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महोपाध्याय जयसागर [अगरचन्द नाहटा]
खरतर गच्छ में आचार्यों के अतिरिक्त बहुत से ऐसे के नीचे इनके वंश का विवरण भी लिखा हुआ था, जिसे प्रभावशाली विद्वान हुए हैं जिन्होंने अनके स्थानों में विचर नहीं दिया जा सका । उसे शोधपत्रिका भाग ६ अंक १ कर अच्छा धर्म प्रचार किया और साहित्य-निर्माण में भी में प्रकाशित हमारे 'महोपाध्याय जयसागर और उनकी निरन्तर लगे रहे । पट्टावलियों में आचार्य-परम्परा का ही रचनाएँ नामक लेख में छपवा दिया गया था। विवरण रहता है इसलिए ऐसे विशिष्ट विद्वानों के सम्बन्ध सं. १९९४ में मुनि जयन्तविजयजी का 'श्री अद में भी प्राय: आवश्यक जानकारी हमें नहीं मिल पाती। प्राचीन जैन लेख संदोह' नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित मुनि जिनविजयजी ने सन् १९१६ में उपाध्याय जयसागर हुआ, उसमें आबू के खरतरवसही या चोमुखजी के प्रतिमा की विज्ञप्ति-त्रिवेणी नामक महत्वपूर्ण रचना सुसम्पादित कर लेख भी प्रकाशित हुए, इनमें से लेखाङ्क ४४६-५६-५७ में जन आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित करवायी जयसागर महोपाध्याय के मन्दिर निर्माता दरड़ा गोत्रीय थी। इसके प्रारंभ में उन्होंने बहुत महत्वपूण एवं विस्तृत संधपति मण्डलिक के भ्राता होने का उलेख प्रकाशित हुआ। प्रस्तावना ६६ पृष्ठों में लिखी थी, इस में जयसागर उपा- मुनि जय तविजयजी ने आबू की खरतरवसही के लेखों का ध्याय के संबन्ध में लिखा था कि 'इनके जन्म स्थान और गजराती अनुवाद प्रकाशित करते हुए संघपति मन्डलिक माता पितादि के विषय में कुछ भी वृत्तान्त उपलब्ध नहीं का शिलालेखों में प्राप्त वंश वृक्ष भी दे दिया था। उसमें हुआ, होने की विशेष संभावना भी नहीं है। विशेषकर उन्होंने लिखा था कि संघवी मन्डलिक के ६ भाइयों में से
का उल्लेख पट्टावली में हुआ करता है परन्तु उस बडे भाई साह देला और छोटे भाई साह महीपति के स्त्री में भी केवल गच्छपति आचार्य ही के सम्बन्ध की बात- पुत्र परिवार के नाम किसी प्रतिमा लेख में नहीं मिले । लिखी जाने की प्रथा होने से इतर ऐसे व्यक्तियों का विशेष अतः छोटे भाई महीपति की अल्प षय में मृत्यु हो गई होगी हाल नहीं मिल सकता । ऐसे व्यक्तियों के गुर्वादि एवं और बड़े भाई देल्हा ने छोटो उम्र में ही दीक्षा ले ली होगी। समयादि का जो कुछ थोड़ा बहुत पता लगता है वह केवल ऐसा लगता है कि दीक्षित अवस्था में इनका नाम जयउनके निजके अथवा शिष्यादि के बनाये हुए ग्रन्थों वगैरह सागरजी रखा गया होगा। पीछे से योग्यता प्राप्त होने की प्रशस्तियों का प्रताप है।"
