Book Title: Mahopadhyaya Jaysagar
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 2
________________ [ एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति नकल करके भेजी थी, इससे स्पष्ट है कि संघपति मण्डलिक के भ्राता संघपति महीपति ने सं० १५०६ में यह प्रति लिखवायी थी और इस प्रशस्ति में महीपति की पत्नी पुत्रों और पुत्रबधु के नाम प्राप्त हैं, अतः महीपति की अल्पायु में मृत्यु हो गई --- यह अनुमान जो आबू के प्रतिमा लेखों में महीपति के स्त्रीपुत्रों के नाम न मिलने से किया गया था, प्राप्त प्रशस्ति से असिद्ध हो जाता है । इसी तरह देल्हा के भी स्त्रोत्रादि का प्रतिमा लेखों में नाम न मिलने से उन्होंने अल्पायु में दोक्षा ले ली होगी व उनका नाम जयसागर रखा गया होगा - यह अनुमान भी प्राप्त प्रशस्ति में देल्हा के पुत्र कोहट का नाम मिल जाने से गलत सिद्ध हो जाता है । सब से महत्वपूर्ण बात इस प्रशस्ति से यह मालूम होती है कि हरिपाल के पुत्र आसिंग या आसराज के पुत्रों में से तृतीय पुत्र जिनदत्त ने बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करली थी । आठवें श्लोक में इसका स्पष्ट उल्लेख होने से यह निश्चित हो जाता है कि जयसागरजी दरड़ा गोत्रीय आसराज के पुत्र थे और उनका 'जिनदत्त' नाम था, तथा बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण कर ली थी । प्रतिमा लेखों में हरिसाल के पूर्वजों के नाम नहीं मिलते लेकिन प्रशस्ति में पद्मसिंह- खोमसिंह ये दो नाम पूर्वजों के और मिल जाते हैं तथा वंशजों के भी कई अज्ञातनाम प्राप्त हो जाते हैं । साथ ही साथ इस वंश के पुरुषों के कतिपय अन्य सुकृत्यों का भी उल्लेखनीय विवरण मिल जाता है । यथा संघपति आसा धर्मशाला, तोर्थयात्रा, उपाध्यायपद स्थापन और स्वधर्मो वात्सल्यादि में द्रव्य का सद्व्ययकर कृतार्थ हुए थे । सं० १४५७ में उ०जयलागरजी के सान्निध्य में मण्डलिक ने शत्रुञ्जय - गिरनार महातीर्थों की संघ सहित यात्रा की थी । एवं दूसरी बार सं० १५०३ में भी उभयतीर्थों की यात्रा की थी । मण्डलिक आदि ने आबू पर चौमुख प्रासाद बनाया था, इसी प्रकार विरार तोर्थ के वीर जिनालय में देवकुलिका निर्माण करवायी थो । प्रस्तुत प्रशस्ति वा० जयसागर की रचित है ऐतिहासिक से महत्वपूर्ण होने से नोचे दी जा रही है । Jain Education International ८५] स्वर्णाक्षरो कल्पसूत्र - प्रशस्ति (१) स्तमन्मुख्यः, ऊकेशः ज्ञातिमण्डनः ॥ स्वस्ति पद्मसिंहः पुरा जज्ञे, खीमसिंहस्ततः क्रमात् ॥१॥ खीमणिर्दयिता तस्य हरिपालस्तदङ्गभूः ॥ निविष्टं यन्मनः पूष्ण श्राद्धधर्ममयं महः ॥ २॥ साजकान्हड़ौ भोज वोरभावासिगस्तथा ॥ as च सर्वेऽपि षडमी हरिपालजाः ॥ ३॥ भारमलो भावदेवो भीमदेवस्तृतीयकः ॥ कान्हड़स्य त्रयोऽयेते सुताः सुजनताश्रिताः ॥४॥ छाड़ादयः पुनः पञ्च नन्दना भोजसम्भवाः ।! आसोद्वोरमसम्भूतो नगराजः सुताधिकः || ५ ॥ प्रथमराज इत्यस्ति बडुयाङ्गरुहो महान् || तेषु श्रीमानुदारश्च साध्यासाको व्यशिष्यत ।। ६ ।। प्रियाप्रियसी - त्सोरित्यमलाशया ॥ तयोरसुवाद्यः पाल्हः प्रल्हादभून्मनाः ॥ ७॥ द्वितीयो मण्डना नाम कुटुम्ब जनपूजितः ॥ तृोयो जिनदत्तश्च यो वाल्येऽप्यहीद्व्रतम् ||६|| चतुर्थः किल देल्हाख्य झुंटाकः पञ्चमः पुनः ॥ मण्डलाधिपवन्मान्यः षष्ठो मण्डलिकस्तथा ॥ सप्तमः साधुनालाको ष्टमः साधुमहीपतिः ॥ ६ ॥ गोविन्दरतनाहर्ष - राजा पाल्हाङ्गजास्त्रयः ॥ कीटो देहजन्माssस्ते तस्याप्यस्त्यम्बडोङ्गजः ॥१०॥ श्रीपाल भोमसिंहश्व, द्वाविमौ ऊण्टजातकौ ॥ साजण: सत्यनास्ते, पुत्रो मण्डलिकस्य तु ॥ ११॥ पोमसिंहो लब्म (म) सिंहो - रणमल्लश्च माल्हा: ॥ सुस्थिरः स्थावरो नाम, महीपत्यङ्गसम्भवः ॥ १२॥ तद्भार्या पूतलिः पुण्यवती शीलवती सती ॥ तनयौ सुनयौ तस्या देवचन्द्र-हचाभियो || ३ || कलगं देवचन्द्रस्य, कोबाई नामतः शुभा ॥ महीपतिपरोवार श्चिरं जयतु भूतले ॥१४॥ इत्यादि सन्ततिर्भुवस्यासाकस्योज्ज्वले कुले । उत्तरोत्तर सत्कर्म-विरतास्ते निरन्तरम् ॥१५॥ धर्मशाला तीर्थयात्रोपाध्याय स्थापनादिषु । चाको धनं निन्ये कृतार्थताम् ॥१६॥ C For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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