Book Title: Mahopadhyaya Yashovijayjigani krut 101 Bol Sangraha Bhumika
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ [2] शास्त्रज्ञ न करइ // 97|| "विधिप्रतिष्ठित ज प्रतिमा जुहारवी ते तपागच्छनी ज पणि गच्छतरनी नहीं" एहवू कहइ छइ त न घटइ, जे मार्टि प्रतिष्ठादिकनी सर्व विधि जोतां हवणां प्रतिमा वंदननूं दुर्लभपणूं होइ. तथा श्राद्धविधिमां आकारमात्रि सर्व प्रतिमा वांदवाना अक्षर पणि छइ अविधिचैत्य वांदतां पणि विधिबहुमानादिक होइ तो अविधिदोष निरनुबंध हुइ इत्यादिक श्रीहरिभद्रसूरिना ग्रंथनि अनुसारिं जाणवू // 98 // "गच्छांतरनो वेषधारी जिम वांदवा योग्य नहि तिम गच्छांतरनी प्रतिमा वांदवा योग्य नहीं" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि लिंगमां गुणदोषविचारणा कही छइ पणि प्रतिमा सर्वशुद्धरूप ज कही. यतः "जइविय पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंगं / उभयमवि अस्थि लिंगे ण य पडिमासूभयं अत्थि 11 // " -वंदनकनियुक्तौ // 99 // जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होइ णिज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स / / 1 // ए गाथामां अपवादपदप्रत्यय विराधना निर्जराहेतु होइ, एहवू पिंडनियुक्तवृत्ति विवरिउं छइ ते ऊवेषीनिं जे इम कल्पइ छइ जे इहां विराधना निर्जराप्रतिबंधक नथी जीवघातपरिणामजन्यपणानि अभावि वर्जनाभिप्रायोपाधिनी अपेक्षाई दुर्बल छइ ते वती, ते खोटुं, जे मार्टि ए कल्पनांई कदाचि अनाभोगहिंसा अदुष्ट आवइ पणि अपवादनी हिंसा अदुष्ट नावइ तिवारिं मलयगिरि आचार्यना साथि विरोध थाइ ते विचार || 100 // "दृष्टमंडलनि विषइ जे साधु दीसइ छइ तपगच्छना ते यली बीजइ क्षेत्रि साधु नथी" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ. जे मार्टि महानिशीथदुःखमास्तोत्रादिकनि अनुसारि क्षेत्रांतरि साधुसत्ता संभवइ एहवू परमगुरुनूं वचन छइ // 101 // इत्यादिक घणा बोल विचारवाना छइ ते सुविहित गीतार्थना वचनथी निर्धारीनिं सम्यक्त्वनी दृढता करवी सही // 101 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22