पर वे महोपाध्याय हो गए। इसी लिए संघवी मण्डलिक सौभाग्य से हमारे संग्रह में एक ऐसा प्राचीन पत्र के कई लेखों में 'श्री जयसागर महोपाध्याय बान्धवेन' मिला जिसमें उ० जयसागरजी सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण लिखा मिलता है । अर्थात् महोपाध्याय जयसागरजी संघवो बातें लिखी हुई थी अतः हमने उसका आवश्यक अंश अपने मण्डलिक के संसार-पक्ष में भ्राता होते थे । 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' पृ० ४०० में प्रकाशित कर वास्तव में मुनि श्री जयन्तविजयजी के उपयुक्त दोनों दिया था तथा उसका ऐतिहासिक सार, उनकी रचनाओं अनुमान सही नहीं हैं । पूज्य गगिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी को नामावली सह प्रारंभ में दे दिया था। पर उसी पत्र ने हमें उ० जयसागरजी के रचित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र की
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एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति नकल करके भेजी थी, इससे स्पष्ट है कि संघपति मण्डलिक के भ्राता संघपति महीपति ने सं० १५०६ में यह प्रति लिखवायी थी और इस प्रशस्ति में महीपति की पत्नी पुत्रों और पुत्रबधु के नाम प्राप्त हैं, अतः महीपति की अल्पायु में मृत्यु हो गई --- यह अनुमान जो आबू के प्रतिमा लेखों में महीपति के स्त्रीपुत्रों के नाम न मिलने से किया गया था, प्राप्त प्रशस्ति से असिद्ध हो जाता है । इसी तरह देल्हा के भी स्त्रोत्रादि का प्रतिमा लेखों में नाम न मिलने से उन्होंने अल्पायु में दोक्षा ले ली होगी व उनका नाम जयसागर रखा गया होगा - यह अनुमान भी प्राप्त प्रशस्ति में देल्हा के पुत्र कोहट का नाम मिल जाने से गलत सिद्ध हो जाता है । सब से महत्वपूर्ण बात इस प्रशस्ति से यह मालूम होती है कि हरिपाल के पुत्र आसिंग या आसराज के पुत्रों में से तृतीय पुत्र जिनदत्त ने बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करली थी । आठवें श्लोक में इसका स्पष्ट उल्लेख होने से यह निश्चित हो जाता है कि जयसागरजी दरड़ा गोत्रीय आसराज के पुत्र थे और उनका 'जिनदत्त' नाम था, तथा बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण कर ली थी । प्रतिमा लेखों में हरिसाल के पूर्वजों के नाम नहीं मिलते लेकिन प्रशस्ति में पद्मसिंह- खोमसिंह ये दो नाम पूर्वजों के और मिल जाते हैं तथा वंशजों के भी कई अज्ञातनाम प्राप्त हो जाते हैं । साथ ही साथ इस वंश के पुरुषों के कतिपय अन्य सुकृत्यों का भी उल्लेखनीय विवरण मिल जाता है । यथा
संघपति आसा धर्मशाला, तोर्थयात्रा, उपाध्यायपद स्थापन और स्वधर्मो वात्सल्यादि में द्रव्य का सद्व्ययकर कृतार्थ हुए थे । सं० १४५७ में उ०जयलागरजी के सान्निध्य में मण्डलिक ने शत्रुञ्जय - गिरनार महातीर्थों की संघ सहित यात्रा की थी । एवं दूसरी बार सं० १५०३ में भी उभयतीर्थों की यात्रा की थी । मण्डलिक आदि ने आबू पर चौमुख प्रासाद बनाया था, इसी प्रकार विरार तोर्थ के वीर जिनालय में देवकुलिका निर्माण करवायी थो । प्रस्तुत प्रशस्ति वा० जयसागर की रचित है ऐतिहासिक से महत्वपूर्ण होने से नोचे दी जा रही है ।
