ६ वधू द्वारा पुरुष-वेश धारण करके अपने पति की कथानकों में विशेष समानता न होने पर भी परुषवेश
तलास में निकलना और अंत में अपने पति का धारिणी नारो पर दूसरो नारो का मुग्ध होना और उसके पता लगाने में सफल होना।
साथ विवाह करने के लिए इच्छा करना तो स्पष्ट ही है । १० पुरुष-वेश धारण करने वाली युवती का अन्य इतना ही नहीं, वह भ्रम में पड़ कर उसी के समान रूप
युवती से विवाह होना और अंत में उसके पति वाले उसके भाई से विवाह भी कर लेती है, जिसके साथ
को उसका परिणीता पत्नी के रूप में प्राप्त होना। उपका पूर्व-परिचय नहीं है। महाकवि शेक्सपोयर ने अपने ११ घर से निकले हुए युवक कथानायक का अंत में नाटक का कथानक किसी लोककथा के आधार पर ही
धन-सम्पन्न होना तथा उसे सुन्दरी पत्नी प्राप्त । खड़ा किया है। इस प्रकार लोककथाओं को सार्वभौमिक होना।
समप्राणता सिद्ध होती है। महाकवि समयसुन्दरजी ने अपने काव्य के अंत में जेन- महाकवि समयसुन्दरजी ने अपनी कथानक रचनाओं में परम्परा के अनुसार कथानायक के पूर्वजन्म का वृत्तांत देकर स्थान-स्थान पर लोक-सुभाषितों का प्रयोग करके उनको उसे समाप्त किया है परन्तु उपर्युक्त प्रसंगों पर ध्यान देने से सजाया है । इस क्रिया से उनकी रचना में सामर्थ्य का विदित होता है कि वे देश-विदेश को अनेक लोककथाओं संचार हुआ और साथ ही अनेक लोक-सुभाषितों का सहज में सहज ही देखे जा सकते हैं और कुल मिला कर एक हो संरक्षण भी हो गया। राजस्थान के अन्य कवियों ने रोचक लोककथा का ठाठ सामने खड़ा कर देते हैं। भी इसी प्रकार लोक-सुभाषितों का अपनी रचनाओं में बड़े
इस कथानक में वह पद्य पाठक का ध्यान विशेष रूप चाव से प्रयोग किया है। 'बातों' में तो इनका प्रयोग और से आकृष्ट करता है. जिसे वर एक दीवार पर अपने परिचय भी अधिक रुचि से हआ है। इन लोक-सुभाषितों में कई हेतु लिख कर चुपचाप चला जाता है। इसी प्रकार को प्राकृत-गाथाएं भी हैं, जो काफी लम्बे समय से चली आ अन्य लोक कथा में यह पद्य अनेक रूपान्तरों में देखा जाता रहीं थीं और थोड़ो-बहुत रूपान्तरित होकर लोकमुख पर अव.
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________________ स्थित थीं। यही कारण है कि ऐसी गाथाओं को अनेक दोकड़े ताल मादल भला वाजई / रूपों में प्रयुक्त देखा जाता है। आगे समयसुन्दरजी की दोकड़े जिणवर ना गण गाजइ / / रचनाओं में प्रयुक्त कुछ प्राकृत-गाथाओं के उदाहरण दोकड़े लडी हाथ बे जोडइ / द्रष्टव्य हैं दोकड़ा पाखइ करड़का मोड़इ ! 1 कि ताणं जम्मेण वि, जणणीए पसव दुक्ख जणएण / (धनदत्त श्रेष्ठि चौपई) पर उपयार मुणो विहु, न जाण हिययंमि विप्फुरई // 1 // 5 जासु कहीये एक दुख, सो ले उठे इकवीस / दो पुरिसे धरउ धरा, अहवा दोहि पि धारिया धरिणी। एक दुख बिच में गयो मिले बीस बगसीस // उवयारे जस्स मई, उवयार जो नवि म्हुसई // 2 // (पुण्यसार चरित्र चौपई) लच्छी सहाव चला, तओ वि चवलं च जीवियं होई। ऊपर जो लोक प्रचलित सुभाषित प्रस्तुत किये गए हैं, भावो तउ वि चवलो, उपयार विलंबणा कोस // 3 // वे जनसाधारण में कहावतों के समान काम में लाये जाते 2 दोसइ विविहं चरियं, जाणिज्जइ सयण दुजण विसेसो। रहे हैं। बहावत के समान हो उक्तियों के द्वारा वक्ता अप्पाणं च कलिजइ, हिडिजइ तेण पुहवीए // 2 // अपने कथन को प्रमाण-पुष्ट बनकर संतोष मानते हैं। (प्रिय मेलक चौपई) साथ ही ध्यान रखना चहिये कि महाकवि समयसून्दरजी 3 गेहं पि तं मसाणं, जत्थ न दीसइ धलि सिरीया ने अपने काव्य में स्थान-स्थान पर राजस्थानी कहावतों का आवंति पडंति रडवडंति, दो तिन्नि डिभाई // 1 // भी बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है। आगे इस सम्बन्ध आगे राजस्थानी भाषा के कुछ लोक प्रचलित सुभाषित द्रष्टव्य हैं घरि घोड़उ नइ पालउ जाइ, घरि घोणउ नइ लूखउ खाइ। घरि पलंग नइ धरती सोयइ, तिण री बइरी जीवतइ नाइ रोवइ / (प्रियमेलक चौपई) 2 छटी राते जे लिख्या, मत्थइ देइ हत्थ / देव लिखावइ विह लिखइ, कूण मेटिवा समत्थ / (चंपक सेठ चौपई) 3 जसु धरि वहिल न दीसइ गाडउ, जसु धरि भइंसि न रोक पाडउ / जम् घरि नारि न चड़उ खलका, तसु घरि दालिद बहरे लहकइ / / 4 दोकड़ा वाल्हा रे दोकड़ा वाल्हा / दोकड़े रोता रहई छै काल्हा / / 1 ऊखाणउ कहइ लोक, सहियां मोरी, पेट इ को घालइ नहीं, अति वाल्ही छुरी रे लो। (सीताराम चौपई, खण्ड 8, ढाल 1) 2 जिण पूठइ दुरमण फिरइ, गाफिल किम रहइ तेह रे, सूतां री पाडा जिाइ, दृष्टांत कहइ मह एहरे। (समयसुन्दर कृति कुसुमालि , पृ० 435) 3 उघतइ विछाणउ लाघउ, आहींणइ बूझांणउ बे। मंग नइ चाउल मांहि, घी घणउ प्रीसाणउ बे॥ (सीताराम चौपई, खण्ड 1, ढाल 6) उपर्युक्त विवेचन से प्राट होता है कि महोपाध्याय समयसुन्दरजी के साहित्य में लौकिक-तत्व प्रचर परिमाण में प्रयुक्त हैं और यही कारण है कि उनकी रचनाओं को इतनी जनप्रियता प्राप्त हुई है। इस विषय पर विस्तार से विचार किया जाय तो कई रोचक तथ्य प्रकट होंगे। आशा है राजस्थानी साहित्य को अध्येता इस दिशा में प्रयत्नशील होकर अपने परिश्रम का उपयोगी एवं मधुर फल साहित्य-जगत् को भेंट करेंगे।