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स्वर्णाक्षरो कल्पसूत्र - प्रशस्ति (१) स्तमन्मुख्यः, ऊकेशः ज्ञातिमण्डनः ॥
स्वस्ति
पद्मसिंहः पुरा जज्ञे, खीमसिंहस्ततः क्रमात् ॥१॥ खीमणिर्दयिता तस्य हरिपालस्तदङ्गभूः ॥
निविष्टं यन्मनः पूष्ण श्राद्धधर्ममयं महः ॥ २॥
साजकान्हड़ौ भोज वोरभावासिगस्तथा ॥ as च सर्वेऽपि षडमी हरिपालजाः ॥ ३॥ भारमलो भावदेवो भीमदेवस्तृतीयकः ॥ कान्हड़स्य त्रयोऽयेते सुताः सुजनताश्रिताः ॥४॥ छाड़ादयः पुनः पञ्च नन्दना भोजसम्भवाः ।! आसोद्वोरमसम्भूतो नगराजः सुताधिकः || ५ ॥ प्रथमराज इत्यस्ति बडुयाङ्गरुहो महान् || तेषु श्रीमानुदारश्च साध्यासाको व्यशिष्यत ।। ६ ।। प्रियाप्रियसी - त्सोरित्यमलाशया ॥ तयोरसुवाद्यः पाल्हः प्रल्हादभून्मनाः ॥ ७॥ द्वितीयो मण्डना नाम कुटुम्ब जनपूजितः ॥ तृोयो जिनदत्तश्च यो वाल्येऽप्यहीद्व्रतम् ||६|| चतुर्थः किल देल्हाख्य झुंटाकः पञ्चमः पुनः ॥ मण्डलाधिपवन्मान्यः षष्ठो मण्डलिकस्तथा ॥ सप्तमः साधुनालाको ष्टमः साधुमहीपतिः ॥ ६ ॥ गोविन्दरतनाहर्ष - राजा पाल्हाङ्गजास्त्रयः ॥ कीटो देहजन्माssस्ते तस्याप्यस्त्यम्बडोङ्गजः ॥१०॥ श्रीपाल भोमसिंहश्व, द्वाविमौ ऊण्टजातकौ ॥ साजण: सत्यनास्ते, पुत्रो मण्डलिकस्य तु ॥ ११॥ पोमसिंहो लब्म (म) सिंहो - रणमल्लश्च माल्हा: ॥ सुस्थिरः स्थावरो नाम, महीपत्यङ्गसम्भवः ॥ १२॥ तद्भार्या पूतलिः पुण्यवती शीलवती सती ॥ तनयौ सुनयौ तस्या देवचन्द्र-हचाभियो || ३ || कलगं देवचन्द्रस्य, कोबाई नामतः शुभा ॥ महीपतिपरोवार श्चिरं जयतु भूतले ॥१४॥ इत्यादि सन्ततिर्भुवस्यासाकस्योज्ज्वले कुले । उत्तरोत्तर सत्कर्म-विरतास्ते निरन्तरम् ॥१५॥ धर्मशाला तीर्थयात्रोपाध्याय स्थापनादिषु । चाको धनं निन्ये कृतार्थताम् ॥१६॥
C
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अपिच-संवत् १४८७ वर्षे सहोदर भावस्थितोपाध्यायश्रीजय सागरगणिसान्निध्यमासाद्य
महाविभूत्या च महामहिम्ना, यात्रां महातोर्थ युगेऽव्यकार्षीत् । सङ्घयुक्तो महता महिष्ठः सङ्घ शतां मण्डलिकः प्रपन्नः || १७ || सवत् १५०३ वर्षे तत्सान्निध्यादेव -
लोकोत्तरा स्फातिरुदारता च, लोकोत्तरं सङ्घजनच नच । शत्रुञ्ज रैवतके च यात्रा कृताद्भ ता मण्डलिकेन भूयः ॥ १८ ॥ समं मण्डलिनैव, मालाकश्च महीपतिः ।
तदा सङ्घपती जातौ प्रिया मण्डलिकस्य तु ॥ ११॥ रोहिणी नामतः ख्याता मांजुर्मालाङ्गना पुनः ।
काई महोत्साहा, महीपतिसधम्मिणी ॥२०॥ आसदन् सङ्घपत्नीत्वमेतास्तिस्रः कुलस्त्रियः । प्रायेण हि पुरन्ध्रीणां महत्त्वं पुरुषाश्रितम् ॥२१॥ अर्बुदाद्विशिरस्युच्च-स्ते प्रासादं चतुर्मुखम् । भ्रातरं कारयन्ति स्म, त्रयो मण्डलिकादयः ॥२२॥ इतश्च
चान्द्रे कुठे श्रीजिनचन्द्रसूरिः संविज्ञभावोऽभयदेवसूरिः । द्वल्लभः श्री जिनवल्लभोऽपि युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥२३॥
कान्हड़
भारमल-भावदेव - भीमदेव
मंडन
दसाज
पाल्हा भा०सारू
जिनदत्त (दीक्षा ली )
गोविंदराज रत्नराज - हर्षराज
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भोज
छाडादि ५
देल्हा
1 की हट
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भाग्याद्भुतः श्रीजिनचन्द्रसूरिः क्रियाकठोरो जिनपत्तिसूरिः । जिनेश्वरः सूरिरुदारवृत्तो, जिनप्रबोधो दुरितान्निवृत्तः ||२४|| प्रभावक : श्री जिनचन्द्रसूरिः सूरिजिनादिः कुशलान्तशब्दः । पद्मानिधिः श्रजितपद्मसूरि लब्धेर्निधानं जिनलब्धिसूरिः ||२५|| संगिक : श्रीजिनचन्द्रसूरिजिनोदयः सूरिरभूदभूरिः । ततः परं श्रीजिनराजसूरिः सौभाग्य सीमा श्रुतसम्पदोकः ||२६|| तदास्पदव्योम तुषाररोचि विरोचते श्रीजिनभद्रसूरिः । तस्योपदेशामृतपानतुष्ट स्तेषु त्रिषु भातृषु पुण्य पुष्टः ||२७|| श्रीवते वीरजिनेन्द्र चैत्ये, विधाप्य सद्ददेवकुलीं कुलीनः । महीपतिः सङ्घपतिः सुवर्णाक्षरैर्मुदा लेखयतिस्म कल्पम् ॥
२८ ॥ युग्मम्
संवत् १५०६ वर्षे -
श्रीजयसागर वाचक विनिम्मिता सदसि वाच्यमानाऽसौ । कल्पप्रशस्तिरमला नन्दत्वानन्दकल्पलता ||२६||
इति श्री खरतर गुरुभक्त सङ्घपति मण्डलिक भ्रातृ सङ्घपति सा० महीपति कल्पपुस्तक प्रशस्तिः
पद्मसिंह
खीम सिंह - स्त्री - खीमणी
I
हरिपाल
वीरम
झांटा भा० अमरी
नगराज
आसिग ( आसराज )
स्त्री-सोषु
श्रीपाल - भीमसिंह
1 मंडलिक
भा०होराई - रोहिणी ।
साजण
भा० सोनाई
अंबड
सं० १५११ को प्रशस्ति में गणपति, उदयराज मेघराज के नाम अधिक है ।
माला
भा० मांजू
-
बडुयाक
प्रथमराज
I
महीपति
पोमसिंह-लक्ष्मसिंह - रणमल
T
सहसमल - वस्तुपाल
स्थावर- - पूतली भा० 1 देवचंद्र हरिचंद्र
( स्त्रो को बाई )
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[ ८० ]
उपाध्याय जयसागरजी की विज्ञति त्रिवेणी द्वारा अनेक नये तथ्य और जैन इतिहास तथा अप्रसिद्ध तीर्थ सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। मुनि जिनविजयजी ने लिखा है कि विज्ञप्ति त्रिवेणी रूप पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व का है । इसमें लिखा गया वृत्तांत मनोरंजक होकर जैन समाज की तत्कालीन परिस्थिति पर अच्छा प्रकाश डालता है । उस समय भारत के उन ( सिन्धु पंजाब ) प्रदेशों में भी जैन धर्म का कैसा अच्छा प्रचार व सत्कार था । इन प्रदेशों में हजारों जंन बसते थे व सैकड़ों जिना - लय मौजूद थे जिनमें का आज एक भी विद्यमान नहीं । जिन मरुकोट, गोपस्थल, नन्दनवनपुर और कोटिल्लग्राम आदि तीर्थस्थलों का इसमें उल्लेख है उनका आज कोई नाम तक भी नहीं जानता । जहाँ पर पांच पांच दस दस साधु चातुर्मास रहा करते थे वहां पर आज दो घण्टे ठहरने के लिये भी यथेष्ट स्थान नहीं। जिस नगरकोट महातीर्थ की यात्रा करने के लिए इतनी दूर दूर से संघ जाया करते थे वह नगरकोट कहां पर आया है इसका भी किसी को पता नही ।
इसमें केवल अलंकारिक वर्णन ही नहीं है परन्तु एक विशेष प्रसंग का सच्चा और सम्पूर्ण इतिहास भी है । ऐसा पत्र अभी तक पूर्व में कोई नहीं प्रगट हुआ । यह एक बिल्कुल नई ही चीज है । "
नगरकोट कांगड़ा में बहुत प्राचीन प्रतिमा थी । खरतरगच्छ के आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के प्रतिष्ठित और साधु खीमसिंह कारित शांतिनाथ मंदिर व मूर्ति का उपाध्यायजी ने वहां दर्शन किया। वहां के राजा भी परंपरा से जैन थे । नरेन्द्र रूपचंद के बनाये हुए मंदिर में स्वर्णमय महावीर बिम्बको भी उन्होंने नमन किया। यहां की खरतरवसही का उल्लेख करते हुए लिखा है - "अपि च नगरकोट्टे देशजालन्धरस्थे
प्रथम जिनपराज: स्वर्ण मूर्त्तिस्तु वीरः
खरतरवसतौ तू श्रेयसां धाम शान्ति
स्त्रयतिदम भिनम्याह्लादभावं भजामि ॥ १८ ॥ " पंजाब और सिन्ध प्रदेश में शताब्दियों तक खरतरगच्छ का बहुत अच्छा प्रभाव रहा है। इस सम्बन्ध में मेरा लेख "सिन्ध प्रान्त और खरतरगच्छ " द्रष्टव्य है ।
हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में जयसागरोपाध्याय सम्बन्धी जो महत्त्वपूर्ण विवरण सं० १५११ का लिखा हुआ छपा है उसका सार इस प्रकार है
"उज्जयन्त शिखर पर नरपाल संघपति ने "लक्ष्मीतिलक" नामक विहार बनाना प्रारंभ किया तब अम्बादेवी, श्री देवी आपके प्रत्यक्ष हुई और सैरिसा पार्श्वनाथ जिनालय में श्री शेष, पद्मावती सह प्रत्यक्ष हुआ था। मेदपाटदेशवर्त्ती नागद्रह के नवखण्डा पार्श्व चैत्यालय में श्रीसरस्वती देवी आप पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशलसूरिजी आदि देवता भी आप पर प्रसन्न थे । आपने पूर्व में राजगृह नगर उड़-विहारादि, उत्तर में नगरकोट्टादि, पश्चिम में नागद्रह आदि को राजसभाओं में वादि वृन्दों को परास्त कर विजय प्राप्त की थी । आपने सन्देह, दोलावली वृत्ति, पृथ्वीचन्द्र चरित, पर्व रत्नावली, ऋषभस्तव, भावारिवारण वृत्ति एवं संस्कृत प्राकृत के हजारों स्तवनादि बनाये | अनेकों श्रावकों को संघपति बनाये और अनेक शिष्यों को पढ़ाकर विद्वान बनाये । "
इसमें उल्लिखित गिरनार के नरपाल कृत "लक्ष्मीतिलक प्रासाद" के संबन्ध में रत्नसिंहसूरि रचित गिरनार तीर्थमाला में भी उल्लेख मिलता है'थापी श्री तिलक प्रासादहिं, साहनरपालि
पुण्य प्रसादिहिं सोवनमय सिरिवीरो" महो० जयसागर जिनराजसूरिजी के शिष्य थे अतः उनकी दीक्षा सं० १४६० के आस-पास होनी चाहिये । इनकी दीक्षा बाल्यकाल में हुई, ऐसा प्रशस्ति में उल्लेख है, अतः दस-बारह वर्ष की आयु में दीक्षित होने से जन्म सं०
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________________ / 1445-50 के बीच होना चाहिये। सं० 1475 में की विस्तृत प्रस्तावना में आपके शिष्य समूह के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित भी लिखा है। तदनुसार आपके प्रथम शिष्य मेघराज किया था। श्रोजिनवद्ध' नसूरिजी के पास आपने लक्षण- गणि थे जिनके रचित नगरकोट के आदिनाथ स्तोत्र, साहित्यादि का अध्ययन किया था। सं. 1478 से सं० चौबीस पद्यों का हारबन्ध काव्य है। दूसरे शिष्य 15.3 तक की आपकी अनेक रचनायें प्राप्त हैं। सं० सोमकुञ्जर के विविध अलंकारिक पद्य विज्ञप्ति त्रिवेणी मे 1511 की प्रशस्ति के अनुसार आपने हजारों स्तुति- प्राप्त हैं। एवं खरतरगच्छ-पट्टावली हमारे एतिहासिक स्तोत्रादि बनाये थे। खेद है कि आपकी रचनाओं की तीन जैन काव्य संग्रह में पद्य 30 की प्रकाशित है। जेसलमेर के संग्रह-प्रतियाँ हमारे अवलोकन में आई वे तीनों ही अधरी श्री संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति सं० 1467 में आपने थीं, फिर भी आपकी पचासों रचनाएं संप्राप्त हैं। स्वर्गीय निर्माण की जो जैसलमेर जैन लेख संग्रह में मद्रित है। मनि की कान्तिसागरजी के संग्रह में आपकी कृतियों का जयसागरोपाध्याय के विशिष्ट शिष्यों में उ० रलचन्द्र एक गुटका जानने में आया है जिसे हम अब तक नहीं देख भी उल्लेखनीय है जिनकी दीक्षा सं० 1484 के लगभग सके हैं / सं० 1515 के आसपास अपका स्वर्गवास अनुमा- हई होगी। सं० 1503 में जयसागरोपाध्याय के पृथ्वोनित है। चन्द्र चरित्र को प्रशस्ति में गणि रत्नचन्द्र द्वारा रचना में __ खरतर गच्छ में महोपाध्याय पद के लिए यह परम्परा सहायता का उल्लेख है। सं० 1521 से पूर्व इन्हें उपाहै कि अपने समय में जो सब उपाध्यायों से वयोवृद्ध-गीतार्थ ध्याय पद प्राप्त हो चुका था। इनके शिष्य भक्तिलाभोहो वह अपने समय का एक ही महोपाध्याय माना जाता पाध्याय भी अच्छे विद्वान थे उनकी कई रचनायें उपलब्ध है। आचार्य-उपाध्याय तो अनेक हो सकते पर महोपाध्याय हैं। उनके शिष्य पाठक चारित्रसार के शिष्य चाहचन्द्र एक ही होता है, अत: महोपाध्याय जयसागर दीर्घायु, और भानमेश वाचक थे जिनके शिष्य ज्ञानविमल उपाध्याय पत्रहत्तर-अस्सी वर्ष के हुए होंगे। असाधारण प्रतिभा / और उनके शिष्य श्रीवल्लभोपाध्याय अपने समय के नामी सम्पन्न विद्वान होने के नाते आपने सैकड़ों रचना अवश्य की विद्वान थे। आपके रचित विजयदेव माहाम्य की मुनि होगी। प्रात: रचनाओं का सुसम्पादित आलोच त्मिक जिन विजयजी ने बड़ो प्रशंसा की है। आपके अरजिनम्तव संग्रह प्रकाशन होने से आपकी विद्वत्ता का सच्चा मुल्यांकन हो सकेगा। सटीक और संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति महो० विनयसागर महो० जयसागरजी की शिष्य-परम्परा भी बड़ी जी संपादित एवं विद्वद्प्रबोध तथा हेमचन्द्र के व्याकरण मरत्वपूर्ण रही है। मनि जिनविजयजी ने विज्ञप्ति त्रिवेणी कोश आदिमी टीका प्रकाशित हो चकी है। - -- ---- -- - - - -